
कल्पना कीजिए कि आप बार-बार सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाते हैं, आवेदन देते हैं, जनप्रतिनिधियों से निवेदन करते हैं—लेकिन नतीजा वही ‘शून्य’ रहता है। क्या करेंगे आप? शायद थककर बैठ जाएंगे, शायद गुस्से में सरकार को कोसेंगे… लेकिन मध्यप्रदेश के बालाघाट जिले के एक छोटे से गांव खैरलांजी ने कुछ अलग किया।
इस गांव के लोगों ने उम्मीदें टूटने के बाद हार नहीं मानी। उन्होंने प्रधानमंत्री द्वारा बार-बार बोले गए आत्मनिर्भर भारत के मंत्र को सचमुच जमीन पर उतारा—अपने गांव की सड़क खुद बना डाली।
13 साल, कई आवेदन, और अंत में—एक फावड़ा
बालाघाट जिले के कटंगी विकासखंड के ग्राम पंचायत आंबेझरी के अंतर्गत आने वाला गांव खैरलांजी वर्षों से सड़क के लिए जूझता रहा। सरपंच से लेकर सांसद तक सबके दरवाजे खटखटाए गए। फॉर्म भरे गए, ज्ञापन सौंपे गए, लेकिन सिस्टम की चुप्पी बनी रही।
गांववाले अब थक चुके थे—लेकिन टूटे नहीं। उन्होंने तय किया कि वे अब किसी ‘स्कीम’ या ‘फंड’ का इंतजार नहीं करेंगे। ढाई किलोमीटर लंबी सड़क, जो उनके जीवन की सबसे ज़रूरी ज़रूरत थी, उसे अब वे खुद बनाएंगे।
हर घर से सहयोग, हर हाथ से श्रमदान
गांव के लगभग 110 घरों से लोगों ने अपनी सामर्थ्य के अनुसार चंदा दिया—किसी ने ₹200, किसी ने ₹500। सिर्फ पैसा नहीं, पसीना भी बहाया गया। महिलाएं, बच्चे, बुजुर्ग—सबने मिलकर रास्ता समतल किया, मिट्टी डाली और कुदालें चलाईं।
गांव के सुरेंद्र भलावी बताते हैं कि इस कार्य में गांव आने-जाने वाले फेरीवाले और दूसरे बाहरी लोग भी सहयोग दे रहे हैं। गांव के लिए यह महज एक सड़क नहीं, बल्कि स्वाभिमान की रेखा बन चुकी है।
जिसने वादा किया था, अब उसी को बुलाया जाएगा उद्घाटन के लिए
गांववालों की पीड़ा का एक और अध्याय है—राजनीतिक वादाखिलाफी। दिसंबर 2024 में गांव में एक व्यक्ति की बाघ के हमले में मौत हो गई थी। इसके बाद गांव में विधायक पहुंचे और वादा किया कि एक महीने में सड़क बनवाकर देंगे।
आज जून 2025 है—सड़क नहीं आई, न विधायक। लेकिन ग्रामीणों ने अब चुटकी लेते हुए कहा है—अब हम विधायक महोदय को उद्घाटन के लिए बुलाएंगे।
उप
यह सड़क किसी नाराजगी की नहीं, हक की कहानी है
इस गांव ने कभी सरकारी उदासीनता के विरोध में चुनाव बहिष्कार तक किया। फिर भी सड़क नहीं मिली। सरकारी दफ्तरों की फाइलों में उनकी मांगें धूल फांकती रहीं। लेकिन अब उन्होंने ठान लिया है कि ये सड़क सिर्फ उनके गांव की ज़रूरत नहीं, उनकी गरिमा का प्रतीक है।
बारिश में ‘कैद’ हो जाता है गांव
खैरलांजी की भौगोलिक स्थिति भी इसकी समस्या को और गंभीर बना देती है। तीन ओर से जंगल और एक ओर पानी से घिरा यह गांव बरसात में पूरी तरह से कट जाता है।
पहले एक पक्की सड़क और पुल था—लेकिन जब राजीव सागर डैम बना, तो वो सड़क और पुल दोनों जलमग्न हो गए। अब जंगल का रास्ता ही एकमात्र ज़रिया है, जो बारिश में अक्सर बंद हो जाता है।
एम्बुलेंस नहीं आ सकती। गर्भवती महिलाओं और बीमारों के लिए यह गांव एक खुला जेल बन जाता है।
प्रशासन की प्रतिक्रिया—’मैं कलेक्टर हूं, हर बाइट नहीं दे सकता’
जब इस विषय पर कलेक्टर से बात करने की कोशिश की गई, तो लगभग 90 मिनट इंतजार के बाद उन्होंने पत्रकार से यह कहकर किनारा कर लिया कि—
“मैं कलेक्टर बना हूं, इसका मतलब ये नहीं कि हर मामले पर बाइट दूं। जिला पंचायत सीईओ से बात करिए।”
प्रशासन की यह बेरुखी शायद इसी व्यवस्था का सारांश है, जिससे जूझते-जूझते एक गांव ने खुद अपना रास्ता बना लिया।
यह सिर्फ सड़क नहीं, एक घोषणा है
खैरलांजी गांव की यह कहानी सिर्फ एक लोकल न्यूज़ स्टोरी नहीं है—यह एक प्रतीकात्मक घोषणा है कि अगर सिस्टम चुप है, तो लोग अब खुद बोलेंगे। और जब लोग बोलते हैं, तो वो सिर्फ आवाज़ नहीं होती—वो इन्कार भी होता है, और निर्माण भी।