जलवायु परिवर्तन का कारण समाज का बंटवारा और खोखली खानापूर्ति


समाज की देखरेख में जब तक नदियां, जंगल, पहाड़, झरने, तालाब रहे, सब कुछ सुरक्षित रहा। जिस दिन सरकारी कब्जा हुआ और एनजीओ वालों की देखरेख में एक्शन प्लान बनने शुरू हुए।


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अतिथि विचार Updated On :
climate change

आशीष कुमार अंशु।

यूं तो परिवर्तन का अर्थ भारतीय समाज में हमेशा सकारात्मक रहा है। कुछ नया होना चाहिए, अक्सर हम यह सुनते ही हैं। लेकिन अब परिवर्तन को घबराहट के साथ देखा जा रहा है। हमारे समाज का शब्दकोश बदलाव को नकारात्मक सन्दर्भों में परिभाषित नहीं करता। यह बदलाव ही है जो समाज और सभ्यताओं के विकास को परिलक्षित एवं निर्देशित करता है।

यहां जिस बदलाव की चर्चा हो रही है, वह जलवायु परिवर्तन है। धीरे धीरे धरती के बढ़ रहे ताप को भारत में महसूस किया जा रहा है। सितम्बर के महीने में भी गर्मी दिल्ली वालों का साथ छोड़ने को तैयार नहीं है। पिछले कुछ सालों में जिस तरह दिल्ली का तापमान 48-49 डिग्री तक पहुंच गया है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि पर्यावरण को लेकर इस समय कुछ भी ठीक नहीं चल रहा है।

यदि इसी गति से दुनिया भर में कथित ‘विकास’ होता रहा तो ग्रीनपीस के अनुसार 2050 तक धरती पर कार्बन डाइ ऑक्साइड का उत्सर्जन दोगुना हो जाएगा। जिसका प्रभाव मौसम और धरती के तापमान पर भी पड़ेगा। अधिक पुरानी बात नहीं है, जब दिल्ली में भारी बरसात होती थी। अब यह बीते जमाने की बात हो गई है।

किसी समय अपनी हरियाली के लिए प्रसिद्ध दिल्ली अब दुनिया के सबसे प्रदूषित महानगरों की सूची में शामिल है। इंडियन इन्स्टीट्यूट आफ मेटिरियलॉजी के एक अध्ययन के अनुसार बीते तीस सालों में दिल्ली का तापमान जनवरी के महीने में 23 डिग्री से बढ़कर 30 डिग्री सेल्सियस पर पहुंच गया है।

जिस दिल्ली में सालाना 990 मिली मीटर की बारिश होती थी। अब वहां 800 मिमी से भी कम की बारिश होती है। मतलब 30 सालों में दिल्ली की बारिश में 15 प्रतिशत की कमी आ गई है।

दिल्ली में प्रत्येक दो में से एक परिवार के पास अपना वाहन है। कई परिवारों में तो सदस्यों से अधिक वाहन हैं। उनमें चाहे अधिक संख्या उनकी हो, जिनके पास वाहन के लिए अपनी पार्किंग ना हो। सड़क परिवहन मंत्रालय की ‘भारत में सड़क दुर्घटना’ शीर्षक से जारी रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली में औसतन प्रतिदिन पांच व्यक्तियों की जान सड़क दुर्घटना में जाती है।

दिल्ली में कथित तौर पर आम आदमी की चिन्ता करने वाली सरकार है, लेकिन ना वह दिल्ली में बेलगाम बढ़ती वाहनों की संख्या को संभाल पा रही है, ना ट्रैफिक और ना ही प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए उसके पास कोई ठोस योजना है। बात सिर्फ दिल्ली की ही नहीं है। हमने नदियों का रास्ता बदल दिया। पहाड़ों को काटकर सड़कें बना दी। पर्यावरण के साथ हर बुरे व्यवहार का हम एक मौका नहीं चूके।

भारत का सबसे साफ गांव मेघालय के मावलिन्नांग को माना जाता है। वहां के लोगों ने बड़े श्रम से अपने गांव को साफ सुधरा रखा। इस गांव की कहानी मीडिया में छपने लगी। अब वहां बड़ी संख्या में पर्यटक आने लगे। इस समय पूरे गांव के लिए सबसे बड़ी चुनौती पर्यटकों द्वारा फैलाया गया कचरा है।

पर्यावरण संकट विश्वव्यापी है लेकिन जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर विकासशील और विकसित देशों के हित अलग-अलग हैं। विकसित देश चाहते हैं कि जीजीई (ग्रीन गैस इमिशन) पर लगाम की जिम्मेवारी विकासशील देश लें। दुनिया की उन्नतिशील अर्थव्यवस्थाएं चाहती हैं कि विकसित देश जीजीई में अपनी भूमिका को स्वीकार करें और इसके लिए चल रहे अभियान में तकनीकी सहायता के साथ साथ आर्थिक सहायता भी उपलब्ध कराएं।

दूसरी तरफ विकसित देश दोनों में से एक भी उम्मीद पर खरी उतरती नजर नहीं आ रहे हैं। यदि पर्यावरण की बिगड़ती स्थिति को लेकर पूरी दुनिया चिन्तित है तो यह सब एक दिन में नहीं हुआ है। समाज ने अपना हर अधिकार धीरे धीरे सरकार और एनजीओ को सौंप दिया।

समाज की देखरेख में जब तक नदियां, जंगल, पहाड़, झरने, तालाब रहे, सब कुछ सुरक्षित रहा। जिस दिन सरकारी कब्जा हुआ और एनजीओ वालों की देखरेख में एक्शन प्लान बनने शुरू हुए। उसके बाद पर्यावरण के नाम पर पानी की तरह पैसा तो बहाया गया लेकिन इससे जल, जंगल, जमीन और पर्यावरण की रक्षा नहीं हो सकी।

सेवा को इस देश में नैतिक जिम्मेवारी की तरह समझा जाता था लेकिन पिछले तीस-पैंतीस सालों में उपभोक्तावाद की आंधी में समाज को प्रयासपूर्वक उसकी जड़ों से काटा गया। समाज व्यक्तियों में बंट गया। जलवायु परिवर्तन का इतना बड़ा संकट असल में समाज के व्यक्तियों में बंट जाने का संकट है।

यह कहानी हम सबने बचपन में पढ़ी है, जिसमें गांव के सभी लोगों को राजा कहता है कि एक लोटा दूध लेकर आना है और ग्राम देवता को दूध चढ़ाकर प्रसन्न करना है ताकि गांव में बारिश हो। लेकिन गांव में रहने वाला हर व्यक्ति यही सोच रहा होता है कि पूरा गांव जब दूध चढ़ा ही रहा है, यदि मैंने एक लोटा पानी चढ़ा दिया तो इससे क्या कम हो जाएगा, या क्या बढ़ जाएगा। परिणामस्वरूप पूरा गांव ग्राम देवता पर चढ़ाने के लिए लोटे में पानी ही भरकर लाता है।

इसी तरह हम सभी अपने-अपने आधुनिक भौतिक साधनों-संसाधनों का उपभोग करते हुए पर्यावरण को नुकसान पहुंचा कर यही सोच रहे हैं कि एक मेरे सुधरने से क्या हो जाएगा? देश के नेता अपने भाषण में कहते हैं कि हमें अपने देश के नागरिकों पर विश्वास करना चाहिए। लेकिन सवाल यह है कि क्या देश की सरकार समाज पर विश्वास कर रही है? क्या सरकार जल, जंगल, पर्यावरण, पहाड़ पर समाज के अधिकार को फिर से वापस लौटा सकती है?

अगर सरकार ऐसा करती है तो विकास के नाम पर नदियों की धाराओं से छेड़छाड़ का काम बंद हो सकता है और पर्यावरण सुरक्षा के लिए एनजीओ की जगह सीधा समाज से संवाद की परंपरा फिर से कायम हो सकती है। किंतु उसके लिए हमें युवा पीढ़ी को प्रकृति व पर्यावरण के प्रति भारत की प्राचीन दृष्टि से अवगत करवाना होगा। अन्यथा साल में कुछ दिन पर्यावरण संरक्षण के खोखले नारों और कुछ मिनिट बिजली बचाने जैसे दिखावे के आयोजनों में भागीदारी करके युवा अपने कर्तव्य की पूर्ति समझ लेंगे।

(आलेख वेबसाइट मध्यमत.कॉम से साभार)