फकीर के जश्न के ठाठ, एक साल में आठ

इस संगीत की महफिल से पहले कुछ सेमिनार जैसा भी हुआ। विषय था - राहत इंदौरी मकबूलियत से महबूबियत तक

फकीरों को याद करते हुए जश्न होते हैं सेमिनार नहीं। राहत इंदौरी खुद को फकीर कहते थे, लिहाजा उनकी सालगिरह पर कल रात होटल अमर विलास में यादगार जश्न हुआ। हालांकि सेमिनार भी हुआ, मगर वो बहुत फुसफुसासा था। असल मज़ा तो उनकी नात, उनकी ग़ज़लों को गाने में आया। राहत इंदौरी की ग़ज़लें तरन्नुम सहन नहीं कर सकतीं, फिर यहां तो तरन्नुम के साथ मौसिकी भी थी।

आफताब कादरी ने राहत इंदौरी की ग़ज़लों पर धुन बनाने का काम हाथ में लेकर एक तरह से रीछ का पांव पकड़ लिया था। मगर शाबाश है आफताब कादरी और उनके साथी एमबीबीएस डॉक्टर तारीक फ़ैज़ को जिन्होंने रीछ का पांव पकड़ कर रीछ से ही चूं बुलवाई।

राहत इंदौरी की ग़ज़ल – बुलाती है मगर जाने का नई, और – उसकी कत्थई आंखों में हैं जंतर मंतर सब…। इन दोनों ही ग़ज़लों की धुन ऐसी प्यारी बनी कि पांव थिरकने लगे। नुसरत फतेह अली खां को गुरू मानने वाले आफताब और तारिक ने कमाल कर डाला। तारिक ने नुसरत की ही तरह अलाप लगाए, मुकरियां लीं।

जिस रागों में ग़ज़लें कंपोज़ हुई उन शुध्द रागों को अलग से गाया और उनमें पश्चिमी संगीत को मिलाकर भी बताया। इन दोनों ने ही नहीं, इनके साज़िंदों तक ने महफिल लूट ली। जिस महफिल में हारमोनियम बजाने वाले की टीप और आलाप पर भी नोट बरस जाएं उस महफिल की कामयाबी का बस अंदाज़ा ही लगाया जा सकता है।

इस संगीत की महफिल से पहले कुछ सेमिनार जैसा भी हुआ। विषय था – राहत इंदौरी मकबूलियत से महबूबियत तक। यानी मशहूर हो जाने से लेकर लोगों के प्रिय बन जाने तक। जिस विषय में ही मुहब्बत शामिल हो, उसमें बौध्दिकता कहां तक साथ देगी?

भोपाल के बद्र वास्ती बातचीत के संयोजक थे। बुरहानपुर के जलीलुर रहमान और मुंबई के नईम सिद्दीकी से बात करनी थी। मगर इन सबकी ज्यादातर ताकत गाढ़ी उर्दू बोलने में ही खर्च हो गई। रेणु के शब्दों में कहें तो दिल खोलकर गप (यहां आशय बातचीत से है) हो ही नहीं सकी। बनावटी भाषा में दिल खोलकर बातचीत हो भी नहीं सकती।

इंदौर में आयोजित कार्यक्रम

फिर यह भी है कि इनके पास राहत इंदौरी को लेकर जितने वाकये, जितने किस्से थे, उससे बीस गुना तो हॉल में मौजूद ज्यादातर लोगों के पास थे। एक सवाल यह हुआ कि फिल्म में राहत इंदौरी क्यों कामयाब नहीं हो पाए। उनकी शायरी में कौनसे लफ्ज़ ज्यादा बार आए हैं। इसका जवाब इंदौर के लोगों को यूं ही पता है।

उनकी शायरी में सूरज शब्द सबसे ज्यादा बार आया है। हर ग़ज़ल में सूरज कहीं बिंब तो कहीं प्रतीक के रूप में है। जैसे गुलज़ार के यहां चांद वैसे राहत के यहां सूरज। इसके बाद परिंदा शब्द बार बार आया है।

फिल्में उन्हें ऐसा कुछ नहीं दे सकती थीं जो उनके पास नहीं था। फिल्मों में जाने से पहले वे मशहूर थे, उनके पास मुशायरों की बादशाहत थी, जो फिल्म के चक्कर में छूट सकती थी। नईम सिद्दीकी ने आखिरकार सही कहा कि फिल्मों ने राहत इंदौरी से मुंह नहीं मोड़ा, राहत इंदौरी ने फिल्मों से मुंह मोड़ लिया।

एक महत्वपूर्ण बात यह उठी कि आलोचक उन्हें गंभीरता से नहीं लेते क्योंकि पापुलर लिटरेचर से आलोचकों को बैर होता है। वैसे इसका अंदेशा राहत इंदौरी को था भी। उन्होंने कभी परवाह नहीं की। अपने बारे में लोगों की राय इकट्ठी करके उन्होंने पंद्रह बीस साल पहले ही छपा ली थी।

फिर राहत इंदौरी इस बात के भी कायल थे कि वक्त इंसाफ करता है। कई शायर ऐसे हैं जिन्हें उनके जीते जी आलोचकों ने कभी चर्चा के काबिल नहीं समझा। मगर वक्त ने बताया कि आलोचक ही कमनज़र थे। इनमें सबसे बड़ा नाम नज़ीर अकबराबादी का लिया जा सकता है (राहत साहब भी नजीर का नाम लेते थे)। बहरहाल राहत का जिक्र करते समय इस चक्कर में पड़ना ही नहीं चाहिए।

वैसे राहत इंदौरी पर बरसों बरस अलग अलग विषयों पर कार्यक्रम हो सकते हैं, कई किताबें लिखी जा सकती हैं। मुशायरों में उनके साथ जो घटनाएं घटीं, जो जुमले उन्होंने बोले, जो हंगामे उन्होंने किये, उस पर एक किताब हो सकती है।

उनकी मयनौशी के किस्सों पर एक किताब हो सकती है। उनके सेंस ऑफ ह्यूमर पर एक किताब हो सकती है। तकलीफ इस बात की है कि हिंदी उर्दू वाले किताब का नाम आते ही बहुत गंभीर होकर ऐल फैल बकने लगते हैं। अपनी हिंदी उर्दू को गाढ़ा करके गुरूगंभीर हो जाते हैं और मनहूसियत ओढ़कर लोगों को मजबूर कर देते हैं कि उनकी उपेक्षा की जाए।

राहत इंदौरी के बेटे फैज़ल, सतलज और उनका परिवार वही कर रहा है जो राहत इंदौरी को पसंद था यानी दोस्तों की महफिल और जश्न। उनके जाने को दो साल नहीं हुए हैं और यह चौथा जश्न था। दूसरे शहरों में भी कई जश्न हुए हैं। और भी कई जश्न अभी कतार में हैं।

यह लेख पत्रकार दीपक असीम का है जो उनके फेसबुक टाइमलाइन से लिया गया है।

First Published on: January 3, 2023 12:08 PM