
महू छावनी के वार्ड नंबर आठ में रहने वाले शर्मा नाली की गंदगी से परेशान हैं। वे कहते हैं कि इस बारे में वे कई बार छावनी परिषद के लोगों से कह चुके हैं लेकिन इसका कोई असर नहीं हुआ।
कैलाश कहते हैं कि पहले ऐसा नहीं होता था क्योंकि उन्हें छावनी परिषद नहीं बल्कि अपने वार्ड के पार्षद के पास ही जाना होता था और पार्षद छावनी परिषद के लोगों तुरंत बुलाकर समस्या हल करवाते थे लेकिन अब पार्षद नहीं हैं और सब कुछ छावनी परिषद के अधिकारी और कर्मचारियों के हाथ में ही है।
कैलाश अपने इलाके की कई समस्याएं गिनाते हैं, वे कहते हैं कि लोग अब ज्यादा शिकायत नहीं करते क्योंकि छावनी परिषद के अधिकारी या कर्मचारी आपकी कोई भी गलती पकड़ सकते हैं और आप पर कार्रवाई कर सकते
हैं। ऐसे में लोग आगे आकर बात भी नहीं करना चाहते।
कैलाश बताते हैं कि छावनी परिषद में सबसे बड़े अधिकारी यानी सीईओ होते हैं और वे पर कलेक्टर या किसी और मंत्री या मुख्यमंत्री तक का कोई दबाव नहीं होता है।
सीईओ शायद ही कभी जनता के बीच उनकी बात सुनने के लिए निकलते हैं और यही वजह है कि यहां सब कुछ इन सरकारी कर्मचारी और अधिकारियों पर ही निर्भर करता है।
दरअसल ये हाल केवल महू छावनी अकेले में नहीं है बल्कि देश की सभी ६२ छावनी परिषदों का है। इन छावनी परिषदों में आखिरी बार साल २०१५ में चुनाव हुए थे।
साल २०२० में पार्षदों का कार्यकाल बढ़ाने के बाद अगले ही साल बोर्ड भंग कर दिया गया और फिर सरकार ने अपने प्रतिनिधि के रूप में एक नामित सदस्य को चुनकर परिषद में बैठा दिया है।
देश में कुछेक परिषदों में जहां नामित सदस्य नहीं चुने गए हैं वहां के अलावा लगभग सभी जगह नामित सदस्य केंद्र के सत्ताधारी दल के स्थानीय राजनेता हैं। जिन्हें स्थानीय विधायक अथवा सांसद ने अपनी सिफारिश पर रक्षा मंत्रालय के छावनी परिषद मुख्य कार्यालय को भेजा है। ऐसे में अब एक नामित सदस्य की जिम्मेदारी है कि वे परिषद क्षेत्र में आने वाले सभी लोगों की समस्याएं सुनें और उनका समाधान करें।
महू छावनी परिषद क्षेत्र के आठ वार्डों में करीब सवा लाख की जनसंख्या है और इसके लिए स्थानीय भाजपा के नेता शिव शर्मा नामित सदस्य के रूप में चुने गए हैं यानी शर्मा को इस आबादी की समस्याओं का समाधान करना
है। केंद्र सरकार ने नामित सदस्य को बोर्ड उपाध्यक्ष की तरह शक्तियां दी हैं।
नामित सदस्य छावनी परिषद के सीईओ के साथ काम करते हैं और इस बोर्ड का अध्यक्ष होता है छावनी क्षेत्र के स्टेशन कमांडर। इसके अलावा कुछ
और सैन्य अधिकारी भी इसमें शामिल होते हैं। इस तरह बोर्ड में सैन्य अधिकारियों के साथ एक रक्षा विभाग का गैर सैन्य अधिकारी होता है और एक जनता का प्रतिनिधि होता है।
महू छावनी की बात करें तो सवा लाख की आबादी की सुविधाओं के लिए फैसला लेने का अधिकार ज्यादतर सैन्य अधिकारियों, एक सरकारी अधिकारी और सिविल आबादी से आने वाले एक राजनेता को है। जिसे जनता ने नहीं बल्कि सरकार या कहें सरकारी अधिकारियों ने ही चुना है। ऐसे में जनता के पास अपनी बात रखने के लिए अपना चुना हुआ कोई जनप्रतिनिधि ही नहीं है।
यही वजह है कि लोग छावनी परिषद के बारे में सीधे तौर पर बात करने से घबराते हैं। उन्हें डर होता है कि इससे अधिकारी नाराज हुए तो उन पर आफत आ सकती है क्योंकि छावनी। परिषदों के नियम काफी सख्त होते हैं, ये बात अलग है कि नियमों का पालन स्थिति के हिसाब से ही किया जाता है।
इसी छावनी क्षेत्र में रहने वाले एक अन्य रहवासी इस बारे में बात करते हुए अपना नाम गोपनीय रखना चाहते हैं, वे कहते हैं कि उनका घर उनके बढ़ते परिवार के हिसाब से छोटा पड़ रहा है।
बच्चों को अपनी स्पेस की जरूरत होती है लेकिन वे एक और मंजिल नहीं बना सकते क्योंकि छावनी परिषद का कानून जी प्लस टू की इजाज़त ही देता है।
हालांकि महू शहर में नियमों से परे उंची दर्जनों या कहें सैकड़ों इमारतें बनी हैं लेकिन इसके लिए स्थानीय प्रतिनिधि अक्सर लोगों की मदद करते हैं वर्ना लोगों को सीधे छावनी परिषद के अधिकारियों से मिलकर रस्ता निकालना होता है। वे कहते हैं दोनों ही स्थितियां मुश्किल भरी होती हैं लेकिन अगर मध्यस्थ पार्षद होते हैं तो बात कुछ आसान होती है।
अपनी परिस्थितयों के बारे में बात करते हुए ये कहते हैं कि छावनी परिषद में रहने वाले किसी भी नागरिक को पता होता है कि वह बाकी देश के कानूनों से अलग है लेकिन एक बात सभी को जोड़ती है कि वे अपने जनप्रतिनिधि का चुनाव कर सकते हैं लेकिन अब छावनी परिषदों में नागरिकों को ये आजादी भी हासिल नहीं है।
ऐसे में वे खुद को ब्यूरोक्रेसी के अधीन पाते हैं और साथ ही यह अहसास भी होता है कि देश के दूसरे नागरिकों के समान अपने जनप्रतिनिधि चुनने का अधिकार नहीं है।
कैलाश दत्त पांडे बीते ३० वर्षों से छावनी परिषद में पार्षद रहे हैं वे परिषद के वरिष्ठतम पार्षदों में से एक हैं। वे कहते हैं कि सरकार ने चार साल से चुनाव नहीं कराए हैं और इस तरह नागरिकों को किसी भी गैर छावनी क्षेत्र के
नागरिकों के साथ अलग कर दिया गया है क्योंकि यहां के नागरिकों के पास अपने प्रतिनिधि चुनने का अधिकार है।
महू छावनी के वार्ड छह में आने वाली रविदास बस्ती में हर साल घुटनों तक पानी भर जाता है, यह बस्ती अतिक्रमण के रूप में पहचानी जाती है। हालांकि बस्ती करीब पचास साल पुरानी है और अब यहां के नागरिकों को वोट देने का अधिकार भी नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट एक फैसले के तहत छावनी परिषदों में अतिक्रमण कर रह रहे लोगों के वोटिंग अधिकार स्थगित कर दिए गए थे। इसके बाद से छावनी परिषद की मतदाता सूची में से करीब २५ हजार लोगों के नाम कम कर दिए
गए हैं।
महू छावनी में पहले जहां करीब साठ हजार वोटर हुआ करते थे वहां अब केवल पैंतीस हजार के आसपास वोटर हैं। रविदास बस्ती में रहने वाली गीता, जो कचरा बीनने का काम करती हैं वे हमें बताती हैं कि बस्ती के
पास कुछ साल पहले एक रेलवे आरओबी बनाया गया था जिससे पानी की समस्या और भी बढ़ गई है।
बीती बारिश इनके लिए खासी मुश्किल भरी रही है। ये लोग पीने का पानी गड्ढों में लगे नले से भरते हैं, इनमें नालियों में गंदा पानी भरा रहता और इसी में से लोग पीने का पानी भरते हैं। यहां गंदगी और बदबू से लोग परेशान हैं, आम लोगों के लिए कुछ मिनिट भी यहां रहना मुश्किल है।
यहां करीब तीन चार सौ लोगों की आबादी है। ये लोग कहते हैं कि अमूमन इनकी नहीं सुनी जाती क्योंकि वे अतिक्रमण में हैं लेकिन जब तक कोई पार्षद था तो उनकी बात फिर भी सुन ली जाती थी पर अब तो परेशानी और भी बढ़ गई है क्योंकि वे अपनी परेशानी लेकर छावनी परिषद के कार्यालय तक नहीं जा पाते। यहां रहने वाले रमेश कहते हैं कि वे निचले समाज से आते हैं और अब उन्हे लगता है कि उनकी कोई सुनवाई यहां नहीं होगी और आने वाली पीढ़ियां इसी अन्याय के साथ जिएंगी।
लोग बताते हैं कि उन्हें अतिक्रमण में तो बताया जाता है लेकिन यह उनकी मर्जी नहीं मजबूरी है क्योंकि उनके पास कोई स्थान नहीं है और न ही बाकी देश की तरह महू छावनी परिषद में उन्हें आवास योजना आदि का कोई प्रावधान है।
छावनी परिषदों के मामले में पिछले करीब पच्चीस साल से कानूनी लड़ाईयां लड़ने वाले झांसी छावनी परिषद के वकील अनिल बख्शी कहते हैं कि कि ये आदमी के बुनियादी अधिकारों का हनन है, पार्षद तो जनता के प्रतिनिधि हैं। इनके न होने से भ्रष्टाचार बढ़ रहा है क्योंकि जो भी टेंडर लाए जा रहे हैं उन पर अधिकारियों की ही नजर है जनता या उसके प्रतिनिधि इस बारे में कोई खास जानकारी नहीं रखते हैं क्योंकि उनके पास अब जानकारी पहुंच ही नहीं रही है।
ऐसे में न जनता को अपने नेता चुनने की आजादी है और न ही उसे गरिमापूर्ण जीवन मिल पा रहा है और इसके साथ ही परिषदों के लोग दूसरे इलाकों से व्यवस्थाओं के मामले में बिल्कुल कट गए हैं। ऐसे में सीधे तौर पर सरकारी व्यवस्था को फायदा हो रहा है और इसी वजह से चुनाव नहीं करवाए जा रहे हैं।
बख्शी कहते हैं कि बोर्ड को 2021 में भंग कर दिया गया था और इसका कोई ठोस कारण नहीं था और बोर्ड अब तक भंग है जबकि यह नियमों के मुताबिक एकदम गलत है।वे कहते हैं कि छावनी अधिनियम 2006 की धारा 13 की उपधारा 4 के तहत एक साल से ज्यादा बोर्ड भंग नहीं कर सकते।
बख्शी बताते हैं कि इसके खिलाफ देश भर के छावनी परिषदों के लोग कोर्ट जाने की तैयारी कर रहे हैं क्योंकि चुनाव में जानबूझ कर देरी की जा रही है। नामित सदस्य का कार्यकाल छह-छह महीने करके करीब चार बार बढ़ाया गया है।

महू छावनी परिषद क्षेत्र में रहने वाले इंदौर जिले के वरिष्ठ पत्रकार दिनेश सोलंकी कहते हैं कि इस तरह चुनाव न करवाना बेहद ही आपत्तिजनक है क्योंकि जनता से सीधे तौर पर उसका चुनाव का अधिकार छीन लिया गया है। वे
कहते हैं कि यह समता, गरिमामय जीवन और स्वतंत्रता और न्याय जैसे संविधानिक मूल्यों का सीधे तौर पर हनन है। सोलंकी के मुताबिक चुनाव न होने के कारण छावनी परिषद क्षेत्र में भ्रष्टाचार बढ़ गया है, लोगों की सुनवाई
मुश्किल से हो पाती है।