मोदी के बाद ये ‘3’ नेता कर सकते हैं बड़ा उलटफेर!


क्या मोदी के बाद देश का सबसे बड़ा नेता इनमें से ही कोई एक होगा? इन सवालों का जवाब तो वक्त के साथ ही मिलेगा।


after modi leaders can make a big difference

भारत के आज़ादी के वर्ष यानी, 1947 से लेकर 2014 तक देश में 16 बार लोकसभा चुनाव हुए। इसमें से पांच बार (6वीं, 9वीं, 11वीं, 12वीं और 13वीं लोकसभा चुनाव में) कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा जबकि, 11 बार कांग्रेस को जीत मिली। कांग्रेस भले ही पांच इलेक्शन हारी लेकिन, केवल एक गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री अपना कार्यकाल पूरा कर पाए।

67 साल में केवल एक प्रधानमंत्री ने पूरा किया कार्यकाल!

इसमें 6वीं, 9वीं, 11वीं और 12वें लोकसभा चुनाव के बाद बना कोई भी प्रधानमंत्री अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सका। सन् 1947 के बाद 1999 में (13वीं लोकसभा चुनाव के बाद) ​अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में पहली ऐसी गैर कांग्रेसी सरकार बनी जिसने पांच साल का कार्यकाल पूरा किया। इसके बाद 14वीं और 15वीं लोकसभा चुनाव में फिर से कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार बनी और मनमोहन सिंह लगातार 10 साल तक देश के प्रधानमंत्री रहे।

सन् 1947 से 2014 तक यानी, 67 साल में केवल 12 साल (1977-79, 1989-91, 1996-2004) कांग्रेस सत्ता से बाहर रही। कांग्रेस ने 2014 के पहले तक लगभग 55 साल देश पर राज किया। इनमें 10 साल मनमोहन सिंह, पांच साल नरसिंम्हाराव और दो साल लाल बहादुर शास्त्री का कार्यकाल निकाल दें तो लगभग 38 साल नेहरू-गांधी परिवार का ही कोई न कोई सदस्य (जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी) पीएम पद पर काबिज रहा।

आजादी के बाद पहली बार राजनीति में दिखा यह बदलाव

अब तक देश में 14 प्रधानमंत्री हुए हैं जिनमें से आठ गैर कांग्रेसी (मोरारजी देसाई, चरण सिंह, वी पी सिंह, चंद्रशेखर, अटल बिहारी वाजपेयी, देवगौड़ा, आई के गुजराल, नरेंद्र मोदी) थे। कांग्रेस के छह प्रधानमंत्रियों (जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, नरसिंहा राव, मनमोहन सिंह) में से तीन गांधी-नेहरू परिवार से थे। इस संक्षिप्त इतिहास को बताने का मकसद सिर्फ़ इतना है कि यह समझा जा सके कि आजादी के बाद के भारतीय राजनीतिक इतिहास में किस पार्टी या परिवार का बर्चस्व था।

पिछले दो लोकसभा चुनाव में इस परिवार और पार्टी को बीजेपी ने कड़ी टक्कर दी है। आजाद भारत में पहली बार (2014 और 2019) कांग्रेस के अलावा किसी पार्टी को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत मिला है। अब शायद यह कहा जा सकता है कि भारतीय राजनीति कांग्रेस युग से बाहर निकल रही है। इस बदलाव में फिलहाल बीजेपी सबसे मजबूत पार्टी बनकर उभरी है लेकिन, क्या इस बदलाव का केवल एक ही बाईप्रोडक्ट है जिन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम से जाना जाता है?

नरेंद्र मोदी के साथ हुआ केजरीवाल का उदय

नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने वाले वर्ष में ही आम आदमी पार्टी ने फरवरी 2014 में दिल्ली विधानसभा में जनलोकपाल पर समर्थन न मिलने के कारण 49 दिन पुरानी अपनी सरकार गिरा दी थी। यानी, आप और उसके नेता के तौर पर केजरीवाल का उदय हो चुका था।

आम आदमी पार्टी का जन्म नवंबर 2012 में हुआ था। दस साल के भीतर आप ने दो राज्यों (दिल्ली, पंजाब) में अपनी सरकार बनाई है और उसे राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिल चुका है। भारत के इतिहास में पहली बार (कांग्रेस, बीजेपी और वाम दलों के बाद) किसी क्षेत्रीय दल ने एक से ज्यादा राज्य में अपनी सरकार बनाई है।

केजरीवाल ने बनाई अपनी अलग पहचान

सरकार बनाना कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने राजनेता के तौर पर अपनी अलग पहचान बनाई है। केजरीवाल ने खुद को विचारधारा, जाति या धर्म की परंपरागत राजनीति से खुद को अलग रखने में बड़ी सफलता पाई है।

दिल्ली में स्वास्थ्य, शिक्षा, बिजली और पानी को लेकर उनकी सरकार ने जो काम किया है उसे ही वह अपनी राजनीतिक पहचान बनाना चाहते हैं। वह ध्रुवीकरण और विचारधारा के नाम पर दो खेमों में बंट चुकी राजनीति के किसी एक खेमे का समर्थक या विरोधी बनकर अपना जनाधार सीमित करना नहीं चाहते। वह चाहते हैं कि लेफ्ट, राइट और सेंटर तीनों तरह की विचारधारा वाले लोग उनके वोटर या समर्थक बनें। वह एक ऐसा वोटर वर्ग बनाना चाहते हैं जो इन तीनों ही विचारधाराओं और उनके नाम पर होने वाले तुष्टिकरण की परंपरागत राजनीति से उकता गया है।

मुख्यमंत्री की सीमा लांघते योगी आदित्यनाथ

उत्तर प्रदेश में 2017 के विधानसभा चुनाव के नतीजे घोषित होने के बाद तक किसी को अंदाज़ा नहीं था कि योगी आदित्यनाथ यूपी के सीएम बन सकते हैं। बीजेपी की इस घोषणा ने आम आदमी से लेकर राजनीतिक पंडितों तक को चौंका दिया था।

मुख्यमंत्री बनते ही योगी आदित्यनाथ ने रोमियो स्कॉयड, लव जिहाद पर कानून, गोरक्षा संबंधी कानून और बुलडोजर की धमक से स्पष्ट कर दिया कि उनका रास्ता क्या है। उनकी इस कार्यशैली ने उन्हें यूपी ही नहीं लगभग पूरे देश में एक ऐसे राजनेता के तौर पर स्थापित कर दिया जो अपनी धार्मिक पहचान को जाहिर करने में कोई संकोच नहीं करता। उन्होंने गेरुआ वस्त्र धारण करने वाले एक ऐसे सख्त प्रशासक के रूप में खुद को स्थापित किया जो माफिया या गुंडा राज के खात्मे के लिए प्रतिबद्ध है।

हालांकि, 2022 में दूसरी बार सत्ता में आते ही योगी ने एक्सप्रेसवे, इंवेस्टर समिट, रोजगार, निवेश और यूपी को एक ट्रिलियन इकॉनमी वाला राज्य बनाने पर जोर दिया। साफ है कि वह बुलडोजर की जगह यूपी मॉडल को चर्चा के केंद्र में लाना चाहते हैं। उन्हें पता है कि देश के अन्य राज्यों के लोग और देश के मीडिया की उन पर पैनी नजर है।

रणनीतिकार Vs राजनेता: प्रशांत किशोर

प्रशांत किशोर की ख्याति बीजेपी और खासतौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनावी रणनीतिकार के तौर पर रही है। बीजेपी से अलावा उन्होंने ममता बनर्जी, राहुल गांधी, नवीन पटनायक सहित कई दलों और नेताओं के चुनावी रणनीतिकार के तौर पर काम किया है।

अचानक इस काम से उनका मन भर गया और उन्होंने खुद राजनीति में आने का फैसला कर लिया। आज भले ही मेनस्ट्रीम मीडिया में उनकी चर्चा कम होती है लेकिन, वह पिछले पांच महीने से लगातार बिहार की पद यात्रा कर रहे हैं। बिहार के लोगों से मिल रहे हैं उनसे बात कर रहे हैं। संभावना है कि पद यात्रा के आखिर में वह राजनीतिक दल की घोषणा कर चुनावी समर में कूद सकते हैं।

प्रशांत किशोर एक बेहद सफल चुनावी रणनीतिकार रहे हैं। जनता की नब्ज़ को पकड़ने के लिए वह लगातार ज़मीन पर काम कर रहे हैं। वह दल बनाने से पहले अपना काडर बना रहे हैं। राजनेता बनने की उनकी यह रणनीति बिहार की राजनीति में अचानक कोई बड़ा धमाका कर सकती है।

देखा जाए तो वह भी राजनीति में आने का परंपरागत तरीका अपनाने के बजाए कुछ अलग और नया करने की कोशिश कर रहे हैं। कितना सफल होते हैं यह तो वक्त ही बताएगा।

पैर जमाने की कोशिश में लगे युवा नेता

इनके अलावा ऐसे कई युवा नेता हैं जो राष्ट्रीय राजनीति में अपनी पहचान बनाने में सफल हुए हैं। इनमें आंध्र प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी, बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव, अखिलेश यादव और राहुल गांधी का नाम लिया जा सकता है। इन नेताओं ने भी कम समय में अपनी पहचान बनाई है और अपने राजनीतिक विरोधियों को कड़ी टक्कर दे रहे हैं। हालांकि, इन सबका संबंध वंशवादी राजनीति से भी है।

केजरीवाल, योगी आदित्यनाथ या प्रशांत किशोर की तरह राजनीति में इनकी कोई खास यूएसपी दिखाई नहीं देती। मायावती, मुलायम सिंह यादव या लालू यादव अपने आप में यूनीक राजनेता थे। लालू यादव की तो बोलने की शैली ही कई दशकों तक चर्चा का विषय रही।

इस लिहाज से अगर देखा जाए तो केजरीवाल, योगी आदित्यनाथ और प्रशांत किशोर अपने पहनावे, बोलचाल और रणनीति के मामले देश के बाकी नेताओं से अलग दिखाई देते हैं। इन्होंने राजनीति और नेतागिरी की परंपरागत शैली को लांघने की कोशिश की है।

फिलहाल ये तीनों नेता राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाने के लिए एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। क्या इन नेताओं का उभरना भारतीय राजनीति में किसी मौलिक बदलाव का संकेत है? क्या भारतीय राजनीति ने कांग्रेस और गठबंधन युग से खुद को पूरी तरह बाहर निकाल लिया है? क्या मोदी के बाद देश का सबसे बड़ा नेता इनमें से ही कोई एक होगा? इन सवालों का जवाब तो वक्त के साथ ही मिलेगा।