ग्रामसभा से विधानसभा तक: हसदेव बचाने की 15 साल की लड़ाई


भोपाल में आलोक शुक्ला ने हसदेव अरण्य आंदोलन की 15 वर्षों की लड़ाई को रेखांकित किया। जंगल, जल और ग्रामसभा अधिकारों की रक्षा के इस संघर्ष की गूंज अब राष्ट्रीय होती जा रही है।


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भोपाल Updated On :

छत्तीसगढ़ के घने जंगलों में पिछले डेढ़ दशक से जारी हसदेव अरण्य बचाओ आंदोलन की आवाज़ आज भोपाल के गांधी भवन में भी गूंजी। इस मौके पर गोल्डमैन पर्यावरण पुरस्कार से सम्मानित पर्यावरण कार्यकर्ता आलोक शुक्ला ने कहा, “अभी हम हरे नहीं हैं, और वो जीते नहीं हैं”, जो इस संघर्ष की जीवटता और जिजीविषा का प्रतीक बन गया।

 

नागरिकों से संवाद का आयोजन

हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति के प्रमुख कार्यकर्ता आलोक शुक्ला के साथ आयोजित इस परिचर्चा में शहर के प्रबुद्ध नागरिक, सामाजिक कार्यकर्ता और बड़ी संख्या में युवा शामिल हुए। इस अवसर पर शुक्ला ने हसदेव अरण्य के महत्व, संघर्ष के इतिहास और वर्तमान संकट पर विस्तार से चर्चा की।

 

15 वर्षों की संघर्ष गाथा

आलोक शुक्ला ने बताया कि 2010 से हसदेव अरण्य क्षेत्र में कोयला खनन के खिलाफ यह जनआंदोलन शुरू हुआ। यह क्षेत्र जैव विविधता, प्राकृतिक संसाधनों और वन्य जीवन से परिपूर्ण है, जिसे छत्तीसगढ़ के ‘फेफड़े’ कहा जाता है। हसदेव नदी के जलग्रहण क्षेत्र के रूप में यह जंगल करोड़ों लोगों के जीवन और आजीविका से जुड़ा है।

 

संविधान की पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत आने वाले इस क्षेत्र की ग्राम सभाएं अपने विशेष अधिकारों का उपयोग करते हुए खनन के विरोध में लगातार सक्रिय रही हैं।

 

पर्यावरणीय चेतावनी और सरकारी निर्णय

शुक्ला ने बताया कि वर्ष 2009 में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने हसदेव क्षेत्र को खनन से मुक्त रखने का निर्णय लिया था। 2021 में भारतीय वन्य जीव संस्थान ने भी इसे “नो गो ज़ोन” घोषित करने की अनुशंसा की थी। रिपोर्ट में चेताया गया था कि यदि खनन की अनुमति दी गई तो मानव-हाथी संघर्ष की स्थिति गंभीर हो सकती है और हसदेव नदी का अस्तित्व संकट में पड़ जाएगा।

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राज्य विधानसभा ने भी 2022 में सर्वसम्मति से कोल ब्लॉकों को निरस्त करने का संकल्प लिया था। 2023 में राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर पीईकेबी खदान को छोड़ किसी अन्य को अनुमति न देने की बात कही थी।

 

सरकार बदलने के बाद उलटी दिशा

हालांकि सरकार बदलते ही परसा कोल ब्लॉक में पेड़ों की कटाई शुरू हो गई, जबकि प्रभावित गांवों ने ग्रामसभा में कभी सहमति नहीं दी। छत्तीसगढ़ राज्य अनुसूचित जनजाति आयोग की जांच में यह सामने आया कि ग्रामसभा के प्रस्ताव फर्जी हैं, फिर भी खनन प्रक्रिया जारी है। इसी तरह केंटे एक्सटेंशन ब्लॉक को भी पर्यावरणीय स्वीकृति देने की कोशिश की जा रही है, जो 97% घने जंगल से आच्छादित है।

 

आंदोलन की उपलब्धियाँ और चेतावनी

अब तक आंदोलन ने 23 में से 20 कोल ब्लॉकों को रद्द कराने में सफलता प्राप्त की है, जिन्हें अब लेमरू हाथी रिज़र्व के रूप में नोटिफाई किया गया है। लेकिन राजस्थान को आवंटित तीन खदानों से लगभग 15,000 एकड़ जंगल और 12 लाख पेड़ों का विनाश होने का खतरा है।

 

परिचर्चा में वक्ताओं ने शहरी युवाओं की भूमिका की सराहना की और कहा कि आज के जलवायु संकट में ऐसे आंदोलनों को समर्थन देना अत्यंत आवश्यक है। आलोक शुक्ला ने जोर देकर कहा कि यह संघर्ष केवल एक जंगल की रक्षा का नहीं, बल्कि पूरे मानव जीवन की रक्षा का प्रयास है।



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