
जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले का असर सिर्फ घटनास्थल तक ही सीमित नहीं रहा। इसने देशभर में फैले उन कश्मीरी छात्रों की ज़िंदगी पर भी असर डाला है जो पढ़ाई या करियर के लिए दूसरे राज्यों में रह रहे हैं। द हिंदू की रिपोर्ट बताती है कि यह हमला न केवल सुरक्षा की चिंता लेकर आया, बल्कि एक बार फिर कश्मीरी पहचान को लेकर शंका और भेदभाव का माहौल बना दिया है।
“कौन हो तुम?” – हर जगह सवाल यही
देश के विभिन्न शहरों में रह रहे कश्मीरी छात्रों को अपनी पहचान को लेकर जवाब देना पड़ रहा है। कुछ छात्रों ने बताया कि वे अब किसी नई जगह जाकर “कश्मीर से हैं” यह बताने से हिचकिचाते हैं क्योंकि तुरंत नज़रों का लहजा और व्यवहार बदल जाता है।
घरों से दूर, अपनों से कटा हुआ और अब अविश्वास की नजरों में
दक्षिण भारत के एक विश्वविद्यालय में पढ़ने वाली छात्रा ने बताया, “पहले हम बस ‘दूर’ थे, अब हम ‘अलग’ हो गए हैं।” कई छात्रों को ऑनलाइन ग्रुप्स से निकाल दिया गया है, हॉस्टलों में उन्हें अलग-थलग कर दिया गया, और कुछ तो सामाजिक बहिष्कार की स्थिति में हैं।
आत्मसम्मान और सुरक्षा दोनों खतरे में
छात्रों को सिर्फ सामाजिक दूरी नहीं, बल्कि शारीरिक खतरे का भी डर सता रहा है। कुछ ने बताया कि वे अब किसी से चर्चा करने से बचते हैं, सार्वजनिक जगहों पर जाने में डर लगता है। एक छात्र ने कहा, “अब हर बार बाहर निकलते समय मन में सवाल आता है कि क्या हम सुरक्षित हैं?”
शिक्षा संस्थानों की भूमिका सवालों के घेरे में
जहां कुछ विश्वविद्यालयों ने कश्मीरी छात्रों को काउंसलिंग और मनोवैज्ञानिक सहायता प्रदान करने के प्रयास किए हैं, वहीं कई संस्थानों ने न तो कोई सार्वजनिक समर्थन दिया और न ही कोई नीतिगत स्पष्टीकरण जारी किया। इससे छात्रों में यह भावना भी गहराई है कि वे संस्था के भीतर भी अकेले हैं।
राजनीतिक व सामाजिक माहौल से और बढ़ी परेशानी
हमले के बाद सोशल मीडिया और राजनीतिक बयानबाजी ने भी हालात को और तनावपूर्ण बना दिया है। ट्रोलिंग, आरोप और गैर-जिम्मेदार टिप्पणियों ने इस डर को और गहरा किया है कि “हर कश्मीरी संदिग्ध है”।
कश्मीर के लिए पढ़ाई छोड़ने का डर
रिपोर्ट के अनुसार, कुछ छात्रों ने कश्मीर लौटने तक की योजना बनाई है। हालांकि वे जानते हैं कि यह उनकी पढ़ाई और करियर के लिए हानिकारक होगा, लेकिन मानसिक असुरक्षा और सामाजिक अलगाव उन्हें पीछे धकेल रहा है।
समाधान क्या है?
विशेषज्ञ मानते हैं कि संस्थानिक स्तर पर संवाद और समर्थन बेहद ज़रूरी है। छात्रों को काउंसलिंग, सुरक्षा और सार्वजनिक आश्वासन मिलना चाहिए। साथ ही यह भी ज़रूरी है कि आम नागरिक कश्मीर को सिर्फ एक संवेदनशील क्षेत्र नहीं, बल्कि एक समृद्ध सांस्कृतिक हिस्से के रूप में देखें।