सार्वजनिक संस्थानों में नौकरियों की आउटसोर्सिंग शोषण का ज़रिया नहीं बन सकती : सुप्रीम कोर्ट


सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सार्वजनिक संस्थानों में नौकरियों की आउटसोर्सिंग शोषण का जरिया नहीं बन सकती, संविदाकर्मियों को समान वेतन और अधिकार मिलें।



बिहार में विधानसभा चुनाव से पहले संविदाकर्मियों का मुद्दा गर्मा गया है। कुछ दिन पहले पटना में संविदा कर्मचारी राजस्व एवं भूमि सुधार विभाग में अपनी नौकरी पक्की करने और बकाया वेतन की मांग को लेकर, लगभग 9000 भू-सर्वेक्षणकर्मी बीजेपी दफ्तर पहुंचे थे ।जमीन मापी से जुड़े इन संविदा कर्मियों पर पुलिस ने लाठी चार्ज कर दिया। बिहार के पटना के गर्दनीबाग हड़ताल स्थल पर पिछले एक महीने से आंदोलन चल रहा था।

संविदा कर्मियों का कहना है कि वे वर्षों से राजस्व विभाग समेत कई सरकारी दफ्तरों में काम कर रहे हैं, लेकिन उन्हें स्थायी कर्मियों के बराबर अधिकार और सुविधाएं नहीं मिल रही हैं। उनकी प्रमुख मांग है कि उन्हें ‘समान काम के लिए समान वेतन’ दिया जाए और सेवा की अवधि 60 वर्ष तक सुनिश्चित की जाए।

संविदा कर्मियों का सबसे बड़ा संकट नौकरी की अस्थायित्व है। उनका अनुबंध समय-समय पर नवीनीकृत किया जाता है, जिससे नौकरी खोने का डर हमेशा बना रहता है। ज्यादातर संविदा कर्मियों को पेंशन, ग्रेच्युटी, मेडिकल सुविधाएं और अन्य सामाजिक सुरक्षा लाभ नहीं मिलते। इससे भविष्य असुरक्षित बना रहता है।

सरकारी विभागों में स्थायी पद खाली होने के कारण संविदा कर्मियों से अतिरिक्त कार्य लिया जाता है, लेकिन उसके अनुपात में वेतन या प्रोत्साहन नहीं मिलता। संविदा नियुक्ति में पदोन्नति की कोई स्पष्ट व्यवस्था नहीं होती। कई बार 10-15 साल काम करने के बाद भी कर्मी उसी पद पर रहते हैं। अनिश्चितता, कम वेतन और असमानता की वजह से संविदा कर्मियों में असंतोष, तनाव और असुरक्षा की भावना बढ़ती है।

भारत में रोजगार का संकट कोई नया नहीं है, लेकिन संविदा और आउटसोर्सिंग के जरिए काम कर रहे कर्मचारी आज भी सबसे अधिक उपेक्षित वर्ग बने हुए हैं। ये कर्मचारी सरकारी कर्मचारियों के समान ही काम करते हैं, वहीं जिम्मेदारियां निभाते हैं, लेकिन अधिकारों और सुविधाओं के नाम पर उन्हें लगभग नजरअंदाज कर दिया जाता है।

लगातार मेहनत, ईमानदारी और निष्ठा के बावजूद उन्हें कभी स्थायित्व नहीं मिलता, न ही सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा है। यही कारण है कि आज सबसे ज्यादा परेशान वही हैं जो सरकार की जड़ में काम कर रहे संविदाकर्मी और आउटसोर्स कर्मचारी हैं।

हाल में ही उत्तर प्रदेश उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग के दैनिक वेतनभोगी कर्मचारियों द्वारा दायर एक अपील पर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और संदीप मेहता की पीठ ने कहा है कि सार्वजनिक संस्थान नौकरियों की आउटसोर्सिंग को शोषण के साधन के रूप में उपयोग नहीं कर सकते, तथा वित्तीय तनाव या रिक्तियों की कमी का हवाला देकर दीर्घकालिक तदर्थ कर्मचारियों को नियमितीकरण या मूल वेतन समानता से वंचित नहीं कर सकते।

संवैधानिक सिद्धांतों जैसे समानता (आर्टिकल 14), नियुक्ति की प्रक्रिया में समान अवसर (आर्टिकल 16), और जीवन सम्मान (आर्टिकल 21) का पालन करना होगा।

कोर्ट ने कहा कि “आउटसोर्सिंग एक सुविधाजनक ढाल नहीं बन सकती, जिसके माध्यम से अस्थिरता को बनाए रखा जाए और जहां काम स्थायी है, वहां निष्पक्ष नियुक्ति प्रक्रियाओं से बचा जाए।”

न्यायमूर्ति नाथ ने टिप्पणी किया कि “राज्य ( केंद्र और राज्य सरकारें) केवल एक बाजार की भागीदार नहीं है, बल्कि एक संवैधानिक नियोक्ता है। यह उन लोगों की मेहनत पर बजट संतुलित नहीं कर सकता जो सबसे बुनियादी और लगातार किए जाने वाले सार्वजनिक कार्य करते हैं। जहां काम दिन-प्रतिदिन और साल-दर-साल लगातार होता है, वहां संस्थान की स्वीकृत क्षमता और नियुक्ति प्रक्रियाएं उसी वास्तविकता को प्रतिबिंबित करनी चाहिए।”

अदालत ने ज़ोर देते हुए कहा कि “एक संवैधानिक नियोक्ता के रूप में राज्य को उच्च मानकों पर खरा उतरना होगा और उसे अपने स्थायी कार्य करने वाले कर्मचारियों को स्वीकृत ढांचे पर संगठित करना होगा, वैध नियुक्तियों के लिए बजट बनाना होगा, और न्यायिक निर्देशों को पूरी ईमानदारी से लागू करना होगा। इन दायित्वों का पालन करने में देरी मात्र लापरवाही नहीं है, बल्कि यह एक सोची-समझी इनकार की पद्धति है, जो इन कर्मचारियों की आजीविका और गरिमा को नष्ट करती है।

न्यायमूर्ति नाथ ने लिखा कि अस्थायी लेबल के तहत नियमित श्रमिकों की दीर्घकालिक निकासी ने लोक प्रशासन में विश्वास को कम किया है और समान सुरक्षा के वादे को ठेस पहुंचाई है।

यह फैसला उत्तर प्रदेश उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग के दैनिक वेतनभोगी कर्मचारियों द्वारा दायर एक अपील पर आधारित था, जिसका प्रतिनिधित्व अधिवक्ता श्रीराम परक्कट ने किया था।

 

आयोग द्वारा नियमितीकरण की उनकी याचिका को अस्वीकार किए जाने के बाद, उन्होंने वित्तीय तंगी या रिक्तियों की कमी का हवाला देते हुए, सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था। अदालत ने अपील को स्वीकार करते हुए कहा कि “वित्तीय कठोरता का सार्वजनिक नीति में निश्चित रूप से स्थान है, लेकिन यह कोई ऐसा ताबीज नहीं है जो निष्पक्षता, तर्क और कानूनी आधार पर काम को व्यवस्थित करने के कर्तव्य को दरकिनार कर दे।”

मध्यप्रदेश में लाखों अस्थायी आउटसोर्स कर्मचारी विभिन्न विभागों में काम कर रहे हैं, जिनकी नौकरी की कोई सुरक्षा नहीं है न ही उचित वेतन दिया जा रहा है। दिहाड़ी की तरह कर्मचारी काम कर रहे हैं। कम्प्यूटर ऑपरेटरों से उच्च कुशल श्रमिक का काम लिया जा रहा है, मगर वेतन अकुशल श्रमिक का मिल रहा है।ठेका कर्मियों को साप्ताहिक अवकाश दिए बगैर और बिना रिलीवर के 9 से 16 घंटे तक काम कराया जा रहा है।

मध्‍यप्रदेश में कार्यरत 9 लाख से अधिक संविदा और आउटसोर्स कर्मचारी हैं। प्रदेश के 2 लाख 75 हजार आउटसोर्स कर्मचारी 11 महीने से अपने बकाया एरियर के लिए भटक रहे हैं। करीब 350 करोड़ रुपये की यह राशि अटकी पड़ी है, और श्रम न्यायालय के नवंबर 2024 के स्पष्ट आदेश के बावजूद विभागीय अधिकारी और ठेकेदार टालमटोल कर रहे हैं।

कर्मचारियों की शिकायत है कि कई जिलों में पुराने ठेकेदारों के कॉन्ट्रैक्ट खत्म हो चुके हैं, और नए ठेकेदार पुराने बकाया भुगतान की जिम्मेदारी लेने से इनकार कर रहे हैं। आउटसोर्स कर्मचारियों की कमाई पर न केवल उनका, बल्कि उनके परिवारों का भविष्य भी टिका है। 2023 के विधानसभा चुनाव से पहले वर्तमान सरकार ने अपने संकल्प पत्र में आउटसोर्स कर्मचारियों के लिए वेतन वृद्धि और संविदा लाभ का वादा किया था।

मध्यप्रदेश के विधायक हीरालाल अलावा ने कहा कि प्रदेश में अस्थाई और आउटसोर्स कर्मचारियों के साथ अन्याय हो रहा है, जिन्हें पूरा वेतन नहीं दिया जाता। इससे सरकार की मंशा गुलाम बनाने की दिख रही है।

मध्यप्रदेश का श्रम विभाग ने सभी विभाग प्रमुखों को आदेश दिए हैं कि आउटसोर्स एजेंसियों का पंजीयन कर लायसेंस लेना अनिवार्य किया जाए ताकि श्रम कानूनों का उल्लंघन हो तो कार्रवाई की जा सके।

प्रदेश के विभिन्न शासकीय – अर्द्धशासकीय विभागों में कार्यरत 1 लाख से अधिक आउटसोर्स कर्मचारियों और ठेका श्रमिकों को श्रम कानूनों का लाभ आउटसोर्स एजेंसियों को देना होगा। इसके लिए उन्हें श्रम विभाग में पंजीयन कराकर लायसेंस लेने के साथ ही निर्धारित वेतन और सुविधाएं देनी होंगी।

देश के अलग-अलग हिस्सों में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम), जीविका, मनरेगा और अनेक राज्य स्तरीय योजनाएं चल रही हैं, जिनकी नींव इन्हीं संविदा और आउटसोर्सिंग कर्मचारियों के भरोसे टिकी हुई है। लेकिन विडंबना यह है कि इन योजनाओं को ज़मीन पर सफल बनाने वाले कर्मचारियों की आवाज न तो सत्ता के गलियारों में सुनाई देती है, न ही प्रशासन के दफ्तरों में।

संविदा और आउटसोर्सिंग कर्मचारियों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि उनके लिए आज तक कोई नियामक आयोग नहीं बना है और न तो उनके लिए कोई स्पष्ट नीति तय की गई है।यह एक सामाजिक और प्रशासनिक सुधार का मुद्दा है, जिसमें कर्मचारियों के साथ-साथ सेवाओं की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है।

आज समय की मांग है कि संविदाकर्मियों की समस्याओं को केवल “अस्थायी रोजगार” के दृष्टिकोण से न देखा जाए, बल्कि उन्हें व्यवस्था की रीढ़ मानकर स्थायी समाधान निकाला जाए। क्योंकि न्याय केवल उनका अधिकार नहीं, बल्कि व्यवस्था की नैतिक जिम्मेदारी भी है।