कर्नाटक में हार के बावजूद बीजेपी ने इन 5 क्षेत्रों में दिखाई अपनी ताकत

bjp defeat but strong in 5 things

कर्नाटक चुनाव से बहुत पहले ओपनियन पोल और मतगणना के बाद हुए एग्ज़िट पोल कुछ वैसे ही परिणामों के संकेत दे रहे थे जैसे आज देखने को मिल रहे हैं। इससे यह निष्कर्ष निकालना बहुत आसान है कि बीजेपी ने जो गलतियां की उनका यही नतीजा होना था।

असल में बात इतनी सीधी नहीं है। कर्नाटक हमेशा से कांग्रेस का गढ़ रहा है। आजादी के बाद हुए 11 विधानसभा चुनावों में 8 बार वहां कांग्रेस जीती है। अगर हम पिछले पांच विधानसभा चुनावों की बात करें तो 2004, 2008 और 2018 में किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। वहीं, 2013 और 2023 में हुए चुनाव में कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत मिला। बात साफ है कि पिछले पांच चुनाव में या तो कांग्रेस को बहुमत मिला या किसी को बहुमत नहीं मिला।

कांग्रेस के इतने मजबूत गढ़ में भी बीजेपी ने सेंध लगाई और 2007 में पहली बार, 2008 में दूसरी बार और 2018 में तीसरी बार सरकार बनाई। यही वजह है कि 2023 का चुनाव भी कांग्रेस के लिए आसान नहीं था। इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राहुल, प्रियंका और मल्लिकार्जुन खड़गे के अलावा सोनिया गांधी को भी यहां चुनाव प्रचार के लिए आना पड़ा।

कांग्रेस ने कर्नाटक पर इतना फोकस किया कि यूपी में हो रहे निकाय चुनाव में पार्टी ठीक से उम्मीदवार तक खड़ा नहीं कर सकी। आखिर कांग्रेस का पुराना गढ़ होने और ओपिनियन व एग्ज़िट पोल का कांग्रेस के पक्ष में होने के बावजूद बीजेपी ने यहां इतनी ताकत क्यों लगाई? क्यों खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कर्नाटक में इतनी यात्राएं और जनसभाएं की? इसकी कई वजहें हैं…

पहली वजहः

चुनाव से बहुत पहले ही कर्नाटक में मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई के खिलाफ एंटी इनकंबेंसी बन चुक थी। सब जानते थे कि बीजेपी का सबसे बड़ा वोट बैंक लिंगायत समाज है। बीजेपी ने जिस तरह से बीएस येदियुरप्पा को साइड लाइन किया उससे साफ था कि बीजेपी को लिंगायत वोट का नुकसान तय है। बोम्मई सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लग रहे थे।

इन सब नकारात्मक चीजों के बावजूद बीजेपी ने कर्नाटक चुनाव को बिलकुल भी हल्के में नहीं लिया। पार्टी ने चुनाव जीतने के लिए हर तरह की रणनीति बनाई। अमित शाह, योगी आदित्यनाथ से लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक के लिए कैंपेन डिजाइन किया गया। पार्टी ने इस बात की बिलकुल परवाह नहीं की कि हार के बाद इसे नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता से जोड़ पर देखा जाएगा। साफ है कि बीजेपी किसी भी चुनाव को हल्के में नहीं लेती और उसे जीतने का हरसंभव प्रयास करती है। यह जज़्बा अन्य पार्टियों में दिखाई नहीं देता। यूपी के निकाय चुनाव में कांग्रेस, सपा, बसपा की तैयारी और कैंपेन में यह अंतर साफ दिखाई देता है।

कर्नाटक में स्टार प्रचारक होने के बावजूद योगी आदित्यनाथ ने यूपी के सभी 17 नगर निगमों में खुद जनसभाएं कीं, जबकि मायावती, प्रियंका गांधी, राहुल गांधी ने तो प्रचार करना ही जरूरी नहीं समझाा। अखिलेश भी मुश्किल से तीन नगर निगमों में प्रचार करने गए।

दूसरी वजहः

कर्नाटक में पिछले विधानसभा चुनाव से लेकर इस चुनाव तक बीजेपी ने अपने मुद्दों से कोई समझौता नहीं किया। पिछले विधानसभा चुनाव में भी हनुमान और टीपू सुल्तान को मुद्दा बनाया गया। इस बार भी हिजाब, मुस्लिम आरक्षण को खत्म करने का फैसला और बजरंग बली को बीजेपी ने मुद्दा बनाने की पूरी कोशिश की। स्पष्ट है कि बीजेपी हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के अपने एजेंडे से पीछे नहीं हटती। बीजेपी साफ संदेश देना चाहती है कि वह अल्पसंख्यकों के नाम पर तुष्टिकरण की राजनीति नहीं करेगी। भले ही चुनाव में उसके नतीजे कुछ भी हों।

वहीं, उत्तर प्रदेश के निकाय चुनाव में बीजेपी ने 350 से ज्यादा मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया। आजम खां का गढ़ कहे जाने वाले स्वार-टांडा विधानसभा उपचुनाव में अपना दल एस के मुस्लिम उम्मीदवार का बीजेपी ने समर्थन किया। नतीजा यह हुआ कि सपा का गढ़ कहे जाने वाले रामपुर में बीजेपी समर्थित उम्मीदवार शफीक अहमद अंसारी को जीत मिली। संदेश साफ है कि तुष्टिकरण न करने का मतलब मुसलमानों का विरोध नहीं है लेकिन, तुष्टिकरण के नाम पर विशेषाधिकार दिए जाने के विचार का पार्टी समर्थन नहीं करती है।

तीसरी वजहः

रणनीति के मामले में भी बीजेपी अन्य पार्टियों से कहीं आगे दिखती है। कर्नाटक में दो साल पहले ही बीजेपी ने यह तय कर लिया था कि वह येदियुरप्पा के नाम पर चुनाव नहीं लड़ेगी। लिंगायत समाज का सबसे बड़ा नेता होने के बावजूद पार्टी ने उन्हें सीएम पद से हटा दिया। बीजेपी ने स्पष्ट संदेश दिया कि पार्टी अपनी विचारधारा और काम के आधार पर चुनाव लड़ेगी। पार्टी के किसी नेता को यह गलतफहमी नहीं होनी चाहिए कि नेता पार्टी से बड़ा है और एक-दो चुनाव में जीत या हार उसके लिए मायने नहीं रखती।

चैाथी वजहः

बीजेपी के सबसे बड़े नेता और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुरू से ही परिवारवाद को अपना मुख्य हथियार बनाया है। वह लगभग सभी चुनावों में इस हथियार का प्रयोग करते हैं। उन्हें पता है कि अगर उनकी ही पार्टी में इस नियम का पालन नहीं किया जाएगा, तो उनकी साख पर सवाल खड़े किए जाएंगे। यही वजह है कि पार्टी ने येदियुरप्पा के बेटे को उनकी विधानसभा शिकारीपुरा से टिकट देने की मांग को तभी स्वीकार किया जब येदियुरप्पा ने खुद चुनाव न लड़ने का फैसला किया। बीजेपी ने इतना बड़ा रिस्क इसलिए लिया क्योंकि, आगामी विधानसभा चुनावों और लोकसभा चुनाव में उनका मुकाबला जिन दलों से होना है उन पर हमले का सबसे बड़ा हथियार ही परिवारवाद है।

पांचवीं वजहः

संसाधनों के मामले में भी बीजेपी का कोई सानी नहीं है। संसाधानों की प्रचुरता और उनके प्रबंधन का सबसे बड़ा प्रमाण कर्नाटक में प्रधानमंत्री की जनसभाएं और उनके रोड शो थे। प्रधनमंत्री के रोड शो में उमड़ी भीड़ और भव्यता की तुलना अगर अन्य पार्टियों से की जाए, तो कोई आसपास भी दिखाई नहीं देता। यह दिखाता है कि बीजेपी के पास कार्यकर्ताओं की बहुत बड़ी टीम है जो किसी भी स्तर के चुनाव में अपनी पूरी ताकत के साथ काम करती है। देश के किसी भी हिस्से में होने वाले चुनाव में प्रधानमंत्री सहित बड़े नेताओं के रोड शो या सभाओं की तैयारी में एकरूपता इस बात का प्रमाण है कि बीजेपी ने कार्यकर्ताओं की एक ऐसी टीम बना रखी है जो इन छोटी-छोटी चीजों का भी ध्यान रखती है।

13 मई को कर्नाटक विधानसभा सहित उत्तर प्रदेश निकाय व विधानसभा चुनाव और पंजाब में लोकसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव के नतीजे भी आए हैं। कर्नाटक में कांग्रेस की जीत, यूपी निकाय चुनाव में बीजेपी का प्रदर्शन और पंजाब के उपचुनाव में आम आदमी पार्टी की जीत ने सभी दलों को खुद होने का मौका दिया है। तीनों नतीजे ये बताने के लिए काफी हैं कि किसी एक चुनाव में जीत या हार का मतलब राष्ट्रीय स्तर पर या अन्य राज्यों में बिलकुल उलटा भी हो सकता है। हालांकि, इससे यह संकेत जरूर मिलता है कि कोई राजनीतिक दल किसी चुनाव को कितनी गंभीरता से लेता है, उससे क्या सबक लेता है और आगामी चुनाव के लिए क्या रणनीति बनाता है। हमने ये तो देख लिया कि इन तीन चुनावों को किस दल ने कितनी गंभीरता से लिया, लेकिन अब यह देखना दिलचस्प होगा कि इससे किसने क्या सबक लिया और खुद में कितना सुधार किया।

First Published on: May 13, 2023 2:21 PM