
जल ही जीवन है’ ये नारा हम सबने बचपन से सुना है, लेकिन बुन्देलखण्ड के कई गांव ऐसे हैं जहां ये नारा बस एक जुमला बनकर रह गया है। पानी की किल्लत यहां इतनी ज्यादा है कि लोग पीने का पानी जुटाने के लिए भी रोज संघर्ष करते हैं। उत्तर प्रदेश के चित्रकूट जिले के मानिकपुर ब्लॉक की चुरेह ग्राम पंचायत का हरिजनपुर गांव दशकों से इसी पीड़ा से जूझ रहा है।
हरिजनपुर की कहानी कोई नई नहीं है, लेकिन तकलीफ अब बढ़ती जा रही है। यहां के लोग खासकर महिलाएं और बच्चे गर्मियों के दिनों में कई किलोमीटर तक पैदल चलकर जंगलों और पहाड़ों के झरनों से पानी लाते हैं। कई बार यह सफर सूरज डूबने के बाद भी खत्म नहीं होता। मानिकपुर का यह पूरा इलाका पथरीली धरती और कम वर्षा वाला है, जिससे यहां जल स्रोत बहुत सीमित हैं।
गांव की ज़मीन ऐसी है कि बरसात का पानी टिकता नहीं, और जो कुएं व हैंडपंप कभी गांव की रीढ़ हुआ करते थे, वो अब या तो सूख चुके हैं या खराब हो गए हैं। गर्मी आते ही यहां की ज़िंदगी ठहर सी जाती है। हैंडपंपों से पानी की जगह अब सिर्फ आवाज़ आती है। लोग एक-एक बाल्टी पानी के लिए घंटों इंतज़ार करते हैं। कुछ लोग तो रात के आठ से दस बजे तक अपनी बारी का इंतजार करते रहते हैं।
जल जीवन मिशन अधूरा!
केंद्र सरकार ने साल 2024 तक भारत की सभी ग्रामीण इलाकों में पानी पहुंचाने की योजना बनाई थी जिसे जल जीवन मिशन कहते हैं। लेकिन बुंदेलखंड के गांवों को देखें तो मिशन अधूरा ही दिखाई देता है।
इस गांव में भी जल जीवन मिशन की योजना आई ज़रूर थी, पर उसका कोई असर नज़र नहीं आता। लोगों का कहना है कि कई बार ग्राम प्रधान और ब्लॉक अधिकारियों से शिकायत की गई, लेकिन आज तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। टैंकर अगर कभी आता भी है, तो महीने में एक-दो बार। वह भी इतना कम पानी लेकर आता है कि पूरे गांव के लिए नाकाफी होता है।
केवल हरिजनपुर ही नहीं, चुरेह ग्राम पंचायत के अन्य गांव जैसे खदरा, नई बस्ती, केशरूवा और सुखरामपुर भी जल संकट की चपेट में हैं। यहां के लोगों का कहना है कि प्रधानमंत्री द्वारा चलाई जा रही जल जीवन मिशन योजना का पानी उनके गांव तक तो क्या, उनकी पंचायत की सीमा में भी नहीं पहुंचा।
इस समस्या का सबसे ज्यादा असर महिलाओं और बच्चों पर पड़ रहा है। कई महिलाएं ऐसी हैं जिनकी शादी को अभी दो महीने भी नहीं हुए हैं और वे भी पानी भरने के लिए लाइन में खड़ी हैं। बच्चे स्कूल जाने की उम्र में पानी के पीछे दौड़ रहे हैं। कई बार जब पानी खत्म हो जाता है या हैंडपंप से गंदा पानी आने लगता है, तो लोग उसी को छानकर पीने को मजबूर होते हैं। इस वजह से बीमारियां फैल रही हैं, खासकर छोटे बच्चों और बुजुर्गों में।
कुंए बना स्टोरेज टंकी
कुछ गांवों में लोग चंदा करके दूसरे गांवों से पानी के टैंकर मंगवाते हैं और गांव के कुएं में डलवाते हैं ताकि कुछ दिन गुजारा हो सके। एक तरह से कुआं यहां पानी को संग्रहित कर रखने के लिए टंकी बनकर रह गया है। इसी तरह हरिजनपुर में दो नल और एक कुआं है, लेकिन भीड़ इतनी होती है कि कई बार लोग बिना पानी लिए ही लौट जाते हैं।
सुखरामपुर गांव की हालत भी इससे अलग नहीं है। वहां दो हैंडपंप खराब पड़े थे, जिन्हें चंदा करके समरसेबल पंप लगवाकर चालू किया गया। अब उसी एक पंप से पूरे गांव का पानी भरता है। एक दूसरा हैंडपंप गांव के कोने में है, जिससे आस-पास के लोग अपना काम चलाते हैं।
पानी की किल्लत से जुड़ी इस तकलीफ के साथ दूसरी बड़ी समस्या है बेरोजगारी और पलायन। यहां के अधिकतर लोग खेती पर निर्भर थे, लेकिन अब जब बारिश नहीं होती, और खेत सूखे रहते हैं, तो खेती की उम्मीद भी जाती रहती है। गांव में रोजगार का कोई साधन नहीं है, न कोई उद्योग, न ही कोई स्वरोजगार की योजना यहां तक पहुंची है।
गांव के कुछ लोग अपने पूरे परिवार को लेकर शहरों की ओर पलायन कर चुके हैं। उनका कहना है कि अगर बच्चों को प्यास से मरते हुए देखना है, तो उससे अच्छा है कि शहर में जाकर मजदूरी करें लेकिन बच्चों को दो वक्त का पानी और रोटी तो मिले। शहरों में ये लोग ईंट भट्टों, सड़कों पर मजदूरी या दिहाड़ी पर काम करके गुजर-बसर करते हैं।
शिक्षा को बाधित कर रहा है पानी का न होना
पलायन का असर बच्चों की पढ़ाई पर भी पड़ रहा है। एक ग्रामीण ने बताया कि गांव का कोई भी बच्चा आज तक 12वीं पास नहीं कर पाया है। बच्चे खुद कहते हैं कि जब पढ़ाई करके भी मजदूरी ही करनी है, तो फिर क्यों पढ़ें? माता-पिता भी यही मानते हैं कि बच्चों को पढ़ाने से अच्छा है कि अभी से हाथ बंटाएं।
शहरों में जाकर सालों तक गांव से दूर रहने के कारण इन लोगों की ज़मीनों पर भी कई बार दबंगों द्वारा कब्जा कर लिया जाता है। उन्हें कानूनी जानकारी नहीं होती, न कोई सहायता मिलती है। ऐसे में वे बस अपनी ज़िंदगी की गाड़ी खींचते रहते हैं – किसी तरह।
हरिजनपुर की यह कहानी अकेली नहीं है। यह बुन्देलखण्ड के सैकड़ों गांवों की हकीकत है, जो हर गर्मी में खुद को सरकार की योजनाओं से ठगा हुआ महसूस करते हैं। अगर कोई योजना गांव तक नहीं पहुंचे, तो उसका मतलब क्या?
प्रशासन की बेरूख़ी
ग्रामीणों का यह भी कहना है कि जब भी चुनाव आते हैं, नेताओं को उनके गांवों की याद आ जाती है। पानी, बिजली, सड़क जैसे वादे किए जाते हैं, लेकिन चुनाव बीतते ही सब भूल जाते हैं। प्रशासनिक अमला यहां कभी कभार झांकी दिखाने आता है, लेकिन स्थायी समाधान के लिए कोई प्रयास नहीं किया जाता। प्रशासन की इस बेरुखी से लोग परेशान हैं। वह कहते हैं कि अधिकारी अब हमारी स्थिति को लेकर सब कुछ जानते हैं लेकिन समाधान की मंशा उनकी नहीं लगती। इस बारे में हमने अधिकारियों से भी बात करने का प्रयास किया लेकिन ये संभव नहीं हो सका।
गांव की महिलाओं का कहना है कि पानी की इस पीड़ा से उनकी पूरी दिनचर्या प्रभावित होती है। दिन का बड़ा हिस्सा पानी की तलाश में बीत जाता है, जिससे घर और बच्चों की देखभाल तक नहीं हो पाती। महिलाओं की स्थिति और भी खराब कहीं जा सकती है क्योंकि वह किसी भी तरह की स्वास्थ्य समस्या से जूझ रहीं हों घर के काम के लिए पानी की जरूरत तो पूरी करनी ही होती है। ऐसे में कहा जाए तो पानी यहां कई बड़ी समस्याओं का कारण बन रहा है।