बालाघाट में ‘घेरा डालो-डेरा डालो’ आंदोलन की शुरुआत — वनग्रामों के विस्थापन और जल-जंगल-जमीन की लड़ाई को लेकर आदिवासी समाज एकजुट


बालाघाट, मंडला और डिंडोरी के आदिवासी समाज ने वनग्रामों के विस्थापन, जल-जंगल-जमीन और वनाधिकार कानून को लेकर ‘घेरा डालो–डेरा डालो’ आंदोलन शुरू किया। जन संघर्ष मोर्चा महाकौशल और कई संगठनों के बैनर तले ग्रामीणों ने अपनी समस्याएं रखीं।


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उनकी बात Published On :

मध्यप्रदेश के महाकौशल क्षेत्र में वनग्रामों के विस्थापन, प्राकृतिक संपदा के दोहन और प्रशासनिक अनियमितताओं के खिलाफ आदिवासी समाज ने आज से दो दिवसीय ‘घेरा डालो–डेरा डालो’ आंदोलन की शुरुआत की। बालाघाट, मंडला और डिंडोरी जिलों के सैकड़ों ग्रामीण जन संघर्ष मोर्चा महाकौशल के बैनर तले एकजुट होकर बालाघाट जिला मुख्यालय पहुंचे, जहां अंबेडकर चौक पर जनसुनवाई का आयोजन किया गया।

यह आंदोलन जन संघर्ष मोर्चा महाकौशल, मध्यप्रदेश आदिवासी विकास परिषद, मध्यप्रदेश किसान संगठन, पेसा सशक्तिकरण मिशन, बरगी बांध विस्थापित संघ, मध्यप्रदेश आदिवासी एकता महासभा, और चुटका परमाणु विरोधी संघर्ष समिति जैसे संगठनों के संयुक्त तत्वावधान में शुरू किया गया है।

आदिवासी समाज ने कहा — वनाधिकार छीनने की साजिश बर्दाश्त नहीं

सभा में शामिल ग्रामीणों ने कहा कि सरकार वनग्रामों को विस्थापित कर पूंजीपतियों को जंगल सौंपने की तैयारी में है। वनाधिकार कानून 2006 के तहत उन्हें भूमि का हक मिलना चाहिए था, लेकिन इसके उलट सरकार बेदखली की कार्रवाई कर रही है।
मध्यप्रदेश आदिवासी विकास परिषद के अध्यक्ष दिनेश धुर्वे, जन संघर्ष मोर्चा के विवेक पवार, राज कुमार सिन्हा, मंशा राम मंडावी, राम नारायण कुररिया और अंजना कुररिया ने सभा को संबोधित करते हुए कहा कि यदि विस्थापन की प्रक्रिया नहीं रोकी गई तो आदिवासी समाज व्यापक आंदोलन करेगा।

 

जनसुनवाई में ग्रामीणों ने रखी अपनी व्यथा

बालाघाट, मंडला और डिंडोरी के ग्रामीणों ने जनसुनवाई में अपनी समस्याएं रखीं। उन्होंने बताया कि वन विभाग और राजस्व विभाग के आंकड़ों में भारी गड़बड़ियाँ हैं। बैहर क्षेत्र के लगभग 55 वनग्रामों को रिज़र्व फॉरेस्ट घोषित करने की प्रक्रिया चल रही है, जिससे आदिवासियों के जीवन पर संकट मंडरा रहा है। ग्रामीणों ने कहा कि रिज़र्व फॉरेस्ट घोषित होने के बाद उन्हें जंगल में प्रवेश और संसाधनों के उपयोग का अधिकार समाप्त हो जाएगा।

जन संघर्ष मोर्चा ने यह भी आरोप लगाया कि सरकार प्राकृतिक संपदा के अंधाधुंध दोहन की छूट पूंजीपतियों को दे रही है, जबकि स्थानीय लोग बेरोज़गारी, गरीबी और विस्थापन का दर्द झेल रहे हैं।

9 अक्टूबर को सौंपा जाएगा ज्ञापन

आंदोलन के दूसरे दिन यानी 9 अक्टूबर को आदिवासी समाज की ओर से प्रशासन को ज्ञापन सौंपा जाएगा। ज्ञापन में मांग की जाएगी कि —

  • वनग्रामों का जबरन विस्थापन तुरंत रोका जाए।

  • पूर्व के विस्थापित परिवारों को मुआवज़ा और पट्टा प्रक्रिया पूर्ण की जाए।

  • वनाधिकार कानून 2006 को प्रभावी रूप से लागू किया जाए।

  • पूंजीपतियों द्वारा प्राकृतिक संपदा के दोहन पर रोक लगाई जाए।

“यह आंदोलन किसी एक संगठन का नहीं, पूरे आदिवासी समाज का है”

सभा में वक्ताओं ने कहा कि यह आंदोलन किसी एक संगठन का नहीं बल्कि पूरे आदिवासी समाज की आवाज़ है। आदिवासी समाज जल, जंगल और जमीन पर अपने पारंपरिक अधिकारों की रक्षा के लिए एकजुट है। अगर प्रशासन ने जल्द ही उचित कदम नहीं उठाए तो आंदोलन को और व्यापक किया जाएगा।



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