हिंदी पट्टी के परिणाम प्रतिकूल हुए तो क्या संघ केंद्र में नेतृत्व बदलने पर विचार करेगा?


चुनाव में हार के बाद मुंबई में आयोजित भाजपा के राष्ट्रीय अधिवेशन में तय हुआ कि लालकृष्ण आडवाणी प्रतिपक्ष और पार्टी के अध्यक्ष दोनों अपने पदों पर बने रहेंगे। इसके बाद, लोग सोचने लगे कि अटल बिहारी वाजपेई जल्द ही सेवानिवृत्त हो जाएंगे।


सुमित सिंघल सुमित सिंघल
अतिथि विचार Published On :

मध्यप्रदेश, राजस्थान, और छत्तीसगढ़ के सभी विधानसभा चुनाव एक महत्वपूर्ण सवाल के साथ आ गए हैं – क्या भाजपा यहां हार सकती है? अगर ऐसा होता है, तो क्या ये सवाल होगा की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) को मोदी, योगी, और नितिन गड़करी के बीच तीनो में से एक को नेतृत्व के लिया चुनना होगा? या जो मोदी मैजिक है वो ही सर्वोपरि रहेगा? या किसी और को नेतृत्व की कमान संभालने का मौका मिलेगा?

इसे मोहन भगवत के हालिया बयान के संदर्भ में भी देखा जा सकता है, जिसमें मणिपुर की स्थिति में एक विदेशी हाथ की बात कही गई है। अगर मणिपुर में एक बाहरी हाथ का संकेत है, तो मोदी के नेतृत्व पर संकट हो सकता है? क्योंकि मणिपुर में स्थिति अब तक नियंत्रित नहीं हो रही है?

साथ ही मोहन भागवत ने मुसलमानों तक पहुंच बढ़ाने के लिए एक दूसरे के प्रति अविश्वास के भाव को खत्म करने को कहा है. बीजेपी के मूल भाव में ये बात अब तक नहीं होती थी. क्यों बीजेपी को मुस्लिम आउटरीच की ज़रूरत क्यों पड़ गई? ये बयांन मजबूरी के है या सही में बीजेपी ने मुस्लिम समुदाय को साथ ले कर चलने की ठान ली है? या ये केवल चुनावी मौसम की बारिश है?

क्या इस बात के और भी संकेत है? राजनीति में कही गई बातों में बहुत संभावनाएं होती हैं. उदाहरण के तौर पर 2004 चुनाव में भाजपा को कांग्रेसी नेतृत्व वाले एनडीए से हार का सामना करना पड़ा था। इस चुनाव में अटल बिहारी वाजपेई के नेतृत्व में भाजपा ने भाग लिया था।

चुनाव में हार के बाद मुंबई में आयोजित भाजपा के राष्ट्रीय अधिवेशन में तय हुआ कि लालकृष्ण आडवाणी प्रतिपक्ष और पार्टी के अध्यक्ष दोनों अपने पदों पर बने रहेंगे। इसके बाद, लोग सोचने लगे कि अटल बिहारी वाजपेई जल्द ही सेवानिवृत्त हो जाएंगे।

इस विचार के पीछे और भी कई कारण थे, जिनमें अटल जी के स्वास्थ्य की स्थिति भी शामिल थी। हालांकि, अक्टूबर में हुए बीजेपी के राष्ट्रीय अधिवेशन में अटल जी ने सबको यह कह कर चौंका दिया वे न तो थके हैं और न ही सेवानिवृत्त हुए हैं।

जब लोगो में संदेह था की बीजेपी किसके नेतृत्व में चुनाव लड़ेगी, तब अटल जी ने बयांन दिया था, “न टायर्ड न रिटायर्ड – कूच करेंगे”। साफ़ था की उनके नेतृत्व पर कोई सवाल नहीं है और वे ही चुनाव में सबसे बड़े नेता रहेंगे।

मौजूदा परिस्थितितयों में भी क्या कुछ इस तरह की बात आ सकती है? या फिर सब कुछ विधानसभा के चुनावी नतीजों पर ही निर्भर है?

लेकिन ये जो फार्मूला अभी तक चला है उस फॉर्मूले के तहत मोदी मैजिक ही सर्वोपरि रहा है. मूलतः राजनीति में चमत्कारों को अहमियत मिलती है. मनोरंजन या व्यंग से भी लोग मोहित होते है. इस बात को लालू यादव ने समझा भी और भरपूर इस्तेमाल भी किया, लेकिन मोदी के मैजिक में मूलतः उनके व्यक्तित्व की गंभीरता अधिक है. लोग उनके भाषण में कुछ न कुछ मास्टर स्ट्रोक ढूंढ़ते हैं।

अधिकतर चुनावी सभाओं में वे ये कहते है की कितने की सौगात दूं और फिर बोली बढ़ती जाती थी लेकिन पिछले कुछ बड़े मौको पर ये भी दूरगामी बातें लगती हैं- जनता को कभी २०४७ की बात कही गई या फिर महिला आरक्षण की बात जो २०२९-२०३४ की हो, ये सभी बातें बहुत दूरगामी हैं।

लेकिन अगर नितिन गडकरी के बारे में सोचे तो वो संघ के बहुत नज़दीक है, उनके बयानों में एक राजनीतिक व्यंग भी है और तुलनात्मक भाव अधिक है। गडकरी के काम को पूरे देश ने सराहा है। देश की उन्नति के लिए जो सड़कों का निर्माण हुआ है और जिस गति से हुआ है उसे कोई नकार नहीं सकता।

उन्होंने एक इंटरव्यू के दौरान ये भी कह दिया की वो जो कहते हैं उसे कर दिखाते हैं, जुमले नहीं देते।  अब इंटरनेट की दुनिया में लोगों को इस बयान ने अमित शाह के बयान की याद दिला दी जिसमें १५ लाख रुपए को लेकर उन्होंने जुमला शब्द का प्रयोग किया था। गडकरी को कर्मठ नेता के तौर पर अपनी छवि बनानी नहीं पड़ी या यह कह सकते हैं की उनके काम ने उनकी ब्रांड बिल्डिंग कर दी है।

संघ ने योगी महाराज को भी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर काफी समय देख लिया है और वो भी एक एक्शन हीरो के तौर पर क्राइम रोकने के लिए छवि बनाते हुए दिखे हैं. शासन को संभालना एक बात है लेकिन पुरे देश में चुनावी आकर्षण पैदा करना दूसरी बात है। अभी योगी की छवि और कुर्सी पर सवाल नहीं है लेकिन वो बड़ी कुर्सी के दावेदार जरूर हैं। इन सभी पहलुओ को देखते हुए विधानसभा के सभी ५ राज्यों से अधिक बीजेपी में अंदरूनी नेतृत्व को लेकर सवाल रहेगा।

खुले तौर पर तो राजनीति में कभी-कभार ही दावे ठोके जाते हैं, लेकिन जब शिवराज मामा ने मंच से लोगो से पूछ लिया की क्या वो मोदी को ही अगला प्रधानमंत्री देखना चाहते हैं तो सभी राजनितिक प्रबुद्ध लोगों को शिवराज के इस सवाल में भी राजनीति के बहु-आयाम नज़र आए।

अभी तो बीजेपी में सबसे अधिक समय तक मुख्यमंत्री रहने वाले शिवराज ही हैं और मोदी मैजिक ने कैलाश विजयवर्गीय, नरेंद्र सिंह तोमर, प्रह्लाद पटेल जैसे बड़े केंद्रीय नेता और केंद्रीय मंत्रियों को विधान सभा में झोंक कर मुख्यमंत्री के नाम में अंतर्कलह तो पैदा कर ही दी है. वहीं वसुंधरा राजे सिंधिया की अवहेलना से राजस्थान के चुनावी संघर्ष में बड़े बवाल की ओर इशारा है।

ये सभी राजनितिक चालें अभी जादूगर के पिटारे के खेल हैं और लोग केवल 3 दिसंबर तक ही इसका आनंद ले रहे हैं। अगर ये चुनाव बीजेपी के हाथ से निकल गए तब राजनीति के यही सब धुरंधर अपने भविष्य को बचाने के लिया क्या विपक्ष में बैठेंगे या बीजेपी में अंतर्कलह को आगाज़ देंगे? समय बलवान होता है, और अभी का समय तो उस बलवान को तय करेगा जिस पर विश्व की सबसे बड़ी पार्टी अपना दांव खेलेगी।







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