हर घूंट के लिए हज़ार फीट नीचे पहाड़ से उतरकर रोज़ जान दांव पर लगाते हैं इंदौर के ये आदिवासी

इंदौर जिले के मानपुर इलाके में है खिरनीखेड़ा आदिवासी बसाहट, यहां पीएम आवास के घर तो बने हैं लेकिन सड़क और पानी नहीं।

देश के सबसे साफ-सुथरे शहर इंदौर को पिछले साल राष्ट्रीय जल पुरस्कार मिला है। यह पुरस्कार इस शहर और आसपास के गांवों में पानी के लिए, विशेषकर बारिश का पानी बचाने के लिए किए गए कामों के लिए मिला है। हालांकि इससे पानी की समस्या खत्म हो गई हो, ऐसा नहीं है। जिले के दूरदराज़ के आदिवासी गांवों में अभी भी ग्रामीणों का पानी का संघर्ष हैरान करने वाला है।

पहाड़ी के नीचे से पानी लेकर लौटते ग्रामीण

जल जीवन मिशन में देश के सभी गांवों में पानी पहुंचाने का वादा तो है, लेकिन मध्य प्रदेश के इस सबसे विकसित जिले में स्थिति कुछ अलग है। यहां की एक आदिवासी बसाहट है। जिले की एक आदिवासी बसाहट खिरनीखेड़ी के लोग 1200 फुट नीचे पहाड़ उतरकर पानी लेने जाते हैं और फिर खड़ी चढ़ाई चढ़कर वापस आते हैं। इसके बाद भी इन्हें पीने के लिए साफ पानी नहीं मिलता।

खिरनीखेड़ा के ग्रामीण

इंदौर शहर से करीब चालीस किमी दूर मानपुर में कालीकिराय पंचायत जिले की आख़िरी हिस्सा है और यहां का मली और खिरनीखेड़ा गांव आख़िरी बसाहट है। खिरनीखेड़ा विंध्याचल पर्वत श्रृंखला के  पहाड़ के उपर बसा हुआ है। यहां करीब 12 परिवार रहते हैं। ये परिवार यहां करीब बीस वर्षों से बसे हैं।

इनमें से कुछ को आवास योजना के घर भी आवंटित किए गए हैं। यह इलाका राजस्व क्षेत्र में आता है और यहां इनकी ज़मीनें हैं। ग्रामीण कहते हैं कि शहर तक पहुंचने के लिए पहाड़ न चढ़ना पड़े, इसलिए ये यहां आए थे, लेकिन अब पानी के लिए पहाड़ उतरना फिर चढ़ना होता है।

खिरनीखेड़ा आदिवासी बसाहट में महिलाएं

कलामी बाई की शादी को करीब बीस साल हो चुके हैं। उनका मायका नजदीक ही गोकल्याकुंड गांव में है, लेकिन शादी के बाद उनका परिवार खिरनीखेड़ी में रहता है। उन्होंने शादी के बाद अपना पूरा जीवन उन्होंने इसी तरह पहाड़ के नीचे जाकर पानी लाने गुज़ार दिया है। वे कहती हैं कि ‘‘अब शरीर साथ नहीं दे रहा है। पानी के बर्तनों के साथ खड़े पहाड़ की चढ़ाई काफी मुश्किल होती है, लेकिन दिन में दो बार तो ऐसा करना ही होता है। जहां गर्मियों में पानी के लिए कई बार उतरना पड़ता है, वहीं बारिश में हम घर के आस-पास बने पोखरों का पानी पीकर काम चला लेते हैं।’’

खिरनीखेड़ा बसाहट

खिरनीखेड़ा और मली को इंदौर जिले की आखिरी आबादी कहा जा सकता है। हालांकि ये बसाहट इंदौर और मुंबई को जोड़ने वाले आगरा-मुंबई हाईवे से कुछ ही किलोमीटर दूर है, लेकिन यहां का जीवन कठिन है। मानपुर कस्बे से करीब पांच किमी दूर गोकल्याकुंड पंचायत है और यहां से ढ़ाई किलोमीटर दूर है खिरनीखेड़ा, लेकिन ढ़ाई किलोमीटर की यह दूरी बेहद कठिन है। आज तक यहां कोई रास्ता नहीं बनाया जा सका है। पहाड़ के पत्थरों के कारण यह काम बेहद कठिन है और इसीलिए यहां तक सरकारी योजनाएं भी कभी पूरी तरह नहीं पहुंच पातीं।

पानी भरने के लिए गांव के सभी परिवारों के सभी सदस्य एक साथ नीचे जाते हैं। महिलाएं एक साथ होती हैं और फिर कुछ युवा और कुछ अधेड़ उम्र के पुरुष। जिस दिन हम इनसे मिले उस दिन खासी गर्मी थी और सुबह एक बार पानी लाने के बाद फिर पानी की ज़रूरत महसूस हो रही थी। ऐसे में सभी लोग एक बार फिर पानी लेने के लिए चल दिए।

 

गर्मी की लपटों के बीच हादसे का खतरा

दोपहर बारह बजे पहाड़ पर सूरज की चमक और गर्मी की लपटों के बीच ये लोग करीब एक किलोमीटर दूर पहाड़ के मुहाने पर पहुंचते हैं। यहां एक छायादार मचान बनी हुई है जिस पर सभी लोग नीचे उतरने से पहले सुस्ताते हैं। इसके बाद नीचे उतरना शुरू करते हैं। खड़ी पहाड़ी पर मुश्किल से डेढ़ फुट चौड़े रास्तों की छोटी-छोटी पगडंडी से नीचे उतरते हुए पैर काफी संभालकर रखने पड़ते हैं, क्योंकि अगर यहां से पैर फिसला तो बचना मुश्किल होगा। धीरे-धीरे ये लोग करीब आधे घंटे में नीचे की ओर चलना शुरू करते हैं।

इस दौरान 24 साल के कृष्णा गिरवाल बताते हैं कि ‘‘नीचे तक जाने में करीब आधा घंटा लग जाता है और लौट कर आने में करीब दो तीन घंटे तक लगते हैं। वे दिन में दो से तीन बार तक पानी भरने के लिए जाते हैं।

कृष्णा गिरवाल

आने -जाने में इतना समय और ताकत लग जाती है कि अगर एक बार पानी लाते हैं तो एक दिन तो आराम करना ही होता है और इस समय तो गर्मियां हैं, इसलिए रोजाना दो-तीन बार पानी लाने के लिए जाना होता है।

ऐसे में इस समय रोजगार पूरी तरह बंद रहता है।’’  कृष्णा के पास नौकरी करने के लिए समय ही नहीं है, क्योंकि दिन में पानी लाने में ही ज्यादातर समय खत्म हो जाता है।

पानी लेने जा रहीं महिलाओं में शामिल पपीता बाई कहती हैं कि ‘‘पहाड़ उतरने में सावधानी रखनी होती है, लेकिन चढ़ाई और भी ज्यादा कठिन है। लोग अक्सर लड़खड़ाकर गिर जाते हैं हालांकि अब तक कभी बहुत उंचाई से ऐसा हादसा नहीं हुआ, लेकिन पानी लेकर चढ़ने के दौरान अक्सर ऐसा होता रहता है।’’

पहाड़ के नीचे पहुंचकर पहले अजनार नदी मिलती है। इन्हीं पहाड़ से निकलने वाली इसी नदी का पानी ये लोग सालों से पीते रहे हैं, लेकिन अब इसका पानी पीना इनकी मजबूरी है। नदी का पानी लाल रंग का हो चुका है।

प्रदूषण के कारण अजनार नदी का पानी अब लाल हो चुका है।

करीब दो साल पहले एक स्थानीय ठेकेदार ने इस नदी में कोई औद्योगिक केमिकल डंप कर दिया था जिसके बाद नदी का पानी काला और लाल हो गया। आदिवासी बताते हैं कि उस समय पूरा पर्यावरण दूषित हो गया था। नदी का पानी पीने से उनके जानवर मर गए थे और नदी में फेंका गया केमिकल जमीन में उतर गया था। इसके बाद से नदी का पानी ऐसा ही लाल रंग का है।

ग्रामीण बताते हैं कि वैसे तो दो किलोमीटर दूर मली गांव में ही एक निजी ट्यूबवेल से वे पानी भरते हैं, लेकिन अक्सर लाइट नहीं होती तो वे इसी नदी का यह लाल पानी पीने के लिए भी ले जाते हैं। मुकेश गिरवाल कहते हैं कि ‘‘नदी में फेंका गया केमिकल अब जमीन में उतर चुका है, इसलिए बोरवेल का पानी भी रंग-बिरंगा नजर आता है लेकिन इसे भी पीना ही होता है क्योंकि इसके अलावा कोई दूसरा उपाय नहीं है।’’

सामाजिक संगठन की पहल एवं सरकारी हस्तक्षेप 

दो साल पहले हुई इस घटना के बाद आदिवासी समाज के लोगों ने जयस संगठन के साथ मिलकर खासा हंगामा किया था। इसके बाद स्थानीय व्यापारी को पकड़ा गया और इस मामले से जुड़े लोगों को सज़ा भी हुई। उस समय स्थानीय विधायक और प्रदेश की कैबिनेट मंत्री उषा ठाकुर ने कहा था कि वे पानी को साफ करने की व्यवस्था करेंगी और इस क्षेत्र के विकास के लिए इसे पर्यटन से जोड़ेंगी। इसके बाद यहां कई स्तर के अधिकारी आए और उन्होंने तरह-तरह की योजनाएं बनाकर दीं लेकिन इसका कोई असर जमीन पर देखने को नहीं मिला। अजनार नदी का पानी आज भी साफ नहीं हो सका है और इलाके का विकास फिलहाल बहुत दूर दिखाई देता है।

 

पहाड़ से उतरकर यहां सभी लोग लाइट के इंतजार में एक पेड़ के नीचे बैठ जाते हैं। इसी दौरान कुछ महुआ बीनते हैं। वे बताते हैं कि वे इसे मानपुर के व्यापारियों को बेचेंगे, जो इसे करीब ढ़ाई सौ रुपये में प्रति पांच किलो की दर से खरीदते हैं।

करीब एक घंटे के इंतज़ार के बाद लाइट आ जाती है। सभी लोग सभी लोग ट्यूबवेल से पहले पानी पीते हैं और फिर अपने बर्तनों में भरते हैं। इसके बाद यहां से वापस चलने का सफर शुरू होता है। सिर पर बर्तन लेकर, खड़े पहाड़ की चढ़ाई का अंदाज़ा लगाना भी मुश्किल है। कुछ युवा आगे चलते हैं फिर कुछ महिलाएं पीछे और फिर आखिर में पुरुष पानी के डिब्बे लेकर आते हैं।

शुरुआत से ही नीचे से चढ़ने में मुश्किल होने लगती है। बर्तन लेकर करीब दो किलोमीटर चलने के बाद यहां लगभग सभी लोगों की सांस फूलना शुरू हो चुकी है, लेकिन गर्मी लगातार बढ़ रही है ऐसे में इन्हें चलते जाना है।

करीब आधी दूरी यानी तकरीबन पांच सौ फुट की उंचाई पर कलमी बाई के पैर लड़खड़ाते हैं और उन्हें चक्कर आने लगते हैं, लेकिन साथ चल रहा युवा कृष्णा उन्हें संभाल लेता है। इसके बाद वे कुछ देर को बैठ जाती हैं और कृष्णा उनका बर्तन लेकर उपर चढ़ता है। कुछ देर बाद कलमी भी उपर पहुंच जाती हैं और अपना बर्तन लेकर चलने लगती हैं। वे बताती हैं कि ‘‘अब अक्सर पानी लेकर चढ़ते हुए चक्कर आ जाते हैं लेकिन पानी इतना जरूरी है कि उन्हें हर हाल में यह करना होता है।’’ इस बीच उंचाई बढ़ती जाती है। हम भी इनके साथ चल रहे हैं। सभी लोग हमें उपर चढ़ते जाने और नीचे न देखने की हिदायत देते हैं। तेज़ गर्मी के बीच पानी लेकर उपर चढ़ते हुए वाकई उंचाई काफी अधिक लगती है, ऐसे में नीचे देखने में डर लगता है।

ग्रामीण बताते हैं कि रात को वे अक्सर टार्च लेकर पानी लेने के लिए नीचे उतरते हैं। इसी समय सबसे ज्यादा डर लगता है क्योंकि रात में कई बार पांव फिसल जाता है। पतली पगडंडियों से चलते हुए खतरों से बचते-बचाते ये लोग करीब पचास मिनट में ऊपर पहुंचते हैं। ऊपर पहुंचते ही सभी पेड़ के नीचे बैठकर सुस्ताने लगते हैं। यहां बेहद किफायत से पानी पिया जाता है। यहां फिजूल पानी गिराना मना है। करीब दस मिनट सुस्ताने के बाद एक किलोमीटर दूर गांव के लिए चलना शुरू कर देते हैं।  घर तक पहुंचकर सभी फिर पानी पीते हैं। इस बीच पानी पीते हुए अब तक दो बर्तन खाली हो चुके हैं।

यहां हर परिवार के तकरीबन तीन से चार सदस्य एक-एक बर्तन लेकर जाते हैं और पानी लाते हैं। नदी का पानी जरूरत के दूसरे काम के लिए उपयोग में लिया जाता है तो बोरवेल का पानी पीने के लिए रखा जाता है। बुजुर्ग केसर सिंह बताते हैं कि ‘‘वे भी सालों तक इसी तरह पानी लेने के लिए जाते थे लेकिन अब वे बहुत बूढ़े हो चुके हैं। शरीर साथ नहीं देता। गांव में लाइट तो आ गई है लेकिन सड़क नहीं बन सकी।’’ यहां के एक अन्य रहवासी रामू कहते हैं कि ‘‘सरकार यहां रोड, टंकी और हैंडपंप लगवा दे तो हमारा जीवन बच जाए।’’  ग्रामीण बताते हैं कि कुछ दिनों पहले हुई बारिश से पास ही पहाड़ी के कुछ पोखरों मे पानी भर गया था तो तकरीबन एक हफ्ते तक उसी पानी से  उन्होंने नहाना-धोना किया।

 

जल जीवन मिशन एवं स्थानीय प्रशासन की भूमिका

जल जीवन मिशन को लेकर इन दिनों खासी चर्चा है। देश में इसका काम तेजी से चल रहा है। योजना का उद्देश्य देश के सभी गांवों में पेय जल देना है, लेकिन फिलहाल खिरनीखेड़ा जैसी बसाहटों में इस योजना को प्रस्तावित नहीं किया गया है। इस मिशन से जुड़े हुए इंदौर के जियोलॉजिस्ट सुनील चतुर्वेदी कहते हैं कि ‘‘जल जीवन मिशन के तहत लोगों तक पानी पहुंचाना हर हाल में जरूरी है। इस मिशन का यही उद्देश्य है। इस गांव की स्थिति को देखते हुए भी यहां पानी पहुंचना चाहिए लेकिन इससे भी ज्यादा परेशानी प्रदूषित पानी की है क्योंकि भविष्य में यहां लोगों को मिलने वाला पानी इन्हीं स्रोतों से लिया जाएगा।’’

पहाड़ से पानी लाते हुए लोगों की तस्वीरें पिछले दिनों इंदौर के कलेक्टर इलैयाराजा टी. तक पहुंची। जिसके बाद उन्होंने लोक यांत्रिकी विभाग यानी पीएचई के अधिकारियों को यहां भेजा और लोगों की परेशानी को हल करने की कोशिश की। दौरा करने आए अधिकारियों ने जांच के बाद कलेक्टर से इस बारे में अपनी रिपोर्ट दे दी है। इस टीम में शामिल पीएचई महू के एसडीओ राजेश उपाध्याय ने बताया कि ‘‘जल जीवन मिशन के तहत सभी गांवों में पीने के पानी के लिए नल जल योजना प्रस्तावित की जा रही है लेकिन कालीकिराय में खिरनीखेड़ा बसाहट में इसके लिए प्रस्ताव नहीं है क्योंकि यहां केवल बारह परिवार ही रहते हैं और ये गांव नहीं है, बल्कि नई बसाहट है।’’

राजेश उपाध्याय के मुताबिक खिरनीखेड़ा इस बसाहट में केवल दो-तीन परिवारों के पास पट्टे की जमीन है जो यहां खेती करते हैं, बाकी लोग पहाड़ी के नीचे मली गांव से यहां आकर बस गए हैं। इन सभी के पास मली में भी जमीनें और घर हैं। ऐसे में इन्हें योजना का लाभ नहीं दिया जा रहा है। हालांकि मली गांव में भी अब तक जल जीवन मिशन के तहत सभी घरों में पानी नहीं पहुंचाया जा सका है। गांव में काम धीमे होने की वजह यह है कि यह गांव पहाड़ी के नीचे है और यहां जाना और वापस आना काफी कठिन भी है।

इंदौर को जो राष्ट्रीय जल पुरस्कार मिला है, उसमें बारिश का पानी बचाने के लिए किए गए उपायों का बड़ा योगदान है। इंदौर शहर में रेन वॉटर हार्वेस्टिंग सिस्टम लगाने के अलावा यहां के ग्रामीण आदिवासी इलाकों में चोरल और सुखड़ी नदी को बचाया गया और नालों में बारिश का पानी एकत्रित किया गया। यह काम करने वाली संस्था नागरथ चैरिटेबल ट्रस्ट के सुरेश एमजी बताते हैं कि ‘‘खिरनीखेड़ा जैसे इलाके काम करने के लिए काफी कठिन हैं, लेकिन यहां भी उपाय किए जा सकते हैं। कुछ जियोलॉजिकल परीक्षण करके यहां एक कुआ बनाया जा सकता है। इसमें कम खर्च में पानी की उपलब्धता संभव है।’’

कालीकिराय ग्राम पंचायत के तहत आने वाले इस गांव के सरपंच हरिराम कहते हैं कि ‘‘समस्या हल करना मुश्किल है क्योंकि गांव में रास्ता ही नहीं है। पहाड़ में से रास्ता बनाना कठिन है और इसके लिए वन विभाग के अलावा कई विभागों से अनुमति लेनी होगी और काफी पैसा भी खर्च होगा।’’ ग्रामीण भी ज्यादा बड़ी परेशानी सड़क की बताते है क्योंकि अगर सड़क होती तो वे मशीनों के मदद से अपने लिए बोरबेल और कुआं बना लेते। इसके अलावा,  इस रास्ते पर मोटरसाईकिलों का आना भी मुश्किल होता है। इस तरह यहां से कोई वाहन नहीं निकल सकता।

एक रास्ते के कारण खिरनीखेड़ा और मली जैसी आदिवासी बसाहटों के करीब पचास परिवारों का जीवन बदहाल हो चुका है। पानी की परेशानी के अलावा यहां स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंचना भी बड़ी समस्या है। खिरनीखेड़ा की आदिवासी महिला पपीता बाई बताती हैं कि महिलाएं जब यहां गर्भवती होती हैं तो वे या तो अपने मायके चली जाती हैं और अगर ऐसा नहीं कर पातीं तो खाट में लेकर उन्हें अस्ताल या एंबेलुंस तक ले जाना पड़ता है।

पहाड़ से उतरकर इस तरह पानी लेने आगे बढ़ते हैं लोग

मली और खिरनीखेड़ा के आदिवासी युवा खासे परेशान हैं। इन युवाओं को रोजगार मिलना लगातार मुश्किल होता जा रहा है। रास्ता नहीं है इसलिए गांव से बाहर जाना मुश्किल होता है। खिरनीखेड़ा के युवाओं के लिए ज्यादातर समय पानी भरने में ही गुजर जाता है ऐसे में उनके पास रोजगार के लिए समय नहीं है। दोनों ही जगह रहने वाले युवाओं के लिए परेशानी यह है कि अगर वे रोजगार के लिए गांव से बाहर जाते हैं तो अपनी जमीन छोड़नी पड़ेगी। इन युवाओं को मनरेगा के तहत भी रोजगार नहीं मिलता है।

खिरनिखेड़ा पहुंचने का रास्ता

इस मामले में मली गांव में तो हालत और भी खराब है। वहां अक्सर गर्भवतियों और बीमारों को खाट पर लिटाकर पहाड़ चढ़ना होता है। ग्रामीणों के मुताबिक मली गांव में करीब सत्तर लोग रहते हैं। आना-जाना इतना कठिन है कि यहां का इकलौता स्कूल भी बंद हो चुका है और अब ज्यादातर बच्चों ने पढ़ाई छोड़ दी है। मली गांव के कैलाश गिरवाल बताते हैं कि उन्होंने चार बीघा खेती में चालीस क्विटंल गेहूं उपजाया है लेकिन इसे मंडी तक ले जाना उनके लिए बहुत मुश्किल है क्योंकि इस अनाज को कंधों पर लेकर पहाड़ चढ़ना होगा और फिर ट्रैक्टर की मदद से मंडी तक पहुंचाना होगा। जब हमने उनसे पूछा कि वे सभी मिलकर अपनी इस समस्याओं के बारे में मंत्री और कलेक्टर जैसे अधिकारियों से मिलकर उन्हें क्यों नहीं बताते! इस पर कैलाश जवाब देते हैं कि उनसे अब ये सब नहीं होता, वे कहते हैं कि हम कई बार कोशिश कर चुके हैं लेकिन अब लगता है कि हमारे लिए पहाड़ चढ़ना इससे ज्यादा आसान लगता है।

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साभारः आदित्य सिंह द्वारा यह खबर मूल रूप से मोजो स्टोरी नाम के प्लेटफार्म के लिए लिखी गई थी। हम यह साभार देशगांव पर प्रकाशित कर रहे हैं। मूल ख़बर को आप यहां भी पढ़ सकते हैं। 

 

 

First Published on: April 20, 2023 10:53 PM