क्या खड़गे को खिलौना बता कर पीएम ने दलितों का अपमान किया?


पीएम मोदी ने क्या कर्नाटक के लोगों का अपमान नहीं किया है? या फिर इसे देश के दलितों का अपमान क्यों न माना जाये?


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अतिथि विचार Published On :
mallikarjun kharge

पंकज श्रीवास्तव

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वैसे भी चुनावी सभाओं में छुटभैये नेताओं और अपनी भाषा में फ़र्क़ मिटा देते हैं, लेकिन कर्नाटक की एक सभा में उन्होंने जिस तरह कांग्रेस के रायपुर अधिवेशन में सोनिया गाँधी पर तानी गयी छतरी को पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे का अपमान बताया, वह विशुद्ध बौखलाहट का नतीजा है। इसमें कांग्रेस की बढ़ी हालिया चमक से उपजी चिंता भी शामिल है।

क्या मोदी जी से पलट कर पूछा जा सकता है कि कर्नाटक के एक दलित नेता का कांग्रेस अध्यक्ष बनना क्या उन्हें बर्दाश्त नहीं हो रहा है? कांग्रेस अधिवेशन में मल्लिकार्जुन खड़गे को कार्यसमिति चुनने का भी पूरा अधिकार सौंपा गया है, ऐसे में उन्हें रिमोट से चलने वाला खिलौना बताकर क्या उन्होंने कर्नाटक के लोगों का अपमान नहीं किया है? या फिर इसे देश के दलितों का अपमान क्यों न माना जाये?

नरेंद्र मोदी अच्छी तरह जानते हैं कि सोनिया गाँधी का स्वास्थ्य ठीक नहीं है। उन्होंने अगर छाते वाली तस्वीर देखी होगी तो यह भी देखा होगा कि अधिवेशन के मंच पर अकेले सोनिया गाँधी ही थीं जिन्होंने चेहरे पर मास्क लगाया हुआ था।

वैसे भी तिरंगे को सलामी देते हुए पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के क़रीब खड़ीं सोनिया गाँधी को धूप से बचाने के लिए छतरी तानने वाला कोई कांग्रेस का नेता या कार्यकर्ता नहीं था। वह केंद्र द्वारा मुहैया कराया गया एक सुरक्षाकर्मी था। उसने सोनिया जी के स्वास्थ्य की स्थिति को जानते हुए उन्हें कड़ी धूप से बचाने के लिए एक सहज मानवीय पहल की। पीएम मोदी की तर्कशैली को अपनायें तो इसे भी केंद्र यानी उनकी साज़िश माना जाना चाहिए। कहना चाहिए कि छाता तानना दरअसल एक ‘तस्वीर बनाने’ की साज़िश थी।

पीएम मोदी की चिंता स्वाभाविक है। जिस तरह से मल्लिकार्जुन खड़गे को कांग्रेस का सर्वशक्तिमान अध्यक्ष बनाया गया है, उससे उनका वंशवाद का आरोप हास्यास्पद हो चला है। वे अब तक यही बताने की कोशिश करते रहे हैं कि कांग्रेस में पूरी तरह एक परिवार का क़ब्ज़ा है जैसे कि वह कोई ज़मीन का टुकड़ा या इमारत हो न कि देश को आज़ादी दिलाने और उसे एक गणतंत्र बनाने वाली विश्व की अनोखी राजनीतिक मुहिम।

वे ये भी नहीं समझना चाहते कि नेहरू-गाँधी परिवार की आज़ादी के पहले और बाद की कुर्बानियों की वजह से आम कांग्रेस जनों के दिल में उसके प्रति विशेष लगाव और इज़्ज़त स्वाभाविक है।

ये पूछना वाजिब है कि क्या कोई दूसरा परिवार है नेहरू परिवार जैसा जिसमें तीन पीढ़ियों के लोग आज़ादी के लिए जेल गये हों और आज़ादी के बाद माँ और बेटे दोनों देश के दुश्मनों के हाथों शहीद हुए हों? इसके बावजूद गाँधी परिवार के किसी व्यक्ति ने कांग्रेस अध्यक्ष पद पर दावेदारी नहीं की थी।

इतना ही नहीं, इस प्रश्न पर एक तरह की ज़िद दिखाई पड़ी कि सोनिया गाँधी के हटने के बाद इस परिवार का कोई व्यक्ति पार्टी अध्यक्ष नहीं बनेगा। अध्यक्ष पद के लिए बाक़ायदा चुनाव हुआ जिसमें मल्लिकार्जुन खड़गे को भारी बहुमत से चुना गया।
रायपुर अधिवेशन में कार्यसमिति का चुनाव न कराने का फ़ैसला यह स्पष्ट करता है कि मल्लिकार्जुन खड़गे अब पार्टी में सर्वशक्तिमान हैं न कि रिमोट से चलने वाले खिलौने, जैसा कि पीएम मोदी का आरोप है।

यह भी जानना महत्वपूर्ण है कि संचालन समिति की जिस बैठक में यह तय किया गया कि कार्यसमिति का चुनाव नहीं होगा, उसमें भी गाँधी परिवार का कोई सदस्य उपस्थित नहीं था। यानी पार्टी के तमाम वरिष्ठ नेताओं ने मिल कर तय किया कि कार्यसमिति के सदस्यों को मनोनीत करने का अधिकार पूरी तरह से कांग्रेस अध्यक्ष को दिया जाये।

यह मौजूदा स्थिति को देखते हुए एक महत्वपूर्ण फ़ैसला है। अब मल्लिकार्जुन खड़गे अपनी टीम बनाने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र हैं। पीएम मोदी इसी ‘खड़गे युग’ के आगाज़ से परेशान हैं। मल्लिकार्जुन खड़गे की अध्यक्षता में हुए रायपुर अधिवेशन में जो फ़ैसले हुए हैं उससे पार्टी में नई जान आना तय है।

पार्टी के हर स्तर की कमेटी में आधे स्थान 50 से कम उम्र के लोगों और आधे स्थान दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षित करने का फ़ैसला एक क्रांतिकारी क़दम है। यह वंचित समूहों को भागीदारी देने की सबसे बड़ी पहल है। यह कल्पना ही की जा सकती है कि अगर ऐसा फ़ैसला बीजेपी ने किया होता तो मीडिया किस तरह से रात-दिन ढोल-ताशे बजा रहा होता।

मल्लिकार्जुन खड़गे संसदीय राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं। वे पार्टी ब्लॉक कमेटी के अध्यक्ष से चलकर राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद तक पहुँचे हैं।

वे 1971 में पहली बार विधायक बने थे। उन्होंने विधानसभा का लगातार नौ चुनाव जीतने का रिकॉर्ड बनाया और फिर 2009 में लोकसभा में आ गये। 2014 में भी उन्होंने जीत हासिल की और अब राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष भी हैं। यानी उनका संसदीय जीवन पचास साल से ज़्यादा हो चुका है।

विपक्षी दलों के साथ संवाद का उनका अनुभव बीजेपी की उस कोशिश में आड़े आ रही है जिसके तहत वह 2024 के चुनाव के पहले विपक्ष को एकजुट नहीं होने देना चाहती। बीजेपी की पूरी कोशिश है कि ‘नेतृत्व के प्रश्न’ को लेकर विपक्ष में सर फुटौवल हो जाये। लेकिन मल्लिकार्जुन खड़गे ने साफ़ कह दिया है कि प्रधानमंत्री पद को लेकर कांग्रेस चुनाव के पहले उम्मीदवार घोषित करने के पक्ष में नहीं है।

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन के 70वें जन्मदिन पर आयोजित कार्यक्रम में उन्होंने साफ़ कहा, “हम अभी इस बारे में बात नहीं कर रहे हैं कि प्रधानमंत्री कौन बनेगा। राजनीतिक दलों को अपने मतभेदों को भुलाकर 2024 चुनावों में बीजेपी के ख़िलाफ़ एक साथ आना चाहिए।”

कांग्रेस अध्यक्ष के इस बयान पर तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने जो कहा वह बीजेपी के लिए ख़तरे की घंटी की तरह है। स्टालिन ने साफ़ कहा कि कांग्रेस को साथ लिए बग़ैर विपक्षी एकता की बात बेमानी है।

उन्होंने तीसरे मोर्चे की कवायद को निरर्थक बताते हुए कहा कि “अगला आम चुनाव इस बारे में नहीं है कि सरकार कौन बनाएगा बल्कि इस बारे में ज़्यादा है कि कौन सत्ता में नहीं होना चाहिए। राजनीतिक दलों को अपने मतभेदों को भुलाकर 2024 चुनावों में बीजेपी के ख़िलाफ़ एक साथ आना चाहिए।”

देश की राजनीति में आ रहे इस परिवर्तन के मायने प्रधानमंत्री मोदी अच्छी तरह समझ रहे होंगे। चिंता स्वाभाविक है। लेकिन जवाब में मल्लिकार्जुन खड़गे को रिमोट से चलने का जो ओछा बयान उन्होंने दिया है, उससे बचना दरअसल प्रधानमंत्री पद की गरिमा बचाना होता।

किसे इस आरोप को सुनकर अच्छा लगेगा कि भारत के प्रधानमंत्री की नज़र में एक पचास साल का अनुभव रखने वाला दलित नेता भी रिमोट ही होता है! यह मानने में क्या ग़लत है कि आरएसएस की मनुवादी चिंतनधारा किसी दलित को शीर्ष पर बर्दाश्त ही नहीं कर सकती!

(लेखक कांग्रेस से जुड़े हैं और आलेख सत्यहिंदी से साभार)