क्या मोदी सरकार लोकसभा सीटें बढ़ाने वाली है?


देश की बढ़ती आबादी के चलते लोकसभा सदस्यों की संख्या बढ़ाना अनिवार्यता है, लेकिन इसके संभावित परिणामों पर भी गंभीरता से सोचा जाना चाहिए। क्योंकि यदि सीटों की संख्या और उसका वितरण तर्कसंगत और व्यावहारिक न हुआ तो देश को नई समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है।


ajay-bokil अजय बोकिल
अतिथि विचार Published On :
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क्या मोदी सरकार लोकसभा की सीटें बढ़ाकर लगभग 1 हजार करने जा रही है? यह गंभीर और चौंकाने वाला सवाल कांग्रेस सांसद मनीष‍ तिवारी ने अपने एक ट्वीट के जरिए उछाला है। सांसद तिवारी ने दावा किया उनके सहयोगी भाजपा सांसदों ने संकेत दिया है कि वर्ष 2024 के पहले लोकसभा सीटों की वर्तमान संख्‍या 543 को बढ़ाकर 1000 या उससे अधिक करने प्रस्ताव है।

यह काम अगले लोकसभा चुनाव यानी 2024 के पहले होने की सुगबुगाहट है। तिवारी ने कहा कि यदि ऐसा है तो इस पर गंभीर सार्वजनिक विमर्श होना चाहिए। यकीनन मोदी सरकार ऐसा करने जा रही है तो यह संजीदा मसला है।

हालांकि देश की बढ़ती आबादी के चलते लोकसभा सदस्यों की संख्या बढ़ाना अनिवार्यता है, लेकिन इसके संभावित परिणामों पर भी गंभीरता से सोचा जाना चाहिए। क्योंकि यदि सीटों की संख्या और उसका वितरण तर्कसंगत और व्यावहारिक न हुआ तो देश को नई समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है।

वर्तमान में लोकसभा में 543 और राज्यसभा में 245 सदस्य हैं। तिवारी के ट्वीट का एक आधार निर्माणाधीन नया संसद भवन है, जिसके बारे में कहा जा रहा है कि उसमें कुल 1300 सांसदों के बैठने की व्यवस्था होगी, जो देश की भावी आबादी के अनुपात में बढ़ने वाली सांसदों की संख्या को ध्यान में रखकर की जा रही है।

तिवारी के ट्वीट पर कांग्रेस नेता पी. चिदम्बरम ने आशंका जताई है कि ‘यदि केवल जनसंख्या के आधार सीटों की संख्या बढ़ती है तो इससे संसद में दक्षिणी राज्यों का प्रतिनिधित्व और कम हो जाएगा, जो स्वीकार्य नहीं होगा।’

मनीष तिवारी के ट्वीट के पीछे एक वजह लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला का पिछले दिनों दिया एक इंटरव्यू भी है, जिसमें उन्होंने कहा था कि भविष्य में सांसदों की संख्या में वृद्धि होगी। क्योंकि कुछ लोकसभा सीटें 16 लाख से 18 लाख लोगों का प्रतिनिधित्व करती हैं।

उन्होंने यह भी कहा था कि नए संसद भवन में लोकसभा 888 सदस्यों के बैठने की क्षमता होगी। जिसमें संयुक्त सत्र के दौरान क्षमता को बढ़ाकर 1,224 करने का विकल्प होगा। इसी तरह राज्यसभा में 384 सदस्यों के बैठने की क्षमता होगी।

इसका अर्थ यही है ‍कि सरकार देश की बढ़ती आबादी के अनुपात में लोकसभा और बाद में राज्यसभा की सीटें बढ़ाने जा रही है। उसी हिसाब से नए भवन में सांसदों के बैठने की व्यवस्था भी की जा रही है। नई दिल्ली में निर्माणाधीन ‘सेंट्रल विस्टा परियोजना’ जिसमें नया संसद भवन भी शामिल है, का विपक्ष द्वारा विरोध किया जा रहा है, लेकिन उसका काम जारी है।

इसमें नया संसद भवन अगले 15 अगस्त यानी आजादी की 75 वीं सालगिरह पर बनकर तैयार होने की पूरा होने की संभावना है। नया संसद भवन 65 हजार वर्ग मीटर में बन रहा है। कहा जा रहा है कि नए भवन में ज्यादा संख्या में सांसद आधुनिक सुविधाओं के साथ आराम से बैठ सकेंगे। इसे गुजरात की एचसीपी डिजाइन, प्लानिंग एंड मैनेजमेंट कंपनी ने डिजाइन किया है।

वर्तमान संसद भवन के दोनों सदनों में 788 सदस्य बैठते हैं। लोकसभा की वर्तमान सदस्य संख्या अंतिम बार 1977 में तय हुई थी, तब देश की आबादी करीब 55 करोड़ थी। आपातकाल में संविधान संशोधन विधेयक लाकर लोकसभा सदस्य संख्या 543 पर फ्रीज कर दी गई थी। यानी उस वक्त औसतन प्रति 10 लाख आबादी पर एक सांसद चुना जाता था तो अब प्रति 25 लाख आबादी पर एक सांसद चुना जाता है।

अटल बिहारी सरकार ने भी सीटों के पुनर्आवंटन को वर्ष 2026 तक के लिए बढ़ा दिया था। उसके बाद सीटों का परिसीमन तो हुआ, लेकिन सीटों की संख्या वही रखी गई।
नई लोकसभा सीटों का गठन और उनकी सीमाओं का निर्धारण परिसीमन आयोग करता है। देश में अब तक ऐसे चार परिसीमन आयोग गठित हुए हैं। पहला परिसीमन आयोग 1952 में बना था। उसके बाद 1963, 1973 और अंतिम आयोग 2002 में बना।

इसी आयोग ने 2001 की जनसंख्या के आधार पर लोकसभा सीटों की सीमाओं का पुनर्निधारण और पुनर्संयोजन किया था। वरिष्ठ पत्रकार अभिनंदन मिश्रा एवं दिब्येंदु मंडल ने ‘द संडे गार्जियन’ में छपे अपने एक शोधपरक लेख में बताया था कि किसी भी देश की सर्वोच्च लोकतांत्रिक संस्था में निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की संख्या् कितनी हो, इसका भी एक शास्त्र है।

उन्होंने ब्रिटेन के जाने-माने राजनीति विज्ञानी अली स्टेयर मैकमिलन के हवाले से बताया था कि भारत की लोकसभा में (वर्तमान आबादी के अनुपात में) सांसदों की संख्या 848 होनी चाहिए। फिलहाल हमारे निचले सदन की सदस्य संख्या 543 है। मैकमिलन शेफिल्ड यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं।

उन्होंने भारत पर एक किताब ‘स्टैडिंग एट द मार्जिन्स: रिप्रेजेंटेशन एंड इलेक्टोरल रिप्रेजेंटेशन इन इंडिया’ भी लिखी है। अगर भारत की लोकसभा की तुलना ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमन्स से की जाए तो वहां निर्वाचित सदस्यों की संख्या 630 है, जबकि ब्रिटेन की कुल आबादी लगभग 7 करोड़ है। यानी मध्यप्रदेश की आबादी से भी कम।

ऐसे में जनप्रतिनिधियों का जनसंख्यावार आनुपातिक प्रतिनि‍धित्व निकाला जाए तो भारत में यह औसतन प्रति 25 लाख पर एक लोकसभा सांसद बैठता है। इसी तरह ऑस्ट्रेलिया की संसद में 151 ‍निर्वाचित प्रतिनिधि हैं, जो देश की 2.5 करोड़ आबादी की नुमाइंदगी करते हैं।

अमेरिका की जनसंख्या करीब 22 करोड़ है, लेकिन उनके निचले सदन में चुने हुए नुमाइंदो की संख्या 435 है। संविधान के अनुच्छेद 82 में हमारे संविधान निर्माताओं ने वक्त और आबादी के हिसाब से लोकसभा सदस्य संख्या में वृद्धि का प्रावधान किया हुआ है।

यकीनन आबादी के अनुपात में जनप्रतिनिधियों और लोकसभा सीटों की संख्या बढ़नी ही चाहिए। लेकिन सीटों की संख्या का निर्धारण बहुत व्यावहारिक, समानुपाती और सर्वसमावेशी होना चाहिए।

अगर इसे केवल जनसंख्या के आंकड़ों के आधार पर ही किया गया तो घाटे में वो राज्य रहेंगे, जिन्होंने अपनी आबादी वृद्धि को थोड़ा नियंत्रित किया है। जिनकी अर्थव्यवस्था भी उन राज्यों से बेहतर है, जो अत्यधिक आबादी और संसाधनों की कमी से परेशान हैं।

इसमें विसंगति यह है कि ऐसे राज्य अपनी जनसंख्या नियंत्रण से विकास की दौड़ में तो आगे रहेंगे, लेकिन कम आबादी के कारण संसद में उनका प्रतिनिधित्व कम होगा। इसके विपरीत वो राज्य फायदे में रहेंगे, जिनकी आबादी वृद्धि दर और कुल जनसंख्या ज्यादा है।

इसी आधार पर वो हर मामले में ज्यादा हिस्सेदारी की मांग करेंगे, जिससे विकसित राज्यों को घाटा उठाना पड़ेगा। आबादी के अनुपात में ज्यादा दावेदारी का सीधा अर्थ है जनप्रतिनिधित्व में भी ज्यादा हिस्सेदारी और ज्यादा राजनीतिक वर्चस्व।

यह स्थिति एक संघीय राष्ट्र में सब की समुचित भागीदारी के हिसाब से ठीक नहीं होगी। इससे अलगाव अथवा उपेक्षा का अवांछित भाव पनप सकता है। खासकर पूर्वोत्तर और दक्षिण के राज्यों में।

वैसे क्षेत्रीय दृष्टि से यह भाव तो अभी भी है, लेकिन बहुत ज्यादा प्रभावी नहीं है। दूसरे, देश में आबादी का घनत्व भी अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग है। लोकसभा सीटों की संख्या बढ़ाते समय इसका भी ध्यान रखना होगा।

आबादी के वितरण और जनप्रतिनिधियों की संख्या में एक संगति कायम रखनी होगी। अगर यह निर्धारण मनमाने अथवा क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों के आधार पर किया गया तो देश विवादों के नए भंवर में भी फंस सकता है।

फिलहाल मानकर चलें कि सरकार ने इन सब मुद्दों को ध्यान में रखा ही होगा और वह इसे समस्या का ‍नया पिटारा नहीं बनने देगी। लोकसभा सीटों की संख्या वृद्धि से यह संदेश कतई नहीं जाना चाहिए कि इस देश में ज्यादा आबादी का अर्थ राजनीतिक सत्ता पर कब्जे की गारंटी है फिर चाहे वह विकास की कीमत पर ही क्यों न हो।

इसी के साथ बड़ा सवाल यह भी है कि यदि देश की बढ़ती आबादी पर अंकुश न लगा और इसमें एक तर्कसंगत स्थिरता न आई तो भविष्य में हमें कितनी और लोकसभा सीटें बढ़ानी पड़ेंगी?

कल्पना कीजिए अगर देश में लोकतंत्र यूं ही कायम रहा और जनसंख्या वृद्धि दर भी ऐसी ही रही तो वर्ष 2721 में हमें कितने जनप्रतिनिधि चुनने होंगे और उन्हे बैठने के लिए कितना विशाल भवन चाहिए होगा?

(आलेख साभारः मध्‍यमत)