नेताओं का दलबदलः अपमान, बदला या राजनीतिक महत्वाकांक्षा


कार्यकर्ताओं को मान-सम्मान, गौरव और अवसर राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी है.


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अतिथि विचार Published On :
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सरयूसुत मिश्रा

मध्यप्रदेश में बीजेपी के आधार स्तंभ रहे कैलाशवासी कैलाश जोशी के कुल दीपक कांग्रेस का हाथ थामने जा रहे हैं. वे इसका कारण पिता के अपमान का बदला बता रहे हैं. मान मनोव्वल की सारी कोशिश बेकार हो गई हैं बीजेपी से उनकी बगावत को दीपक जोशी की राजनीतिक हैसियत के कारण राजनीतिक महत्व नहीं मिल रहा है बल्कि ये महत्व बीजेपी के शिल्पकार कैलाश जोशी के पुत्र होने के कारण ज्यादा देखा जा रहा है.

दीपक जोशी 2018 के विधानसभा चुनाव में पराजित हो गए थे जिस व्यक्ति ने उन्हें पराजित किया था वह बाद में सिंधिया खेमे के साथ बीजेपी में शामिल हो गए. अगर दीपक जोशी पराजित नहीं हुए होते तो उनको हराने वाले विधायक का पार्टी में आने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता और आज के राजनीतिक हालात पैदा ही नहीं होते.

सियासत में हमेशा जीत की पूजा होती है. हारा हुआ नेतृत्व कितना भी भारी क्यों ना हो उसका राजनीतिक वजूद धीरे-धीरे मिट ही जाता है. एमपी में चुनावों की करीब आती घड़ी के बीच राजनीतिक आधार की तलाश में सत्ता भोग चुके नेता और कार्यकर्ता हाथ पैर मारने लगे हैं. जो दल सत्ता में है उसमें असंतोष की ज्यादा संभावना होती है. बीजेपी में असंतोष की जो आवाजें सुनाई पड़ रही है वह अस्वाभाविक नहीं कही जा सकती लेकिन उनके सुरों को साधने की जरूरत है.

अगर 2018 के जनादेश के आधार पर मध्यप्रदेश में आज सरकार चल रही होती तो विपक्षी पार्टी के रूप में बीजेपी आगामी चुनाव में उतरती. तब शायद असंतोष की इतनी आवाज सुनाई नहीं पड़ती. जीत और सुख का जो आधार है वही बाद में हार और दुख की बुनियाद बनता है. कांग्रेस में बगावत के कारण बीजेपी को सत्ता की जीत मिली थी. जीत के इसी आधार को कांग्रेस भविष्य की हार के बुनियाद के रूप में देख रही है.

कर्नाटक और मध्यप्रदेश में सरकारों का गठन दूसरे दलों में बगावत और विधायकों के इस्तीफों के बाद हुआ था. जितने विधायक कांग्रेस से टूटकर बीजेपी में शामिल हुए थे उन सभी ने बीजेपी के नेताओं को चुनाव हराया था. उन विधानसभा क्षेत्रों में मुकाबला बीजेपी के साथ ही था लेकिन पार्टी ने सरकार बनाने के लिए कांग्रेस के बागी विधायकों को जब स्वीकार किया तो निश्चित रूप से उन क्षेत्रों में स्थापित बीजेपी नेताओं का भविष्य अंधकार में दिखाई पड़ने लगा. सरकार जरूर बीजेपी ने बना ली लेकिन उन सभी विधानसभा क्षेत्रों में मूल बीजेपी और पंजा छाप परिवर्तित बीजेपी के बीच में टकराव लगातार बना रहा.

इन क्षेत्रों में भावनात्मक विभाजन साफ-साफ दिखाई पड़ता है. यह वाजिब सवाल है कि कोई भी अपने घर में आग लगा कर दूसरे के लिए उजाला नहीं करता. बीजेपी के लिए जो विधायक सरकार बनाने के आधार बने थे आज वह सभी विधानसभा क्षेत्र बड़ी चुनौती के रूप में सामने हैं. उन क्षेत्रों में नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच खदबदा रहे असंतोष को संगठन के समर्पण और विचारधारा के सहारे जीतने की जरूरत होगी. अगर ऐसा संभव नहीं हो सका तो फिर परिस्थितियां क्या होंगी कहना मुश्किल है.

कैलाश जोशी एक ऐसे संत राजनेता माने जाते थे जिन्होंने जनसेवा के लिए मान-सम्मान और अपमान को कभी तवज्जो नहीं दी. बीजेपी ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाया था लेकिन एक साल में ही उन्हें हटना पड़ा. मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद कैलाश जोशी ने बीजेपी की सरकार में ही मंत्री का पद स्वीकार किया. अहंकारी सियासत में सामान्य रूप से कभी भी मुख्यमंत्री रहने के बाद मंत्री बनने के लिए कोई भी हामी नहीं भरता. कैलाश जोशी पद और प्रतिष्ठा को मान-अपमान से जोड़ कर देखना ही पसंद नहीं करते थे. मध्यप्रदेश में बीजेपी का इतिहास बिना कैलाश जोशी के पूरा नहीं हो सकता. शायद इसीलिए उनके कुलदीपक की बगावत मीडिया और राजनीतिक जगत में चर्चा का विषय बनी हुई है.

जहां तक दीपक जोशी का सवाल है उन्हें सत्ता में हिस्सेदारी बीजेपी में मिलती रही है. यहां तक कि वे मंत्री भी रह चुके हैं. विधानसभा चुनाव पराजित होने के बाद राज्य में हुए राजनीतिक घटनाक्रमों का अगर उन्हें खामियाजा भुगतना पड़ा है तो इसके लिए सारा दोष पार्टी को नहीं दिया जा सकता. अगर दीपक जोशी अपनी राजनीतिक ताकत को अपने विधानसभा क्षेत्र में कायम रखते और पराजित नहीं होते तो ऐसे हालात बनते ही नहीं.

भंवरसिंह शेखावत और सत्यनारायण सत्तन की आवाज भी मीडिया में गूंज रही है. असंतोष होना कोई बुरी बात नहीं है. असंतोष की ऊर्जा का अगर सकारात्मक उपयोग किया जाए तो इससे सफलता का रास्ता खुल सकता है. राजनीति में सत्ता में हिस्सेदारी की मनोदशा हर कार्यकर्ता की होती है. सत्ता का इसे दुर्गुण कहें या अनिवार्यता, लेकिन सामूहिकता के मामले में तो कोई भी सरकार बड़े समुदाय को संतुष्ट करने का प्रयास कर सकती है लेकिन निजी स्तर पर सत्ता सब को संतुष्ट करने में कभी भी सक्षम नहीं हो सकती.

इसीलिए राजनीतिक दलों में संघर्ष और सत्ता संचालन के अलग-अलग किरदार होते हैं. जो लोग संघर्ष में उपयोगी होते हैं वह सत्ता चलाने में कई बार अनुपयोगी साबित होते हैं. जलवायु परिवर्तन आज पूरी दुनिया में चिंता का विषय बना हुआ है. जलवायु के समान ही ‘राज-वायु’ परिवर्तित हो रही है. समर्पण और महत्वाकांक्षा हमेशा सफल हो ऐसा संभव नहीं है. राजनीति में धैर्य सबसे जरूरी तत्व माना जाता है.

वैसे नेताओं और कार्यकर्ताओं में बगावत और असंतोष का डीएनए कांग्रेस में बिना किसी जांच के देखा जा सकता है. बीजेपी भी अब इस दिशा में कांग्रेस जैसा ही व्यवहार करती दिखाई पड़ रही है. कार्यकर्ताओं को मान-सम्मान, गौरव और अवसर राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी है.

चुनाव की तारीख भले ही निश्चित नहीं हैं लेकिन पाणिग्रहण का समय तो लगभग तय ही है. अभी तो सभी राजनीतिक दलों में रूठने और मनाने का दौर चलेगा. सत्ता के लिए यह चुनौती ज्यादा रहेगी. राजनीति की समस्या ही यही बनती जा रही है कि कोई भी कुछ भी छोड़ना नहीं चाहता. बीजेपी में सरताज सिंह और रामकृष्ण कुसमरिया जैसे नेताओं ने पार्टी छोड़ी जबकि इन दोनों नेताओं को दशकों तक पार्टी में विभिन्न पदों पर रहने का मौका दिया. जब इतने बड़े नेता बगावत की मानसिकता से उबर नहीं सकते तो फिर सामान्य कार्यकर्ताओं के बारे में तो कुछ कहना ही सही नहीं होगा.

दीपक जोशी को राजनीतिक परिस्थितियों ने घोर निर्जन में डाल दिया है. उन्हें अपने संत तुल्य पिता का उन्नत राजनीतिक भाल निश्चित याद आ रहा होगा. स्मृतियों पर वर्तमान कभी खड़ा नहीं होता. अतीत का बोझ चेतना को बोझिल बना देता है और वर्तमान को भी ठीक से जीने नहीं देता. कोई भी इंसान पाषाण तो होता नहीं कि उसको कोई कहीं भी डाल दे और वह कभी विरोध या अनुरोध नहीं करे. मन की वेदना और सुखद स्मृतियां खास करके सत्ता में हिस्सेदारी प्राण को हमेशा झकझोरती रहती है.

दीपक जोशी ऐसे दोराहे पर खड़े हैं, जहां से उनका राजनीतिक सफर आसान नहीं होगा. चाहे पुराने रास्ते पर रहें चाहे नए रास्ते पर जाएं. पिता की विरासत को बचा कर रखने की जिम्मेदारी उन्होंने नहीं निभाई तो राजनीतिक लाभ-हानि तो अलग उन्हें अपने मन का संतोष भी गंवाना पड़ सकता है.

(लेखक की सोशल मीडिया पोस्ट से साभार)