कोरोना ने हमें कुछ नए शब्द सिखाये। उसमें से एक दिलचस्प शब्द है: बायो-बबल !


दिनचर्या और रिश्तों का बबल , धीरे-धीरे विचार का बबल भी तो बन सकता है । इन दिनों लोग एक ही विचार के साथ रहना चाहते हैं। सोशल मीडिया भी इसमें हमारी मदद करता है।


संजय वर्मा
अतिथि विचार Updated On :

कोरोना ने हमें कुछ नए शब्द सिखाये। उसमें से एक दिलचस्प शब्द है – बायो-बबल ! मतलब एक अदृश्य घेरा , जिसके भीतर कोई अजनबी इंसान या वायरस ना आ सके।

पर बबल क्या सिर्फ ‘बायो’ होता है ? हम लगातार एक बबल के भीतर ही तो रहते हैं ! एक घेरे के भीतर ! घर से दफ्तर , फिर दफ्तर से घर ,के दौरान हम कुछ खास लोगों से ही मिलते हैं । वही 25 – 50 लोग !

इस बबल के भीतर हम किसी नये इंसान को नहीं आने देते ! यहां तक कि पार्टी में भी हम उन्हीं जाने पहचाने लोगों से मिलते हैं ! इसे क्या हम एक सामाजिक बबल कहें ? रिलेशनशिप बबल ?

हम यात्राओं पर जाते हैं , नए अनुभव लेने , मगर वहां पर भी हमारा परिवार , हमारे दोस्त, वही एक बबल ! किसी नये इंसान से बचते बचाते ! दरअसल हम यात्रा नहीं कर रहे होते , वह बबल यात्रा कर रहा होता है।

अनुभवों के वायरस हमें छू भी नहीं पाते। हम वैसे ही लौट आते हैं। अपनी पुरानी इम्यूनिटी के साथ। हम पूरा जीवन बबल्स में जीते हैं । दिनचर्या का भी एक बबल हो सकता है।

मेरे एक मित्र सिर्फ दाल चावल खाते हैं। वे होटल में भी वही वही दाल चावल आर्डर करते हैं। वे भोजन के बबल में कैद हैं। नए स्वाद के वायरस के लिए उन्होंने अपने दरवाजे बंद कर दिये हैं।

कोई सवाल कर सकता है, इसमें हर्ज ही क्या है ? इस बबल को तोड़ने की ज़रूरत ही क्या है ? लेखक अनिल यादव के यात्रा संस्मरण -‘ वह भी कोई देस है महराज ‘ में एक प्रसंग है।

नार्थ ईस्ट की इस यात्रा के दौरान वहां लगातार अभाव , परेशानी , खून खराबे के खौफनाक मंजरों से थक कर उनका सहयात्री उनसे पूछता है हम यहां आखिर क्यों आए हैं ? और अनिल जवाब देते हैं – संवेदनाओं के व्यायाम के लिए !

एक जगह बैठे रहने , व्यायाम न करने से यदि शरीर की मांसपेशियां कमजोर पड़ सकती हैं , तो किसी बबल के भीतर रह कर सोचिये क्या कुछ कमज़ोर होता होगा।

तो फिर हम क्यों नहीं करते यह व्यायाम ? हरिवंश राय बच्चन कहते हैं – “इस पार प्रिय तुम हो , मधु है / उस पार न जाने क्या होगा !” क्या यह उस पार की असुरक्षा का भय है ? या इस पार की सुख सुविधाएं , आराम ,कंफर्ट जोन?

मनोवैज्ञानिकों ने हमें बताया है कि कंफर्ट जोन की प्रवृत्ति सिकुड़ने की होती है । धीरे-धीरे उनके दायरे छोटे और तंग होते जाते हैं। अगर बबल को आप नहीं तोडेंगे तो वह छोटा होता जाएगा।

दिनचर्या और रिश्तों का बबल , धीरे-धीरे विचार का बबल भी तो बन सकता है । इन दिनों लोग एक ही विचार के साथ रहना चाहते हैं। सोशल मीडिया भी इसमें हमारी मदद करता है।

उसका अलगोरिद्म हमें उसी तरह की चीजें दिखाता है , जो हम पहले देखते आए हैं और इस तरह विचार का, मानसिकता का, एक बबल बन जाता है।  नए विचारों के लिए हमारे दरवाजे बंद हो जाते हैं।

यह दुनिया जैसे जैसे बदल रही है , इंसान की जिंदगी का मकसद भी बदल रहा है । जंगल के दिनों में बस जिंदा बचे रहना , जिंदगी का मकसद था। अब हम बुनियादी जरूरतों, सुरक्षा की मुश्किलों से आजाद हो चुके हैं।

नई दुनिया के नए लोग जल्द ही समझेंगे कि पृथ्वी पर अपनी इस यात्रा के दौरान बस उन्हें भरपूर जीना है । अधिक से अधिक अनुभव बटोरने हैं। अनुभव नया मोक्ष हो सकता है, और बबल में रहना जिंदगी नाम के इस सुंदर अनुभव के अवसर को चूक जाना है । इसलिए बबल के खतरे को पहचानना जरूरी है।

एक ही घर के भीतर , एक छत के नीचे रह रहे लोग भी अपने-अपने बबल्स में रहने लगते हैं । औपचारिक बातों का सुरक्षित बबल। जिसमें कोई अपने दिल की बात नहीं कहता कोई अपना दिल खोलकर किसी को नहीं दिखाता । रिजेक्शन के वायरस का डर है।

कबीर कहते हैं – प्रेम गली अति सांकरी जामे दो न समाय । पर प्रेम में भी कभी-कभी निजता का बबल नहीं टूट पाता । बचते बचाते प्रेम कर लिया जाता है । बरसों बरस साथ रहकर भी मन ही नहीं , पति-पत्नी एक-दूसरे के शरीर से भी अनजान रहते हैं।

तो दोस्तों इस बबल को तोड़ना जरूरी है। क्योंकि एक दिन हम मर जाएंगे ! अपने कहे के साथ ही नहीं , उन तमाम बातों के साथ भी जो हम कह सकते थे , कर सकते थे और हमने नहीं कहीं , नही कीं ! सुबह होती है शाम होती है , जिंदगी यूं ही तमाम होती है।

सुबह और शाम के बीच बहुत से पल होंगे जब आप उस बबल को तोड़ सकते हैं। शायर कहता है –
धूप में निकलो, घटाओं में नहा कर देखो/ जिंदगी क्या है किताबों को हटाकर देखो! धूप में नहीं निकलने से सिर्फ विटामिन डी की कमी नहीं होती और भी बहुत कुछ घट जाता है जीवन से !