राजनेता आजमाते हैं चुनावी पैंतरे, मंदिर-मस्जिद भी पॉलिटिकल मोहरे


महबूबा मुफ्ती दिखावे के लिए नहीं बल्कि मन से और विचार से यदि बदलना चाहती हैं तो उनको हतोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए.


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अतिथि विचार Published On :
mehbuba mufti mahadev ki sharan me

सरयूसुत मिश्रा

जम्मू कश्मीर में शीघ्र चुनाव के लिए फारूक अब्दुल्ला की लीडरशिप में 13 राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों ने दिल्ली में चुनाव आयोग से मुलाकात कर राज्य में चुनाव कराने की मांग की. इसके बाद दिल्ली से तो चुनाव की तारीखों का कोई एहसास नहीं हो सका लेकिन महबूबा मुफ्ती के महादेव की शरण में पहुंचने से जरूर यह लगने लगा है कि जम्मू-कश्मीर में जल्द ही चुनाव होने वाले हैं.

हिंदू-हिंदुत्व और देवी-देवताओं से नफरत जिसकी राजनीति का सहारा हुआ करता था, आज वही चुनाव की नजर से महादेव का सहारा ले रही हैं. राजनीति हो अगर महबूबा तो मुफ्ती भी मंदिर जाने से परहेज नहीं करते. पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती ऐसा ही कर रही हैं. आतंकवाद अल्पसंख्यकवाद की राजनीति महबूबा परिवार की जड़ों में समाई हुई है. इनके पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद ने भारत के तत्कालीन गृहमंत्री के रूप में अपनी बेटी को मुक्त कराने के लिए खूंखार आतंकवादियों को छोड़ा था.

जम्मू कश्मीर में मुस्लिम कट्टरता महबूबा मुफ्ती की राजनीति का आधार माना जाता है. कश्मीर के मुद्दे पर पाकिस्तान के साथ सहानुभूति पीडीपी के लिए चुनावी फसल हुआ करती थी. बीजेपी सरकार ने जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाने का जब ऐतिहासिक फैसला लिया था तब इसका विरोध करने वालों में महबूबा मुफ्ती सबसे आगे थीं. सरकार के फैसले को मिले व्यापक जनसमर्थन के बाद भी उस समय महबूबा ने पकिस्तान के सुर में सुर मिलाया था लेकिन कश्मीर बदल रहा है, कश्मीर बदल गया है, इसका एहसास अब महबूबा मुफ्ती का महादेव की शरण में जाना साबित कर रहा है.

सियासत में कुर्सी और सत्ता की ताकत हासिल करने के लिए बहुत कुछ करना पड़ता है. पब्लिक तो राजनीति के बदलते चेहरे पर असली चेहरा उजागर करने में देर नहीं करती. पुंछ जिले में नवग्रह मंदिर में महबूबा की पूजा-अर्चना पर सोशल मीडिया पर कड़ी प्रतिक्रियाएं आ रही हैं. मुस्लिम संगठन भड़क गए हैं. इत्तिहाद उलेमा ए हिंद के मुफ्ती अरशद कासमी ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि महबूबा ने जो किया वह गैर इस्लामिक है और उनकी पूजा इस्लाम के खिलाफ है. सोशल मीडिया पर जब मंदिर में जलाभिषेक करने वाला फोटो वायरल हुआ तो कमेंट्स की भरमार आ गई.

कहा जाने लगा कि महबूबा ने सियासी जमीन को पुख्ता करने के लिए या फिर भाजपा की पिच पर ही भाजपा को मात देने के लिए यह हथकंडा अपनाया है. एक यूजर ने तो कहा कि अब असली धर्मनिरपेक्षता नजर आने लगी है, तिरंगा उठाना तो छोड़िए शिव महिमा भी गाई जाने लगी है. एक प्रतिक्रिया में लिखा गया है कि यह जड़ों की ओर वापसी है. एक जनाब लिखते हैं कि पॉलीटिकल ड्रामा है और एक कमेन्ट में कहा गया कि और कितने अच्छे दिन चाहिए?

कश्मीर को भारत की जड़ों से जोड़ने से जो लोग हाय तौबा मचा रहे थे वही लोग वहां आए बदलाव के साथ अपने को जोड़कर फिर से राजनीतिक वजूद कायम करने का प्रयास कर रहे हैं. जिस कश्मीर में तिरंगा फहराने के लिए आंदोलन करना पड़ता था उसी कश्मीर में अब कई तिरंगा विरोधी हाथ में तिरंगा लेकर चलने में गौरव महसूस कर रहे हैं.

कश्मीर में बदलते हालात देखकर पाक अधिकृत कश्मीर में भी भारत के साथ जुड़ने की लहर शुरू हुई है. पाकिस्तान जिस तरह से अराजकता और राजनीतिक अस्थिरता का शिकार होता जा रहा है उससे पाक अधिकृत कश्मीर के निवासियों को पाकिस्तान के साथ अपने अस्तित्व को जोड़ने से भय लगने लगा है. पाक अधिकृत कश्मीर के लोगों को कश्मीर में हुई प्रगति और आए बदलाव से भारत के साथ जुड़ने में ज्यादा प्रगति और बेहतरी दिखाई पड़ रही है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रणनीति और दृढ़नीति ने कश्मीर में बदलाव लाने में सफलता हासिल की है. कश्मीर में कट्टरता अभी भी बीच-बीच में सिर उठाती है. कश्मीरी पंडितों के साथ आज भी जीवन यापन की समस्या कहीं-कहीं दिखाई पड़ती है लेकिन भावी कश्मीर का अच्छा संकेत राष्ट्र की एकता और संप्रभुता के लिए महत्वपूर्ण दिशा दिखा रहा है.

भारत बदल रहा है. राजनीति में विचार और प्रचार भी बदल रहा है. राजनीति के बाजार में सक्सेस का जो दौर दिखाई पड़ रहा है उसके साथ हर राजनीतिक दल और राजनेता जुड़ना चाहता है. आज ऐसा दिखाई पड़ता है कि कट्टर अल्पसंख्यकवाद के साथ कोई भी सेकुलर कट्टरता के साथ खड़ा होता दिखाई नहीं पड़ना चाहता. राजनीति में ऐसी विरोधाभासी स्थितियां बनी है. जब हिंदुत्व के समर्थक तो अपनी पहचान को ताकत के साथ रखना चाहते हैं और रखते भी हैं लेकिन अल्पसंख्यकवाद के समर्थक अपनी पहचान को बदल कर दिखाना चाहते हैं.

जीवन और आचरण में कट्टरता भरी पड़ी है लेकिन मंदिर में जाकर जलाभिषेक कर सर्व समभाव का चेहरा दिखाना राजनीतिक मजबूरी बन गया है. ऐसा केवल महबूबा मुफ्ती कर रही हैं ऐसा भी नहीं है. सेकुलर दलों के नेता अपने को हिंदूवादी साबित करने के लिए तरह-तरह के प्रयोग करते हुए दिखाई पड़ते हैं.

राजनीति में आ रहे बदलाव को ईमानदारी के साथ सर्वधर्म समभाव को बढाने के सामूहिक प्रयास देश के भविष्य को नया स्वरूप दे सकते हैं. जो लोग राजनीति के लिए अपना राजनीतिक चेहरा हिंदुत्ववादी दिखाना चाहते हैं उन्हें दोनों समुदायों के बीच सामंजस्य और सौजन्यता के लिए काम करना चाहिए. हिंदू हितों के लिए काम करने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को फासीवादी और मुस्लिम विरोधी संगठन बता कर वास्तविकताओं से मुकाबला नहीं किया जा सकता. संघ की पानीपत में संपन्न बैठक में संगठन के साथ महिलाओं और मुस्लिमों को जोड़ने के लिए विचार विमर्श देश के बदलते माहौल के साथ चलने के प्रयास के रूप में देखा जाना चाहिए.

धार्मिक पहचान से जीवन नहीं जिया जा सकता. जीवन जीने के लिए बुनियादी जरूरतें धार्मिक सीमाओं से परे हैं. रोजी-रोटी,पढ़ाई-लिखाई, दवाई जैसी जरूरतें धार्मिक मान्यताओं के अनुसार निर्धारित नहीं होती. यह तो राजनीतिक फितूर है जो धार्मिक आधार पर पहचान को प्रभावी बनाकर राजनीतिक हित पूरा करता है.

राजनीतिक हित राष्ट्रहित से बड़े कभी भी नहीं हो सकते. कट्टरता दूसरों से ज्यादा स्वयं को नुकसान पहुंचाती है. क्रोध-ईर्ष्या और दूसरे को कष्ट पहुंचाने के विचार से ही व्यक्ति स्वयं को कष्ट पहुंचाने लगता है. कट्टरता छोड़कर हम समाज और देश से ज्यादा स्वयं के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करेंगे. महबूबा मुफ्ती दिखावे के लिए नहीं बल्कि मन से और विचार से यदि बदलना चाहती हैं तो उनको हतोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए.

(आलेख लेखक के सोशल मीडिया पोस्ट से साभार)