दोहरी मार: नक्सली धमकाते हैं, पुलिस जेल भेजती है – बालाघाट के आदिवासी बोले, ‘हम किस ओर जाएं?’


बालाघाट के दड़कसा गांव में आदिवासी नक्सलियों और पुलिस के बीच फंसे। सरपंच बोले- खाना दो तो पुलिस पकड़ती है, ना दो तो जान का खतरा।


नितेश उचबगले
Balaghat Updated On :

ना नक्सली की दोस्ती अच्छी है और ना ही पुलिस की। नक्सली बंदूक की नोक पर खाना मांगते हैं, मना करो तो जान का खतरा। दे दो, तो पुलिस पकड़कर जेल में डाल देती है। हम करें तो करें क्या?” — यह दर्द है बालाघाट जिले के नक्सल प्रभावित गांव दड़कसा के सरपंच फूल सिंह मेरावी का। नक्सलियों और पुलिस के बीच जारी इस जंग में असली कीमत चुका रहे हैं गांव के आदिवासी।

यह वही इलाका है, जिसे नक्सलवाद के खिलाफ चल रहे राष्ट्रीय अभियान के तहत “सफाया ज़ोन” घोषित किया गया है। केंद्र सरकार ने 31 मार्च 2026 तक देश को नक्सल मुक्त करने की मियाद तय कर दी है। पर हकीकत यह है कि बालाघाट के कई गांवों में आज भी नक्सली खुलकर घूम रहे हैं, धमका रहे हैं और ग्रामीणों को मजबूर कर रहे हैं कि वे या तो साथ दें या जान गंवाएं।

 

नक्सलियों की धमकी, पुलिस की सख्ती – बीच में फंसा गांव

20 मई को बालाघाट के बिलालकसा के जंगलों में नक्सली मुठभेड़ के बाद सुरक्षाबलों ने इलाके में सर्चिंग तेज कर दी। इसी दौरान अशोक टेकाम नाम के ग्रामीण को पूछताछ के नाम पर पुलिस थाने बुलाया गया। जब कोई खास जानकारी नहीं मिली, तो उन्हें शांति भंग करने की धारा में गिरफ्तार कर लिया गया। बाद में 26 मई को उन्हें जमानत मिली।

हमारी टीम जब अशोक के गांव पहुंची तो सबसे पहले उनकी मां से सामना हुआ, जो हमें पुलिस समझकर रो पड़ीं – “एक ही कमाने वाला था, अब हमें कौन पालेगा?” अशोक की पत्नी उर्मिला टेकाम ने आरोप लगाया कि बिना वजह उनके पति को गिरफ्तार किया गया। उनका कहना था, “हमारा घर गांव के बाहर है, इसलिए पुलिस हम पर शक करती है।”

 

आदिवासी बोले – न पुलिस की दोस्ती अच्छी, न नक्सलियों की

अशोक की बेटी इसवंती, जो कक्षा 10वीं में पढ़ती है, ने बताया कि घटना वाले दिन वे लांजी में सप्लीमेंट्री फॉर्म भरने गई थीं। उनका कहना है, “अब हमारे पिता जेल में हैं, हम कैसे जिएं, किससे मदद मांगें?”

गांव के पंच महेश टेकाम का कहना है, “हम दोनों ओर से मारे जा रहे हैं। नक्सली धमकाते हैं, पुलिस उठाकर ले जाती है। हम किसका साथ दें?”

 

“हमसे लड़ाई नहीं, समझदारी चाहिए” – सरपंच की गुहार

 

सरपंच फूल सिंह मेरावी ने पहली बार कैमरे पर आकर दर्द बयां किया – “नक्सली कभी भी गांव में आ जाते हैं। खाना नहीं दो, तो मारने की धमकी देते हैं। अगर दे दो, तो पुलिस कहती है कि तुम नक्सलियों की मदद कर रहे हो। दोनों तरफ से दबाव है। क्या करें? हम तो बस शांति चाहते हैं।”

 

समाधान की तलाश

 

ग्रामीणों की मांग है कि प्रशासन उनकी मजबूरी को समझे। नक्सलियों के डर और पुलिस की सख्ती के बीच जी रहे इन आदिवासियों को सहयोग नहीं, सहारा चाहिए।

“नक्सली आते हैं तो खाना मांगते हैं, नहीं दो तो मारने की धमकी। अगर खाना दे दो, तो पुलिस पकड़कर ले जाती है। ऐसे में हम क्या करें?” यह बात दड़कसा पंचायत के सरपंच फूल सिंह मेरावी ने उस दर्द के साथ कही, जो आज भी मध्यप्रदेश के नक्सल प्रभावित इलाकों में बसे आदिवासियों के जीवन का हिस्सा है।

सरकार भले ही नक्सलवाद खत्म करने की 2026 तक की डेडलाइन तय कर चुकी हो, लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि बालाघाट जिले के जंगलों में नक्सलियों का डर अब भी कायम है। सबसे ज्यादा असर उन गांवों पर है, जो नक्सल प्रभावित घोषित हैं लेकिन जहां न तो पूरी सुरक्षा पहुंच पाई है, और न ही स्थायी समाधान।

नक्सलियों और पुलिस की जंग में ग्रामीणों की बली

20 मई को बालाघाट के बिलालकसा के जंगलों में नक्सलियों और सुरक्षा बलों के बीच मुठभेड़ हुई थी। इसके बाद पूरे इलाके में तलाशी अभियान तेज हो गया। इसी दौरान, मजदूरी करने वाले अशोक टेकाम को पूछताछ के लिए पुलिस स्टेशन बुलाया गया। जब कोई ठोस जानकारी नहीं मिली, तो उन्हें शांति भंग करने की धारा में गिरफ्तार कर लिया गया।

हालांकि 26 मई को उन्हें जमानत मिल गई, लेकिन तब तक उनके परिवार पर संकट का पहाड़ टूट चुका था। अशोक की मां का सवाल था – “अब हमारा घर कौन चलाएगा?” उनकी पत्नी उर्मिला टेकाम का कहना है कि “हमारा घर गांव से थोड़ा दूर है, इसीलिए पुलिस हमें शक की निगाह से देखती है।”

बेटी बोली – “पढ़ाई का सपना अधूरा न हो जाए”

अशोक की बेटी इसवंती टेकाम कक्षा 10वीं में पढ़ती है। उसने बताया कि घटना वाले दिन वे अपने पिता के साथ लांजी गई थीं ताकि सप्लीमेंट्री परीक्षा का फॉर्म भर सकें। उसका कहना है, “अब पापा जेल चले गए। हमारे सपनों का क्या होगा? कौन मदद करेगा?”

गांव में डर का माहौल, पर खुलकर कोई नहीं बोलता

हमारी टीम जब बिलालकसा पहुंची, तो गांव में सन्नाटा पसरा था। लोग कुछ बताने से कतराते हैं। जब हमने सवाल किया – “क्या नक्सली आते हैं?” – तो अधिकतर लोग चुप हो गए।

पंच महेश टेकाम ने हिम्मत करके कहा – “हम इधर से भी परेशान हैं, उधर से भी। न पुलिस की दोस्ती ठीक, न नक्सलियों की। हमें कोई बीच का रास्ता चाहिए।”

“नक्सली भी मारते हैं, पुलिस भी डराती है”

सरपंच फूल सिंह मेरावी ने कैमरे पर आकर खुलकर कहा – “गांव में नक्सली आते हैं। बंदूक दिखाकर कहते हैं खाना दो। अगर हम डर के मारे दे देते हैं, तो पुलिस आती है और कहती है कि तुम माओवादी की मदद करते हो। फिर धमकी मिलती है या थाने बुला लिया जाता है। हम दो पाटों में पीस रहे हैं।”

नक्सलवाद का हल, सिर्फ बंदूक नहीं – समझ जरूरी

यह मामला बताता है कि नक्सल समस्या सिर्फ सुरक्षा बलों की कार्रवाई से नहीं सुलझेगी। ज़रूरत है ग्रामीणों की समस्याओं को सुनने, समझने और संवेदनशील समाधान निकालने की। एक तरफ सरकार विकास की बात करती है, दूसरी तरफ गांवों में ऐसी घटनाएं आदिवासियों में असुरक्षा की भावना को जन्म देती हैं।

क्या कहता है प्रशासन?

अब तक स्थानीय प्रशासन ने इस मुद्दे पर कोई सार्वजनिक प्रतिक्रिया नहीं दी है, लेकिन यह साफ है कि जमीनी सच्चाई और सरकारी रणनीति में अब भी बहुत अंतर है।

यदि सरकार वास्तव में 2026 तक नक्सलवाद खत्म करना चाहती है, तो सबसे पहले उसे ऐसे निर्दोष ग्रामीणों को सुरक्षा और भरोसा देना होगा, जो आज भी डर और बेबसी के बीच जी रहे हैं।


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