कोर्ट ने कहा कि जैसे वन संरक्षण में यह सुनिश्चित करने के लिए वृक्षों की वृद्धि दर का आकलन आवश्यक है कि पेड़ों की कटाई उनकी वृद्धि से अधिक न हो, उसी प्रकार पुनर्भरण अध्ययन हमें यह निर्णय लेने में सक्षम बनाता है कि क्या रेत खनन नदी के प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़े बिना किया जा सकता है। इसलिए यह मानना अनिवार्य है कि जिला सर्वेक्षण रिपोर्ट तभी वैध और स्वीकार्य होगा जब उसमें उचित पुनर्भरण अध्ययन सम्मिलित हो।
वर्तमान संदर्भ में पुनर्भरण अध्ययन की आवश्यकता स्पष्ट करते हुए न्यायालय ने कहा कि निर्माण गतिविधियां तेज़ी से बढ़ रही हैं और निर्माण योग्य रेत की मांग अत्यधिक बढ़ रही है। कहा जाता है कि विश्व 2050 तक इस संसाधन से वंचित हो सकता है। निर्माण योग्य रेत जलीय पर्यावरण, जैसे नदियों में पाई जाती है और यह पारिस्थितिक तंत्र की प्रदाय सेवाओं में से एक है। नियंत्रित परिस्थितियों में भी नदी तल और तट से रेत का खनन पर्यावरण पर प्रभाव डालता है।
भौतिक पर्यावरण में इसके प्रमुख प्रभाव नदी तल का चौड़ा होना और नीचा होना हैं। जैविक पर्यावरण में इसका सबसे बड़ा असर जैव विविधता में कमी है, जो जलीय और तटीय वनस्पति एवं जीव-जंतुओं से लेकर पूरे बाढ़ मैदान क्षेत्र तक फैली होती है। आसान उपलब्धता के कारण निर्माण परियोजनाओं में नदी की रेत और बजरी का बड़े पैमाने पर प्रयोग हुआ है। लेकिन खनन की विधि तथा नदी की आकृति और जल-गतिकी विशेषताओं के अनुसार यह नदी तल और तट पर कटाव या अन्य नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है। इसलिए उपयुक्त अध्ययन, विशेषकर पुनर्भरण अध्ययन, करना ज़रूरी है ताकि नदी खनन के टिकाऊ और किफायती तरीक़े खोजे जा सकें।
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि वर्तमान क़ानूनी व्यवस्था यह अनिवार्य करती है कि पुनर्भरण रिपोर्ट वैज्ञानिक तरीके से तैयार हो और वह जिला सर्वेक्षण रिपोर्ट का हिस्सा बने। इस दृष्टि से कोई भी जिला सर्वेक्षण रिपोर्ट, जिसमें उचित पुनर्भरण अध्ययन शामिल न हो, अस्वीकार्य है।
न्यायमूर्ति नरसिम्हा ने कहा कि हमारे विचार से, जम्मू-कश्मीर की पर्यावरण मुल्यांकन समिति ने गंभीर त्रुटि की है, जब उसने यह जानते हुए भी की जिला सर्वेक्षण रिपोर्ट पुर्ण नहीं है। फिर भी कार्यवाही आगे बढ़ाया जो कि वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के 2016 की अधिसूचना और 2016 व 2020 की रेत खनन दिशानिर्देशों के अनुरूप तैयार नहीं हुई है तथा इसमें पुनर्भरण डेटा अधूरा है।
कोर्ट ने कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जम्मू-कश्मीर राज्य पर्यावरण प्रभाव आकलन प्राधिकरण ने नियामक ईमानदारी से समझौता किया और बिना पुनर्भरण रिपोर्ट वाले जिला सर्वेक्षण रिपोर्ट के आधार पर पर्यावरणीय मंजूरी दे दी। परियोजना प्रवर्तक को ‘अधिकतम 1 मीटर की गहराई तक सीमित खनन और 2.0 के बल्क घनत्व पर खनिज का उत्पादन व 34,800 मीट्रिक टन की अधिकतम उत्पादन सीमा’ जैसी शर्तों के साथ अनुमति देने का जो समझौता किया गया, वह अस्वीकार्य है। इस प्रकार की अनुचित सिफ़ारिश पर्यावरण मुल्यांकन समिति और राज्य पर्यावरण प्रभाव आकलन प्राधिकरण के नियामक विफलता का उदाहरण है।
यह मामला राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण और जम्मू-कश्मीर व लद्दाख केंद्र शासित प्रदेश द्वारा दायर अपील से संबंधित था, जिसमें उन्होंने हरित न्यायाधिकरण के आदेश को चुनौती दी थी। हरित न्यायाधिकरण ने यह कहते हुए पर्यावरणीय मंजूरी को अवैध ठहराया था कि यह ऐसी जिला सर्वेक्षण रिपोर्ट पर आधारित थी जिसमें पुनर्भरण डेटा शामिल नहीं था। शहरीकरण और बढ़ते निर्माण के साथ रेत की मांग लगातार बढ़ रही है। इस मांग को पूरा करने के लिए रेत खनन में लगातार वृद्धि हो रही है। इसका सीधा असर पारिस्थितिकी तंत्र पर पड़ रहा है। देखा जाए तो आज जिस तेजी से खनन किया जा रहा है वो मानव-प्रकृति के बीच के संतुलन को बिगाड़ रहा है। ऐसे में मानव विकास की अंधी दौड़ की कीमत प्रकृति को चुकानी पड़ रही है।
पर्यावरण के जानकार मानते हैं कि रेत खनन से नदियों के पारिस्थितिकी तंत्र को कई तरह से नुकसान होता है, जिसमें नदी के तल का क्षरण, जलीय आवास का नष्ट होना, और जैव विविधता में कमी शामिल है। इससे नदी के प्रवाह और अवसादन पैटर्न में बदलाव आता है, जिससे बाढ़ और कटाव बढ़ता है। यह नदी के गंदलेपन को बढ़ाता है, ऑक्सीजन की मात्रा घटाता है, और भूजल स्तर को नीचे कर सकता है, जिससे स्थानीय पेयजल की कमी होती है। रेत खनन से नदी का प्राकृतिक संतुलन बिगड़ता है, जिससे स्थानीय जीवों के जीवन को खतरा होता है।
माइन्स एंड मिनरल रेगुलेशन एक्ट 1957 में प्रमुख और उपखनिज को परिभाषित किया है। 1957 से अबतक स्थिति बदल चुकी है और रेत का इस्तेमाल कई गुणा बढ गया है। रेत खनन के कारण पर्यावरण पर हो रहे असर की व्यापकता को देखते हुए इसे लघु नहीं, बल्कि प्रमुख खनिज में शामिल कर सख्त पर्यावरणीय अनुमति का प्रावधान किया जाना चाहिए। वर्तमान दौर में नदियां कम्पनियों, कॉर्पोरेट्स और सरकार के मुनाफा कमाने का साधन बन चुकी है।
रेत खनन नर्मदा नदी के इकोसिस्टम को गंभीर रूप से प्रभावित कर रहा है। इसके लिए निम्नलिखित उपाय किया जाना चाहिए। अवैध रेत खनन की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए एक विशेष निगरानी दल का गठन किया जाए। अवैध खनन करने वालों पर कठोर कार्रवाई की जाए और उनके उपकरण जब्त किए जाएं। निर्माण कार्यों के लिए रेत के वैकल्पिक साधनों की खोज और उपयोग को प्रोत्साहित किया जाए।
इसी वर्ष मई माह में मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने ‘पेसा एक्ट’ की धारा 6 के उल्लंघन को लेकर राज्य सरकार और माइनिंग विभाग सहित लगभग सात जिलों के कलेक्टर को नोटिस जारी किए हैं। मामला पेसा एक्ट 1996 की धारा 6 के तहत अधिसूचित क्षेत्रों में खनन से जुड़ा है। याचिका में मंडला जिले में रेत का ठेका लेने वाले वंशिका कंस्ट्रक्शन कंपनी पर भी कई आरोप लगाए गए हैं। कोर्ट ने सभी अनावेदकों को चार हफ्ते में जवाब पेश करने का निर्देश दिया है।
याचिकाकर्ता की ओर से अधिवक्ता रामेश्वर पी सिंह और विनायक प्रसाद साह ने कोर्ट में दलील दी कि सरकार ने वंशिका कंस्ट्रक्शन को नियम के खिलाफ अधिसूचित अनुसूचित क्षेत्र मंडला जिले की 26 खदानों से रेत निकालने के लिए तीन साल का ठेका दे दिया है। जबकि मंडला, डिंडोरी, धार, झाबुआ, शहडोल और बड़वानी जिले की खदानों को राष्ट्रपति द्वारा ‘पेसा एक्ट’ के तहत अधिसूचित क्षेत्र घोषित किया गया है। इन क्षेत्रों में किसी भी प्रकार के खनन के लिए संबंधित ग्राम पंचायतों से अनुमति और अनापत्ति लेना जरूरी है, लेकिन वंशिका कंस्ट्रक्शन द्वारा लगातार हैवी मशीनें लगाकर रेत उत्खनन किया जा रहा है। याचिका में आरोप लगाया गया है कि वंशिका कंस्ट्रक्शन द्वारा प्रति डंपर 12 से 15 टन की अनुमति का भी उल्लंघन कर रेत निकालकर 50 टन तक के बड़े-बड़े डंपरों से परिवहन किया जा रहा है।