बिहार का अभिभावक या सत्ता का स्थायी किरायेदार? — नीतीश कुमार के बीस साल और एनडीए की नई उलझन


बीस साल से सत्ता में नीतीश कुमार अब भी बिहार के केंद्र में हैं — क्या जनता उनका जादू तोड़ेगी या यह राज्य अब भी उसी अभिभावक के भरोसे रहेगा?


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राजनीति Updated On :

बिहार की राजनीति में यह शायद सबसे अजीब वक्त है — जब जनता नीतीश कुमार से थकी भी है, पर विकल्प की कमी में उन्हीं को फिर स्वीकार करने को तैयार भी दिखती है। बीस सालों से सत्ता में रहने के बावजूद, नीतीश कुमार आज भी एनडीए की सबसे बड़ी ज़रूरत हैं — और सबसे बड़ी मुश्किल भी।

‘वो गलत नहीं हो सकते’ — एक धारणा की उम्र बीस साल

मोतिहारी से लेकर पटना तक, जब मतदाताओं से नीतीश कुमार पर सवाल किया जाता है, तो जवाबों में अजीब तरह का संतोष झलकता है।
लोग उनके बार-बार पलटी खाने को भूल जाते हैं, स्वास्थ्य पर उठते सवालों को मीडिया का शोर कहकर टाल देते हैं, और उनके चेहरे पर ‘ईमानदार मुख्यमंत्री’ का पुराना ठप्पा अब भी चमकता दिखाई देता है।

गाँवों में महिलाओं का भरोसा अब भी नीतीश के पक्ष में है।
2006 की मुख्यमंत्री साइकिल योजना से लेकर 50% आरक्षण और शराबबंदी तक, इन योजनाओं ने नीतीश को “महिलाओं के मसीहा” की छवि दी।
चमपारण की एक महिला कहती है —

“अगर नीतीश नहीं होते तो हम आज भी घर से बाहर नहीं निकल पाते।”

यह वही भावनात्मक पूंजी है, जिसके सहारे नीतीश सत्ता की सीढ़ियाँ बार-बार चढ़ते रहे हैं।

बीजेपी की दुविधा — ज़रूरत भी, झुंझलाहट भी

बीजेपी के लिए नीतीश कुमार एक ऐसा सहयोगी हैं, जो न छोड़ा जा सकता है, न पूरी तरह अपनाया जा सकता है।
2020 में जिस पार्टी ने जेडी(यू) से 31 सीटें ज़्यादा जीती थीं, वही आज फिर उन्हें मुख्यमंत्री चेहरा बनाकर चुनाव लड़ रही है।
क्योंकि सच्चाई यह है कि बिहार में बीजेपी के पास आज भी कोई “चेहरा” नहीं है।

पार्टी के शीर्ष नेता — सम्राट चौधरी, दिलीप जायसवाल और मंगल पांडे — खुद आरोपों से घिरे हैं।
एक बीजेपी सांसद तक मानते हैं कि —

“हम नीतीश पर निर्भर हैं क्योंकि जनता में अभी भी वही भरोसे का नाम हैं।”

पार्टी के पास मोदी, अमित शाह और योगी की रैलियाँ हैं, पर बिहार के भीतर “दिल” अब भी नीतीश के पास है।

‘जन सुराज’ और ‘जनादेश’ के बीच

2020 में चिराग़ पासवान ने नीतीश को जितना नुकसान पहुँचाया था, इस बार वैसा ही खतरा ‘जन सुराज’ के प्रशांत किशोर से है।
लेकिन यहाँ भी समीकरण नीतीश के पक्ष में झुकता दिख रहा है, क्योंकि एनडीए अब एकजुट दिखाना चाहता है — भले भीतर से वह बिखर रहा हो।

नीतीश के आलोचक कहते हैं कि वो बिहार के “अभिभावक” नहीं बल्कि “सत्ता के स्थायी किरायेदार” बन चुके हैं।
हर पांच साल में नई चाबी, नया दरवाज़ा — लेकिन मकान वही।

महागठबंधन की मुश्किल — घर के भीतर का बिखराव

विपक्ष यानी ‘महागठबंधन’ में फिलहाल रणनीति से ज़्यादा तनाव है।
राहुल गांधी और तेजस्वी यादव की जोड़ी जिसने ‘वोट अधिकार यात्रा’ में एकजुटता का संदेश दिया था, वह पहले ही चरण में बिखरती दिखी।
तेज प्रताप यादव अपनी अलग पार्टी के साथ मैदान में हैं और कांग्रेस से सीट बंटवारे पर नाराज़गी अब भी बाकी है।

यह वही गठबंधन है, जिसने 2020 में सिर्फ़ 0.03% कम वोट पाकर सरकार गँवाई थी — और अब अपने ही अंदर की दरारों से जूझ रहा है।

नीतीश का जादू या बिहार की आदत?

बिहार के वोटर, चाहे वे लालू समर्थक हों या बीजेपी मतदाता, एक बात पर सहमत हैं —

“नीतीश जी गलत नहीं हो सकते।”

यह वाक्य ही शायद बिहार की राजनीति की सबसे बड़ी विडंबना है। क्योंकि इसी भरोसे ने बिहार को स्थिरता दी भी है और ठहराव भी।

नीतीश ने अपराध पर नियंत्रण और बुनियादी ढांचे के विकास में काम किया, यह कोई नहीं झुठलाता। पर बीस साल बाद सवाल यह भी उठता है —
क्या बिहार को अब भी एक ही चेहरा चाहिए?
या अब यह राज्य अपने ही ‘अभिभावक’ से स्वतंत्र होने की हिम्मत जुटा पाएगा?

राजनीति में कुछ चेहरे सत्ता नहीं छोड़ते — बल्कि सत्ता उन्हें छोड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाती।
नीतीश कुमार उन्हीं में से एक हैं।
बिहार के मतदाता इस बार फिर वही पुराना सवाल पूछ रहे हैं —

“विकल्प क्या है?”


और शायद यही सवाल नीतीश का सबसे बड़ा उत्तर है।

Indian Express से साभार



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