
सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को एक ऐतिहासिक फैसले में कहा कि आदिवासी महिलाओं को केवल उनके लिंग के आधार पर पैतृक संपत्ति से वंचित करना असंवैधानिक और अन्यायपूर्ण है। यह निर्णय छत्तीसगढ़ की एक आदिवासी महिला द्वारा दायर याचिका पर आया, जिसने अपने नाना की संपत्ति में हिस्सेदारी की मांग की थी।
परिवार के पुरुष सदस्यों ने दावा किया कि आदिवासी प्रथाओं के अनुसार महिलाओं को उत्तराधिकार का अधिकार नहीं होता। निचली अदालतों और हाईकोर्ट ने भी इसी तर्क पर निर्णय दिया। लेकिन सुप्रीम कोर्ट की पीठ—न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची—ने यह दृष्टिकोण खारिज कर दिया और कहा कि जब तक किसी परंपरा या प्रथा को सिद्ध न किया जाए, तब तक समानता के सिद्धांत को लागू माना जाएगा।
संविधान की कसौटी पर परंपरा
न्यायालय ने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 15 (लिंग के आधार पर भेदभाव निषेध) आदिवासी समुदायों पर भी लागू होते हैं। अदालत ने इस बात पर बल दिया कि कोई भी परंपरा या रीति-नीति, यदि वह मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है, तो उसे बरकरार नहीं रखा जा सकता।
सामाजिक प्रतिक्रिया: राज कुमार सिन्हा की टिप्पणी
राज कुमार सिन्हा, जो बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ से जुड़े हैं, ने इस फैसले पर टिप्पणी करते हुए कहा:
“न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया है कि जब कोई परंपरा संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों के विरुद्ध जाती है, तो वह मान्य नहीं हो सकती। यह फैसला आदिवासी समाज में महिलाओं की आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता को नई दिशा देगा।”
उन्होंने आगे कहा:
“आदिवासी परंपरा की जब भी बात होती है, तो केवल रिवाजों की नहीं, बल्कि सामूहिकता, समता और प्रत्यक्ष लोकतंत्र की बात करनी चाहिए। यह फैसला उन रूढ़ियों को तोड़ने में मदद करेगा जो महिलाओं को अधिकार से वंचित करती हैं।”
यह फैसला आदिवासी समुदायों में महिलाओं के समान अधिकार की बहस को नई ऊर्जा प्रदान करता है। सुप्रीम कोर्ट ने यह साफ किया कि कानून की चुप्पी को असमानता की मंज़ूरी नहीं माना जा सकता। अब यह जिम्मेदारी सरकारों, पंचायतों और समाज की है कि वे इस संवैधानिक मार्गदर्शन को व्यवहार में उतारें।