PESA Act से आदिवासी गौरव स्‍थापित करने की तैयारी


जनजातीय समाज पूरी तरह से इसे तभी गौरव मानेगा जब इसके कारण उनकी संस्कृति और उनके विकास के पैमानों को उनकी इच्छा और अनुमति से आगे बढ़ने का मौका मिलेगा।


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अतिथि विचार Published On :
shivraj singh chauhan pesa act

सरयूसुत मिश्रा।

जनजातीय समाज की राजनीतिक ताकत के बिना कोई भी राजनीतिक दल सत्ता में आने का सपना नहीं देख सकता। खासकर जनजातीय बहुल राज्यों में तो जनजातियों को लुभाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी जाती। भारत के संवैधानिक प्रमुख के रूप में जनजातीय महिला को मिला गौरव इस समाज को गौरवान्वित करने के लिए ऐतिहासिक कदम हो सकता है, लेकिन विकास के मामले में आज भी जनजातीय समाज नई करवट का इंतजार कर रहा है।

जनजातीय समाज को कानूनी संरक्षण तो बहुत दिए गए हैं लेकिन आजादी के 75 साल बाद हकीकत बहुत अधिक नहीं बदली है। जनजातीय समाज को उनकी रीति-रिवाजों और संस्कृति के संरक्षण के साथ विकास की प्रक्रिया में पूर्ण स्वायत्तता और भागीदारी के लिए 26 साल पहले भारत सरकार ने पेसा एक्ट बनाया था।

इस एक्ट का मध्यप्रदेश से गहरा संबंध था। मध्यप्रदेश के ही जनप्रतिनिधि दिलीप सिंह भूरिया की अध्यक्षता में बनाई गई समिति की अनुशंसा पर यह एक्ट बनाया गया था। 24 दिसंबर 1996 को पेसा कानून देश में लागू हो गया था। इस कानून के क्रियान्वयन के लिए राज्य सरकारों द्वारा नियम बनाए जाने लगे थे। पेसा एक्ट की कोख कहे जाने वाले मध्यप्रदेश में ही यह कानून अभी तक लागू नहीं हो सका है। अब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने घोषणा की है कि बिरसा मुंडा की जयंती 15 नवंबर को गौरव दिवस से पेसा एक्ट मध्यप्रदेश में लागू हो जाएगा।

गौरव दिवस के अवसर पर इस एक्ट को लागू करने के पीछे शायद सोच यही है कि यह आदिवासियों के लिए बड़ा गौरव का अवसर है। एक्ट बनने के 26 साल बाद किसी भी कानून के नियम लागू होने को किसी भी समाज के लिए हॉरर-कॉमेडी या प्राइड माना जाए, यह कैसे डिसाइड होगा? जो कानून 26 साल लागू नहीं हो सका तो क्या इस समाज के गौरव की चिंता सरकारों को नहीं थी, जिसे 26 साल तक गौरव के रूप में महसूस नहीं किया गया उसे अब कैसे गौरव कहा जाएगा?

पेसा का पूरा नाम पंचायत उपबंध अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार अधिनियम है। इस कानून का मूल उद्देश्य जनजातियों को विकास के लिए स्वायत्ता देना है। जनजातीय जनसंख्या को स्वशासन प्रदान करते हुए उपयुक्त प्रशासनिक ढांचा विकसित करने के साथ ही ग्राम सभा को सभी गतिविधियों का केंद्र बनाना, इस कानून का मौलिक उद्देश्य है। इस एक्ट में ऐसा कहा गया है कि प्रत्येक जनजातीय ग्राम में अलग ग्रामसभा होगी। प्रत्येक ग्रामसभा सामाजिक एवं आर्थिक विकास के कार्यक्रमों एवं परियोजनाओं को स्वीकृति देगी। गरीबी, उन्मूलन और अन्य कार्यक्रमों के लिए लाभार्थियों को चिन्हित करने तथा चयन करने के लिए भी ग्रामसभा ही उत्तरदायी होगी।

अनुसूचित क्षेत्रों में लघु जल निकायों की योजना बनाने तथा उनका प्रबंधन करने का अधिकार भी इस कानून में ग्रामसभा को दिया गया है। गौण खनिजों और लघु वन उपज के प्रबंधन का दायित्व भी पेसा एक्ट में जनजातीय ग्राम सभा को रहेगा। मादक पदार्थों के उपभोग को प्रतिबंधित, नियमित व सीमित करने की शक्ति भी ग्राम सभा को दी गई है। अनुसूचित क्षेत्रों में भूमि के हस्तांतरण को रोकने की शक्ति ग्राम सभा के पास है। अनुसूचित जनजातियों को धन उधार दिए जाने की प्रक्रिया को नियंत्रित करने, स्थानीय उप योजनाओं सहित स्थानीय योजनाओं तथा उनके लिए निर्धारित संसाधनों पर नियंत्रण रखने की पूरी शक्ति भी ग्रामसभा के पास ही इस कानून में दी गई है।

मध्यप्रदेश जनजातीय बाहुल्य राज्य है। पेसा एक्ट आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, झारखंड, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, राजस्थान और मध्य प्रदेश में लागू होता है। कुछ राज्यों में इस एक्ट के संबंध में नियम पहले से लागू हो चुके हैं। मध्यप्रदेश में नियम 15 नवंबर से लागू करने की घोषणा की गई है। जिन राज्यों में नियम पहले से लागू हैं उन राज्यों में भी जनजातीय समाज में पेसा एक्ट का वास्तविक रूप से कोई असर देखने को नहीं मिल रहा है।

जनजातीय समाज भी राज्य के दूसरे समुदायों की तरह से विकास की बाट जोह रहा है। इस समाज के लिए पेसा एक्ट को संजीवनी नहीं माना जा सकता। इसके पहले आदिवासी उपयोजना के नाम पर अरबों रुपए पूरे देश में आदिवासियों के कल्याण एवं विकास पर खर्च किए गए हैं। आदिवासी उपयोजना की राशि और उनके उपयोग की सच्चाई आंखें खोलने वाली है। जल, जंगल और जमीन आदिवासियों की जीवन रेखा मानी जाती है। इन तीनों संसाधनों पर जनजातियों का नियंत्रण लगातार न्यूनतम होता जा रहा है।

जंगल आज हमें क्यों आकर्षित करते हैं? शायद इसलिए कि जंगल में विकास का कोई हस्तक्षेप नहीं होता। प्राकृतिक रूप से जंगल विकसित होता है। जनजातीय संस्कृति और जनजीवन प्राकृतिक रूप से विकास से जुड़ा हुआ था। इस समाज के बीच विकास की प्रतियोगिता उसी तरीके से पहुंच गई है जैसे शहरों और कस्बों में हो रही है।

पर्यावरण असंतुलन और प्रदूषण के कारण शहरी इलाकों में जनजीवन दूभर हो गया है। देश की राजधानी दिल्ली में प्रदूषण के कारण सांस लेना कठिन हो गया है। आज हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि स्कूलों को बंद करना पड़ रहा है। किसी भी सरकार के पास इसका कोई समाधान नहीं है। एक दूसरे को आरोपित कर राजनीतिक लाभ-हानि प्राप्त की जा सकती है लेकिन पर्यावरण को जो हानि हुई है या हो रही है, उसको रोकना अब शायद सरकारों के बस में नहीं रह गया है।

पेसा एक्ट आदिवासी संस्कृति को कैसे संरक्षित करेगा? प्रदेश में अधिसूचित अनुसूचित क्षेत्रों में ही पेसा एक्ट लागू होगा जबकि इसके विपरीत प्रदेश के कई इलाकों में बड़ी संख्या में जनजातीय आबादी रहती है, उनको इस एक्ट का लाभ नहीं मिलेगा। इसके साथ ही अधिसूचित क्षेत्रों में भी प्रत्येक ग्राम में ग्राम सभा वर्तमान में नहीं है। जनजातीय परंपरा के संरक्षण के लिए जब 75 साल प्रयास नहीं किए गए तो अब पेसा एक्ट से उनके संरक्षण की कल्पना करने का कोई औचित्य नहीं है।

जो भी आदिवासी संस्कृति संरक्षित है वह नैसर्गिक ढंग से संरक्षित है और भविष्य में भी रहेगी। अब तो ऐसी परिस्थितियां दिखाई पड़ रही हैं कि सरकार और कानूनों का जनजातीय क्षेत्रों में उपयोग ही प्रतिबंधित कर दिया जाए। प्राकृतिक रूप से इस समाज को जल जंगल और जमीन के सहारे ही विकास का उनका अपना संसार कायम रखने का मौका दिया जाए।

कोई सरकार जनजातीय समुदाय को बर्तन उपलब्ध करा देती है तो कोई राशन और कुछ छोटे-मोटे लाभ दे देती है। जो जनजातीय समाज इस प्रदेश का मूल है, उसे उसकी मौलिकता के साथ जीवन यापन का मौका देने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति में कमी साफ देखी जा सकती है। पेसा एक्ट लागू करने की घोषणा को गौरव मानने की दृष्टि सरकार और राजनेताओं की हो सकती है लेकिन जनजातीय समाज पूरी तरह से इसे तभी गौरव मानेगा जब इसके कारण उनकी संस्कृति और उनके विकास के पैमानों को उनकी इच्छा और अनुमति से आगे बढ़ने का मौका मिलेगा।

(लेखक की सोशल मीडिया पोस्‍ट से साभार)