आम चुनाव 2024 में लोगों को फिर तरह-तरह के सब्जबाग दिखाए जा रहे हैं। आसमान से तारे तोड़कर मतदाताओं के कदमों में बिछाने जैसे वादे और नारे हैं लेकिन कोई भी राजनीतिक पार्टी और उनके प्रत्याशी नदी, जंगल और पहाड़ बचाने की बात नहीं कर रहे उनके एजेंडे से नदी,पहाड़, जंगल नदारद हैं। मप्र के ज्यादातर हिस्सों में जहां पर्यावरण के खतरे मौजूद हैं वहां चुनाव का मुद्दा ये हैं ही नहीं, बल्कि वहां प्रत्याशी राष्ट्रवाद और अपने नेता के नाम पर ही वोट मांग रहे हैं।
मध्य प्रदेश नदियों का प्रदेश है। यहा की जीवनरेखा नर्मदा नदी है। इसके अलावा बेतवा, हिरण, क्षिप्रा, बाणगंगा, शेड, शक्कर, दूधी मंदाकिनी, चरण गंगा, तमस, सतना, कटनी, माचारेवा, सीता रेवा जैसी कई नदियां हैं। इनसे लगे पहाड़ हैं, सतपुड़ा , विंध्याचल की श्रेणियां है। पर्वत श्रेणियां में सजे जंगल हैं।
इस सब प्राकृतिक संपदा होने के बावजूद पिछले करीब दो-ढ़ाई दशकों से इनकी ओर से ध्यान नहीं दिया गया और इसका असर ये हुआ कि इन नदियों, पहाड़ों और जंगलों का भयंकर दोहन हुआ।
यह सवाल जब मध्यप्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार एवं सप्रे संग्रहालय के संस्थापक पदमश्री विजयदत्त श्रीधर से किया गया तो उनका कहना रहा कि यह तीन बातें समझ लीजिए । पहली नदियों की रेत, पहाड़ों से गिट्टी बनाने का धंधा और विकास के नाम पर पेड़ों की अंधाधुंध कटाई यह तीन मामले राजनीति के लोग, प्रशासन और कारोनारियों से जुड़े हैं, उनकी अंधाधुंध कमाई का जरिया है। यह उनकी आमदनी के पांव है इसलिए वह अपने पैर में कुल्हाड़ी नहीं मारेंगे।
वह बातें जरूर कर सकते हैं लेकिन कोई ठोस काम करना पसंद नहीं करेंगे। हर राजनीतिक दल इन मामलों में एक ही थाली के चट्टे बट्टे हैं। आप इनसे उम्मीद भी मत कीजिए। चाहे नर्मदा संकट में हो या फिर गंगा, जिसे जीवित इकाई का दर्जा देकर करोड़ों खर्च कर दिए गए लेकिन स्थिति जस की तस है।
वह कहते हैं कि हां, हमें यह जरूर करना चाहिए कि हमें इनके चित्र, तस्वीर संभालना चाहिए ताकि हम आने वाली पीढ़ी को यह बता सके की नदी ऐसी होती थी । पहाड़ जंगल ऐसे होते थे । ठीक वैसे , जैसे अब कुआं देखने को भी नहीं मिलते ।
सतना में चित्रकूट की मंदाकिनी के संरक्षण के लिए लंबे समय से प्रयास करने वाले उच्च न्यायालय जबलपुर के अधिवक्ता नित्यानंद मिश्रा कहते हैं कि हम धार्मिकता का प्रदर्शन जरूर करते हैं पर धार्मिक है नहीं । किसी भी पार्टी के नेता मनरेगा , खाधान्न की गारंटी की बात तो करेंगे लेकिन नदी, पहाड़ जंगल बचाने की कोई बात नहीं कर सकता।
चित्रकूट की मंदाकिनी की दुर्दशा पर जब सतना सांसद गणेश सिंह से सवाल किया गया तो उन्होंने व्यस्त होने का हवाला देते हुए कहा कि हम इसके लिए प्लान बना रहे हैं । नरसिंहपुर पीजी कॉलेज में पदस्थ प्रोफेसर डॉ. स्वाति चांदौरकर, जिन्होंने कुछ समय पहले नर्मदा परिक्रमा की, वह कहती हैं कि नर्मदा की स्थिति सही में चिंताजनक है । गुजरात तरफ बढ़ते हैं तो वहां दो, दो-तीन तीन मंजिल जैसे रेत की ढेर लगे हैं । नर्मदा प्रदूषित हो रही है। ग्लोबल वार्मिंग का भी असर है। इसे चुनावी मुद्दे से ऊपर एक आंदोलन बनाए जाने की जरूरत है।
सतना के पत्रकार राजेश द्विवेदी कहते हैं कि चित्रकूट में मंदाकिनी के चारों तरफ अतिक्रमण और कई साधु महात्माओं के खुल गए बहुत से आश्रम, होटल से निकलने वाला कचरा ,गंदगी सब कुछ उसमें समा रहा है। किसी को कोई चिंता नहीं है कि राम के समय की मंदाकिनी को बचाना मानव जीवनकी सभ्यता संस्कृति को बचाना है। नेता राम की बात जरूर करेंगे लेकिन राम के समय की मंदाकिनी को बचाने की बात करना राजनीति के लोगों के लिए बेमानी है।
नरसिंहपुर के पत्रकार अमर नौरिया कहते हैं कि नर्मदा के अंदर से निकाली जा रही रेत पानी की थामने की नदी की तलहटी को क्षतिग्रस्त कर रही है। नर्मदा में जलकुंभी पनप रही है जिससे पानी में ऑक्सीजन की मात्रा कम हो रही है और जिले की सभी नदियों के लगभग यही हाल हैं जो दम तोड़ रही हैं।
नर्मदा पर शोध करने वाले डॉ. अर्जुन शुक्ला का शोध निष्कर्ष है कि नर्मदा में मछलियों की 20 प्रकार की प्रजातियां , वनस्पति की करीब 50 और विभिन्न जीव जंतुओं की 100 से अधिक प्रजातियां विलुप्त हो गई हैं। रेत का अत्यधिक उत्खनन, तटीय क्षेत्रों में वृक्षों की कटाई, भूक्षरण नदी में प्रदूषण फैला रहा।
मप्र में प्राकृतिक संपदा अच्छी है लेकिन इसकी पूछ परख नहीं। नर्मदा का पानी शायद ज्यादातर शहरों को चाहिए लेकिन नर्मदा की चिंता किसी को नहीं क्योंकि यह राष्ट्रीय दलों के लिए फायदेमंद नहीं है क्योंकि जनता की रुचि भी इसमें नहीं है। प्रदेश के ज्यादातर हिस्से पानी की कमी से जूझ रहे हैं और आने वाले दिनों में यहां गंभीर जल संकट की स्थितियां दिखाई दे रही हैं। बुरहानपुर जैसे इलाकों में बड़े पैमाने पर जंगल खत्म हो गया लेकिन यह चुनावी मुद्दा नहीं है और ऐसा भी तब हो रहा है इन परिवर्तनों का प्रभाव वहां के लोगों के जीवन पर सबसे ज्यादा पड़ रहा है।