राजनीति की खादी में मखमल और टाट के पैबंद


किसी भी दल में अब आन्तरिक लोकतंत्र बचा नहीं है इसलिए धीरे-धीरे सभी राजनीतिक दलों का कायान्तरण औद्योगिक घरानों की तर्ज पर हो गया है।


जयराम शुक्ल
अतिथि विचार Published On :
money nexus in politics

जयराम शुक्ल

सत्तर के दशक में हम लोग एक कविता की दो पंक्तियों को दीवारों पर नारे की तरह लिखा करते थे- ‘’खादी ने मखमल से ऐसी सांठ-गांठ कर डाली है, टाटा, बिड़ला, डालमिया की बरहों मास दिवाली है।‘’ उन दिनों किसी भी नेता के खिलाफ सबसे बड़ा लांछन यही माना जाता था कि वह पूंजीपरस्त है और उद्योगपतियों से उसकी सांठगांठ है। आज स्थिति बिलकुल उलट है। अब यह रिश्ता जनप्रतिनिधियों की काबिलियत, योग्यता और क्षमता का परिचायक है।

ऐसा नहीं कि उद्योगपतियों के नेताओं व राजनीति से सम्बन्ध नहीं रहें हों, ऐसे संबंध रहे हैं कि आज भी उनकी दुहाई दी जाती है। मुगल सल्तनत के खिलाफ लड़ते हुए राणा प्रताप ने जब आर्थिक मदद का आह्वान किया तो भामाशाह ने अपनी समूची मिल्कियत उनके कदमों पर रख दी। सुभाषचन्द्र बोस ने जब आजाद हिन्द फौज का गठन किया तो उन्हें आर्थिक मदद देने में तत्कालीन पूंजीपति पीछे नहीं रहे।

महात्मा गांधी ताउम्र बिड़ला घराने के अतिथि रहे, राधाकृष्ण बजाज उनके अतिप्रिय थे। डॉक्टर राममनोहर लोहिया हैदराबाद के सेठ ब्रदीविशाल पित्ती और कानपुर के सेठ रामरतन के मित्र व मेहमान रहे और ये समाजवादी आंदोलन की आर्थिक जरूरतों को पूरी करते रहे।

सम्पूर्ण क्रांति का बिगुल फूंकने वाले लोकनायक जयप्रकाश नारायण और उनके सहयोगी नानाजी देशमुख के पीछे की आर्थिक पृष्ठिभूमि में गोयनका घराना व टाटा का ट्रस्ट रहा है। कमल मोरारका चन्द्रशेखरजी के करीबी रहे हैं। इन नेताओं ने कभी अपने संबंध छुपाए नहीं, अपितु उद्योगपतियों को समाजसेवा व राष्ट्रप्रेम के साथ जोड़ा।

दरअसल खादी और मखमल के बीच घालमेल का खेल नब्बे के दशक से आर्थिक उदारीकरण के साथ शुरू हुआ। पूंजी बाजार के खेल में जहां नेताओं की उद्योग धंधों के प्रति रुचि पैदा हुयी, वहीं उद्योगपतियों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं जागीं। क्षेत्रीय दल उभरे और कारपोरेट घरानों में बदलते गए। इस नई बयार में विजय माल्या जैसे लिकरकिंग धन बल के दम पर राज्यसभा में चले गए, तो भाजपा और कांग्रेस ने अपने-अपने कोटे से उद्योगपतियों को राज्यसभा में भेजने का काम शुरू किया।

कांशीराम और मायावती ने तो राजनीति को बाकायदा कारोबार में बदल दिया। बसपा एक राजनीतिक संगठन के रूप में किसी कारपोरेट हाउस से कम नहीं, जिसकी सुप्रीमो मायावती वैसे ही सीईओ हैं, जैसे कि शिवसेना में बाल ठाकरे के बाद अब उनके पुत्र उद्धव ठाकरे। मुलायम सिंह और करुणानिधि क्यों पीछे रहते। करुणानिधि घराने ने उद्योगपतियों से सांठ-गांठ तो की ही, खुद का विशाल कारोबार भी खड़ा कर लिया। इस सदी के सत्ता के सबसे बड़े दलाल अमर सिंह ने राजनीतिक दलों को यह सिखाया कि औद्योगिक घरानों का कैसे राजनीतिक इस्तेमाल किया जा सकता है और राजनीति अपने आप में कैसे एक स्वतंत्र उद्योग हो सकती है। राष्‍ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के सुप्रीमो शरद पवार व उनके परिवार का भी ऐसा ही सुव्यवस्थित कारोबार है।

भाजपा को कारपोरेट संस्कृति से जोड़ने का श्रेय स्वर्गीय प्रमोद महाजन को जाता है जिन्होंने उद्योगपतियों व भाजपा के बीच सेतु का काम किया। राबर्ट वाड्रा और डीएलएफ के गठजोड़ के खुलासे ने कांग्रेस के चरित्र के ढंके परदे को खोला है। एसोसियेटेड जर्नल्स को कांग्रेस द्वारा दिए गए लोन ने देश के सबसे बड़े राजनीतिक घराने के कारोबारी चरित्र को रेखांकित किया है।

दरअसल किसी भी दल में अब आन्तरिक लोकतंत्र बचा नहीं है इसलिए धीरे-धीरे सभी राजनीतिक दलों का कायान्तरण औद्योगिक घरानों की तर्ज पर हो गया है। पार्टी की प्रदेश व जिले की शाखाएं आउटलेटस और शोरूम में तब्दील हो गईं। राजनीतिक दलों के इस चलन ने भ्रष्टाचार व कालाबाजारी के जरिए कुबेर बने अपराधियों व असमाजिक तत्वों को तहेदिल से प्रोत्साहित किया है।

कर्नाटक में भाजपा सरकार के मंत्री रहे रेड्डी बन्धु और हरियाणा के गृह राज्यमंत्री रहे गोपाल काण्डा कोई विरले चरित्र नहीं हैं, विधायक, सांसद बनने के लिए अब किसी वैचारिक पृष्ठभूमि व राजनीतिक संस्कार की जरूरत नहीं रह गई। हर प्रदेश में हर राजनीतिक दल में रेड्डियों व काण्डाओं की भरी पूरी जमात है।

पिछले एक दशक से विधायकों की खरीदारी करके सरकार पलटने का खेल चल रहा है। कर्नाटक और मध्यप्रदेश में विधायकों की खरीदी को लेकर अभी भी सवाल उठ रहे हैं। महाराष्ट्र और गोवा के सत्तापलट में भी धन का खेल है। हाल ही की घटनाएं झारखंड और तेलंगाना की है। केजरीवाल एक सुर से आरोप लगा रहे हैं कि उनके विधायकों व मंत्रियों को खरीदने की कोशिशें की जा रही हैं।

चुनावी लोकतंत्र के जनादेश को खरीदने के लिए यह धन कहाँ से आता है..? नेता लोग अपनी मिल्कियत बेचकर तो कदापि ऐसे सौदे नहीं करेंगे। जाहिर है यह रुपया पूँजीपतियों के पास से आता है। वे कारपोरेट हाउस राजनीति की घोड़ामंडी में दाँव लगाते हैं जिन्हें अपनी सुविधा के अनुसार नीति की दरकार है साथ ही कानूनी संरक्षण की। ये जल-जंगल और जमीन पर ज्यादा से ज्यादा कब्जा करना चाहते हैं सो इसलिए उनके लिए यह छोटा सा निवेश है।

आज प्रायः यह सभी जानते हैं कि देश-प्रदेश का कौन नेता किस उद्योगपति के कितना करीब है। नेता लोग यह प्रदर्शित भी करते हैं कि फलां औद्योगिक घराने से उसकी इतनी निकटता है। कोरम बाँध बनाने वाले ठेकेदार के मित्र एक मंत्री ने बड़ा ही बेशर्म बयान दिया था। कि हाँ वह मेरा मित्र है और जो बाँध बरसात में टूटा है वह बाँध की परिभाषा में आता ही नहीं। वह ठेकेदार मध्यप्रदेश में हुए सत्तापलट के समय अक्सर उक्त मंत्री का बगलगीर हुआ करता था।

गुजरात के अभागे मोरबी शहर में अठारहवीं सदी के झूलापुल का ठेका घड़ी और बल्व बनाने वाली कंपनी को दे दिया गया। नगरनिगम ने पूछपरख तक नहीं की और न ही उसकी गुणवत्ता की जाँच की। पुल टूटने से डेढ़ सौ लोग मौत के मुँह में समा गए। कंपनी का मालिक इस दुर्घटना को हरि इच्छा (एक्ट आफ गॉड) बता रहा है। किसी की कोई जिम्मेदारी नहीं। सबके सब ईश्वर की इच्छा से मारे गए। तहें खुलेंगी तो पता चलेगा कि इसके पीछे किस दिग्गज का हाथ था जो संरक्षण दे रहा है। कंपनी जब विधायकों के खरीदने और सत्ता के पलटने में निवेश कर चुकी है तो वह निश्चिंत है। उसका टेंटुआ दबाओगे तो वह पोल भी खोल देगी जैसा कि एक ठग सुकेश चन्द्रशेखर जेल से ही खोल रहा है।

दरअसल पूँजीपतियों का सिंडिकेट ही यह तय करने लगा है कि पीएम और सीएम के चेहरे कौन होंगे। वे संगठन को इस दबाव में रखने में कामयाब हो जाते हैं कि फलाँ को यदि भावी ओहदेदार के लिए घोषित करेंगे तो हम इतना निवेश कर सकते हैं। 2014 में आडवाणी के समर्थकों ने खुलेआम यह आरोप लगाया था कि उन्हें प्रधानमंत्री का दावेदार क्यों घोषित नहीं किया गया।

यह व्याधि अब पार्षदी के चुनाव तक आ पहुंची है। भोपाल और इंदौर में पार्षद बन जाना लाटरी लग जाने से कम नहीं। रियलस्टेट के कारोबारी अब खुलकर पार्षदों के स्पांसर के तौर पर आने लगे हैं। ऊपर से नीचे तक यही चल रहा है। राजनीति की घोड़ामंडी में सबके लिए दाम निर्धारित हैं। दार्शनिक/विचारक थामस फुलर कह गए हैं- ‘’सरकार क्यों न किसी की हो, पर वास्तविक शासन व्यापारी ही करता है।..और सरकारें बदली जा सकती हैं, लेकिन व्यापारी नहीं…!’’

इसी नई व्यवस्था का परिणाम है कि आज नेताओं व उद्योगपतियों के पास 10 लाख करोड़ रुपयों की घोषित संपत्ति है। यानि के भारत की कुल संपत्ति का 95 प्रतिशत जो 5 प्रतिशत ऐसे लोगों के पास है। टाइम मैग्जीन के मुताबिक सत्ता के दुरुपयोग के मामले में शीर्ष दस मामलों में भारत दूसरे नम्बर पर है। दुनिया में अमीरों की संख्या के मामले में भी भारत अमेरिका के बाद दूसरे नम्बर पर है। वहीं दूसरी ओर अर्थशास्त्री अरुण सेन गुप्ता की अध्यक्षता वाले आयोग का अध्ययन बताता है कि 77 प्रतिशत भारतवासी 20 रुपये प्रतिदिन में गुजारा करते हैं।

शायद स्वतंत्र भारत के भविष्य का आकलन करते हुए ही 10 फरवरी 1936 के यंग इंडिया के अंक में महात्मा गांधी ने स्वराज के संदर्भ में लिखा था..”सच्चा स्वराज मुट्ठी भर लोगों द्वारा सत्ता प्राप्ति से नहीं आएगा, बल्कि सत्ता का दुरुपयोग किए जाने की सूरत में उसका प्रतिरोध करने की जनता की सामर्थ्य विकसित होने से आएगा।”

(आलेख वेबसाइट मध्यमत.कॉम से साभार)