मोदी से डरना बंद कीजिए ! भागवत से ख़ौफ़ खाइए !


मोदी की व्यक्तिगत सत्ता की महत्वाकांक्षा बनाम भागवत की हिंदू राष्ट्र रणनीति—देश के भविष्य पर किसका असर ज़्यादा गहरा है? पढ़ें विश्लेषण।


श्रवण गर्ग
अतिथि विचार Published On :

देश को किस एक व्यक्ति की महत्वाकांक्षाओं को लेकर ज़्यादा चिंतित होना चाहिए? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यवाह मोहन भागवत की?

मोदी की महत्वाकांक्षाएँ उनके संघी अतीत पर हावी वर्तमान की भूमिका को देखते हुए नितांत ‘व्यक्तिगत’ और तात्कालिक स्वार्थ से प्रेरित नज़र आती हैं। दूसरी ओर, हिंदुत्व और हिन्दू राष्ट्र की किसी भी क़ीमत पर स्थापना के प्रति भागवत की प्रतिबद्धता और आक्रामकता को देखते हुए उनकी महत्वाकांक्षाएँ ज़्यादा ‘सामूहिक’ और दीर्धकालिक उद्देश्यों से प्रेरित दिखाई पड़ती हैं।

भागवत और मोदी दोनों ने अपने मंतव्य उजागर कर दिए हैं कि वे अनिश्चितकाल के लिए अपने पदों पर बने रहना चाहते हैं। भागवत ऐसा संघ के प्रावधानों के अनुसार करना चाहते हैं और मोदी अपनी इच्छा देश पर थोप कर भी ऐसा करना चाहते हैं। जिस तरह के संकेत मोदी इस समय दे रहे हैं, उसके अनुसार उनकी ‘इच्छा सत्ता’ की आकांक्षा की पूर्ति में भागवत की भूमिका अति महत्वपूर्ण हो गई है।

भागवत द्वारा जारी संकेतों को ‘डीकोड’ करना हो तो संघ के उद्देश्यों—‘हिंदू समुदाय को मज़बूत करने के लिए हिंदुत्व की विचारधारा को फैलाना और भारतीय संस्कृति और उसके सभ्यागत मूल्यों को बनाए रखने के लिए आदर्श को बढ़ावा देना’—की प्राप्ति के लिए मोदी की ज़रूरत अब क्षीण अथवा समाप्त हो चुकी है।

संघ के शताब्दी वर्ष की तैयारियों को लेकर भागवत के उत्साह और संगठन के विकास में संघ-प्रमुख के योगदान के प्रति मोदी द्वारा लगातार व्यक्त किए जा रहे समर्पण भरे उद्गारों को इसी परिप्रेक्ष्य में पढ़ा भी जा सकता है। साल 2024 के लोकसभा चुनाव-परिणामों को लेकर तब किए गए दावों और कार्य-योजना के अनुरूप मोदी के नेतृत्व में बीजेपी को अगर चार सौ सीटें प्राप्त हो ही जातीं तो दोनों नेताओं की भूमिकाएँ बदल भी सकती थीं। संघ और विपक्ष के भाग्य से वैसा हो नहीं पाया।

शताब्दी वर्ष के दौरान संघ की गतिविधियों को व्यापक बनाने की रणनीति के पीछे भागवत की इस चिंता को पढ़ा जा सकता है कि तमाम दबावों के बावजूद मोदी अगर नेतृत्व का हस्तांतरण नहीं करते हैं तो संगठन का यथासंभव विस्तार अगले चुनावों (2029) के पहले तक पूरा कर लिया जाना चाहिए। देश की समस्त महत्वपूर्ण संस्थाओं/संस्थानों में संघ के स्वयंसेवकों के प्रवेश और उन पर उनके नियंत्रण को लेकर राहुल गांधी कई बार चिंताएँ व्यक्त कर चुके हैं।

ज़ाहिर है भागवत राहुल गांधी की चिंताओं से भी वाक़िफ़ हैं और स्वयं के इस ख़ौफ़ से भी कि केंद्र की सत्ता अगर बीजेपी के हाथ से खिसक गई तो उसका संघ के अस्तित्व पर क्या प्रभाव पड़ सकता है। अपने शताब्दी वर्ष में संघ की योजना है कि संगठन की शाखाओं की संख्या को साठ हज़ार से बढ़ाकर एक लाख तक पहुँचा दिया जाए।

आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि अपनी रणनीति के क्रियान्वयन में भागवत ने उन समर्पित और तपे-‘तपाए गए’ संघी-भाजपाइयों को जोड़ा है जो मोदी से नाराज़ हैं, जिन्हें लगभग निष्क्रिय ‘मार्गदर्शक मण्डल’ में खदेड़ दिया गया था। डॉ. मुरली मनोहर जोशी को हाल में दिल्ली में आयोजित महत्वपूर्ण संगोष्ठी में भागवत द्वारा दिया गया सम्मान इसका ताज़ा उदाहरण है। भागवत जिस मूड में और मोदी जिस मुद्रा में हैं उसके अर्थ यह भी निकाले जा सकते हैं कि उपराष्ट्रपति के पद पर संघ-समर्पित व्यक्तित्व की नियुक्ति से हुई शुरुआत अब थमने वाली नहीं है।

बीजेपी और संघ के क्षेत्रों में अवश्य ही गौर किया गया होगा कि भागवत के पचहत्तरवें जन्मदिन 11 सितंबर पर मोदी ने तो उनकी तारीफ़ में एक बड़ा आलेख लिखा, जिसे देश भर के अख़बारों ने ‘अनिवार्य’ समझकर प्रकाशित भी किया। इसके पूर्व पंद्रह अगस्त को लाल क़िले से किए गए अपने संबोधन में मोदी संघ के कार्यों की भूरि-भूरि प्रशंसा कर चुके थे। इसके विपरीत 17 सितंबर को जब मोदी ने पचहत्तर वर्ष पूरे किए तो देश पीएम के नाम भागवत के शुभकामना संदेश को तलाशता रह गया।

जो नज़र आ रहा है वह यह है कि मोदी की कमर संघ के सामने झुक रही है और भागवत का सीना छप्पन इंच का हो रहा है!

सही पूछा जाए तो देश को इस समय मोदी द्वारा सत्ता बचाने के लिए किए जा रहे असफल रक्षात्मक टोटकों से डरने के बजाय भागवत की सफल होतीं आक्रामक रणनीतियों से ज़्यादा ख़ौफ़ खाना चाहिए!

भागवत और मोदी दोनों के बारे में जितना ज्ञान सार्वजनिक रूप से उपलब्ध है उसमें एक बात उल्लेखनीय रूप से शामिल है कि दोनों ही नेता अपने प्रति व्यक्त किए गए सम्मान-असम्मान का चुकारा करना कभी नहीं भूलते। अतः दोनों नेताओं के बीच दिखाई पड़ रहे परस्पर अथवा एकतरफ़ा सम्मान-प्रदर्शन को किसी आगामी शक्ति-प्रदर्शन के नतीजों तक के लिए ‘सीजफायर’ ही समझा जाना चाहिए!