कर्नाटक : चार निष्कर्ष
बीजेपी लीडरशिप : राजनीति में एरर-ऑफ़-जजमेंट का बड़ा महत्व है। जैसे इंडिया शाइनिंग अटल-सरकार का एरर-ऑफ़-जजमेंट था, आपातकाल इंदिरा-सरकार का। बीजेपी का एरर-ऑफ़-जजमेंट यह है कि वह सोचती है, डबल इंजिन की सरकार में मुख्य इंजिन दिल्ली में बैठा है। प्रदेश में बैठा इंजिन उसका अनुषंग है। ध्यान रहे कि केंद्र में बैठा इंजिन ख़ुद कभी एक रीजनल-लीडर था और अपने राज्य में उम्दा परफ़ॉर्मेंस-रिपोर्ट के आधार पर केंद्र के लिए ग्रैजुएट हुआ था।
जो व्यक्ति जिस सीढ़ी की मदद से मचान पर चढ़ता है, वह ऊपर जाने के बाद सबसे पहले उसी सीढ़ी को तोड़ देता है, ताकि कोई और ऊपर न आ जाए। यह तो ज़ाहिर है कि बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व मज़बूत और लोकप्रिय क्षेत्रीय-नेताओं को लेकर सहज नहीं है। इसमें बीजेपी का एरर-ऑफ़-जजमेंट यह है कि वह सोचती है हम प्रधानमंत्री के चेहरे का इस्तेमाल करके कहीं भी चुनाव जीत लेंगे और किसी भी रबर-स्टाम्प सीएम को वहाँ बिठा देंगे। पर यह नीति कुछ जगहों पर चलती है, कुछ में नहीं।
येदियुरप्पा : कर्नाटक दक्षिण में बीजेपी का इकलौता दुर्ग है। शेष तीन द्रविड़ राज्यों में वह अपने बूते सरकार बनाने की हैसियत में नहीं, लेकिन कर्नाटक में वह सरकार बनाती रही है। इसके पीछे लिंगायतों का बड़ा योगदान है, जिनके निर्विवाद नेता बी.एस. येदियुरप्पा हैं।
उन्होंने 2007 में बीजेपी को उसकी पहली कर्नाटक-जीत दिलाकर चकित और ख़ुश कर दिया था। लेकिन वे पूरे पाँच साल सीएम नहीं रहे। सरकार का मुखिया तीन बार बदला गया। जनता ने अगले चुनाव में कांग्रेस को सत्ता सौंप दी। मुखिया-बदल का यह खेल 2019 से 2021 के बीच फिर दोहराया गया। एक बार फिर येदियुरप्पा की बलि चढ़ाई गई। एक बार फिर बीजेपी ने राज्य गँवाया।
प्रश्न यह है कि क्या बीजेपी एक मज़बूत क्षेत्रीय नेता को लेकर सहज होने को तैयार है, जो अपने दम पर चुनाव जिता सके? जैसे कि यूपी में योगी जिताते हैं? मोदी-शाह की जोड़ी सेकंड-फ़िडल का रोल प्ले करने को लेकर सहज नहीं है। यहाँ पर एरर-ऑफ़-जजमेंट यह है कि जब यह जोड़ी अपने दम पर चुनाव नहीं जिता पाती- तब तक देर हो चुकी होती है।
एक अतिशय लोकप्रिय मुख्यमंत्री से जो प्रधानमंत्री बना हो, वह किसी दूसरे अतिशय लोकप्रिय मुख्यमंत्री को स्वीकार कर सकेगा- इस प्रश्न के उत्तर में बीजेपी का भविष्य निहित है, क्योंकि मोदी-शाह यहाँ हमेशा नहीं रहेंगे, जैसे अटल-आडवाणी नहीं रहे।
राहुल गांधी : 2013 के कर्नाटक विधानसभा चुनावों में राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को बड़ी जीत मिली थी। तब केंद्र में यूपीए की हुकूमत थी और राहुल क्राउन-प्रिंस की तरह प्रस्तुत थे। कर्नाटक को राहुल की पहली प्रमुख राजनैतिक क़ामयाबी माना गया था। यूपीए ने 122 सीटों के साथ पूर्ण बहुमत पाया, एनडीए 40 सीटों के साथ गर्त में चली गई। यूपीए ने पिछले चुनाव से 42 ज़्यादा सीटें जीतीं, एनडीए ने पिछले चुनाव की तुलना में 70 सीटें गँवाईं। वह एक क्लीन-स्वीप था।
ठीक अगले साल 2014 के लोकसभा चुनाव हुए। कुल 28 संसदीय सीटों में से इस बार बीजेपी को 17 और कांग्रेस को 9 सीटें मिलीं। केंद्र में 30 साल बाद पूर्ण बहुमत की सरकार बनी, तो उसमें कर्नाटक का भी छोटा-सा योगदान था।
महज़ एक साल में क्या हो गया? हुआ कुछ भी नहीं, बस वोटर विधानसभा चुनाव के लिए अलग और लोकसभा चुनाव के लिए अलग मानस से वोट डालता है। विधानसभा चुनावों में लोकल-प्रश्नों का अधिक महत्व होता है। दिल्ली के विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी एकतरफ़ा जीतती है लेकिन लोकसभा चुनावों में सभी सातों सीटें बीजेपी के पास चली जाती हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले बीजेपी मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान में प्रांतीय सरकार गँवा बैठी थी, पर लोकसभा में वहाँ से झोली भरकर सीटें ले आई।
इसलिए अपने निष्कर्षों को अभी थामें और नज़र रखें कि 2024 के संसदीय चुनावों में यही कर्नाटक किस तरह से वोट डालता है। मौजूदा परिणामों को राहुल गांधी की व्यक्तिगत जीत मानना 2013 वाली ग़लती दोहराना होगा।
काऊ बेल्ट : जिस पार्टी का स्ट्रान्ग-होल्ड काऊ-बेल्ट या हिन्दी पट्टी में हो, जिसका मुख्य वोटर-बेस मध्यवर्गीय और सवर्ण हो, जो धर्म और राष्ट्रीय सुरक्षा की राजनीति करती हो (वीरशैवों के राज्य में बजरंग दल को बजरंग बली से जोड़ने की भूल करना और वोटर के कॉमन-सेंस को टेकन फ़ॉर ग्रांटेड लेना बाय-द-वे एरर-ऑफ़-जजमेंट का एक और उदाहरण है), जिसने राम मन्दिर के लोकार्पण के तुरुप के इक्के को 2024 के फ़ाइनल मैच के लिए बचाकर रखा हो, उसके राजनैतिक भविष्य का आकलन दक्षिण में उसके इकलौते दुर्ग में उसके प्रदर्शन के आधार पर नहीं किया जा सकता। वैसे भी कर्नाटक के वोटर बीजेपी, कांग्रेस, जेडीएस के बीच सरकार-बदल का खेल नियमित रूप से खेलते रहते हैं। बीते पंद्रह-बीस सालों का रिकॉर्ड उठाकर देख लीजिये।
यानी, 2024 के इक्वेशंस अभी यथावत् हैं। स्टेटस-को डगमगाया नहीं है। बीजेपी अभी भी लोकसभा चुनावों में लीड कर रही है और हैट्ट्रिक के लिए तैयार है। हाँ, शीर्ष नेतृत्व को विधानसभा चुनावों में अपने चेहरे को धकेलकर हार को ख़ुद पर मढ़ लेने की फ़ज़ीहत नहीं करवानी चाहिए। इसे राजनैतिक समझदारी नहीं, पोलिटिकल एरर-ऑफ़-जजमेंट ही कहेंगे।
(आलेख भड़ासफॉरमीडिया.कॉम से साभार)


















