न संसद लोकतंत्र का मंदिर, न सेंगोल की आलोचना भारतीय संस्कृति का अपमान


संसद को देश की ‘सबसे पड़ी पंचायत’ तो कहा जा सकता है, लेकिन इसे ‘मंदिर’ कहना इसके मूलभाव से खिलवाड़ करना है। ख़ासतौर पर सरकार की असफलताओं को ‘दिव्यता’ से ढंकने का प्रयास हो रहा हो तो यह बात याद दिलाना बेहद ज़रूरी हो जाता है।


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अतिथि विचार Published On :
new parliament building boycott by opposition

पंकज श्रीवास्तव

संसद की नयी इमारत में स्थापित किए जाने वाले ‘सेंगोल’ को सत्ता हस्तांतरण का प्रतीक बताए जाने का जब विरोध हुआ तो गृहमंत्री अमित शाह ने उन पर भारतीय संस्कृति के अपमान का आरोप लगा दिया। वहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उद्घाटन समारोह के अपने भाषण में संसद को ‘लोकतंत्र का मंदिर’ बताते हुए दावा किया कि यह भवन स्वतंत्रता सेनानियों के सपनों को पूरा करेगा। उन्होंने इस मौके पर चोल साम्राज्य में सत्ता हस्तांतरण की परंपरा से निकले सेंगोल को कर्तव्यपथ, सेवापथ और राष्ट्रपथ का प्रतीक बताया।

प्रधानमंत्री संसद को लोकतंत्र का मंदिर बता रहे हैं लेकिन ऐसा मान लेने से संसद की परिकल्पना ही उलट जाती है। मंदिर में देवता होते हैं जिनसे आशीर्वाद लिया जाता है, प्रश्न नहीं किया जाता। या कहें कि मंदिर आस्थावानों के लिए लौकिक से ज़्यादा पारलौकिक जगत से जुड़ने का माध्यम है। मंदिर में देवता तो छोड़िए, पुजारी से भी वाद-विवाद संभव नहीं है, बस उसके आदेशनुसार अनुष्ठान संपन्न करना होता है। सब कुछ हज़ारों साल पहले संकलित-संपादित शास्त्रों के मुताबिक होता है जिनमें कोई परिवर्तन संभव नहीं है।

इसके उलट संसद लौकिक जगत की परेशानियों के हल के लिए बहस-मुबाहिसा करती है। संसद किसी को भी देवता या देवतुल्य नहीं मानती। यहाँ कोई ‘अप्रश्नेय’ नहीं होता बल्कि प्रश्नों का इतना महत्व है कि बाक़ायदा ‘प्रश्न-काल’ होता है। सरकार से अपने प्रश्नों का जवाब पाना संसद सदस्यों का विशेषाधिकार होता है। नीति निदेशक के रूप में यहाँ धर्मशास्त्र नहीं, संविधान होता है जिसमें ज़रूरत पड़ने पर बदलाव भी संभव है। ‘वाद-विवाद-संवाद’ किसी भी संसद का सबसे जीवंत पहलू है। संसद को देश की ‘सबसे पड़ी पंचायत’ तो कहा जा सकता है, लेकिन इसे ‘मंदिर’ कहना इसके मूलभाव से खिलवाड़ करना है। ख़ासतौर पर सरकार की असफलताओं को ‘दिव्यता’ से ढंकने का प्रयास हो रहा हो तो यह बात याद दिलाना बेहद ज़रूरी हो जाता है।

दरअसल, बीजेपी आज़ादी के आंदोलन से दूर-दूर रहे अपने वैचारिक पुरखों में कोई गौरव नहीं खोज पाती तो भरपाई ‘गौरवशाली हिंदू अतीत’ खोज कर करना चाहती है। इस खोज में वह इतनी व्याकुल है कि संविधान के मूल संकल्पों को भी भूल जाती है जो राज्य और धर्म को अलग रखने का निर्देश देता है। ‘व्हाट्सऐप हिस्ट्री’ से निकले राज गोपालाचारी की ‘सेंगोल के ज़रिए सत्ता हस्तांतरण की सलाह’ का किस्सा प्रधानमंत्री के उद्घाटन भाषण में शामिल था जिसका अब प्रामाणिक रूप से खंडन हो चुका है।

बहरहाल, ज्यादा आश्चर्य चोल साम्राज्य का गौरवगान था। नवीं शताब्दी के मध्य में स्थापित चोल साम्राज्य में निश्चित ही आर्थिक और सांस्कृतिक उन्नति हुई। ख़ासतौर पर वास्तुकला अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँची। राजेंद्र चोल के समय दक्षिण-पूर्व एशिया में उल्लेखनीय सफलता वाले नौसेनिक अभियान भी हुए। लेकिन समाज के रूप में चोल सम्राट असमानता को ही आदर्श मानते थे। समाज वर्णव्यवस्था की कठिन जकड़बंदी में था। ब्राह्मणों को विशेषाधिकार प्राप्त थे। उनके लिए करमुक्त भूमि की व्यवस्था थी जबकि शूद्रों की हालत बेहद दयनीय थी। यही नहीं चोल साम्राज्य में ही देवदासी प्रथा को नयी ऊँचाई मिली जो मंदिरों में समर्पित किए जाने के नाम पर स्त्रियों के शोषण का ही एक रूप था। सतीप्रथा का भी काफी बोलबाला था।

कहने का आशय ये है कि हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने चोल या किसी अन्य प्राचीन साम्राज्य की सामाजिक-आर्थिक संस्कृति को अपना आदर्श नहीं माना था। उनका आदर्श था-समता,समानता और बंधुत्व। सेंगोल स्वाभाविक ही राजशाही का प्रतीक है जिसकी संसद में स्थापना की आलोचना को भारतीय संस्कृति का अपमान बताना सब किये धरे पर पानी फेरना जैसा है। इस तरह तो वर्णव्यवस्था, देवदासी प्रथा और सतीप्रथा भी भारतीय संस्कृति का हिस्सा हैं। भारत ने आज़ादी के बाद ऐसी प्रथाओं को प्रतिबंधित करने के लिए क़ानून बनाए तो क्या भारतीय संस्कृति का अपमान किया? और क्या बीजेपी सरकार उन कानूनों को उलटने के लिए सेंगोल का इस्तेमाल करेगी?

यह कहना भी उचित नहीं है कि भारत में लोकतंत्र प्राचीन काल से था। प्राचीन गणतंत्रों का सारा खेल कुछ विशेषाधिकार वर्ग तक सीमित था। समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति को बराबरी का नागरिक अधिकार मिलें, उसे भी वोट देने से लेकर चुनाव लड़कर शीर्ष पर पहुँचने का हक़ हो, ये तो आधुनिक युग का ही चमत्कार है।

जब 26 जनवरी 1950 को अपने संविधान से लैस भारत दुनिया के सामने नये तेज के साथ उठ खड़ा हुआ तो वह किसी प्राचीन संस्कृति के प्रवाह में नयी लहर उठने जैसी बात नहीं थी, बल्कि यह नदी के धारा को उलटने जैसा था। सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से इसने अतीत की कई व्यवस्थाओं को अवैधानिक क़रार दिया जैसा अश्पृश्यता विरोधी क़ानून। अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षण जैसी व्यवस्था तो एक क्रांति ही थी। संविधान लागू होते ही स्त्री-पुरुष के भी भेद समाप्त कर दिये गये जबकि अमेरिका और इंग्लैंड जैसे देशों में इसके लिए महिलाओं को लंबा संघर्ष करना पड़ा था। और सबसे बड़ी बात, यह नया भारत तमाम राजदंडों को दफना कर ही स्वरूप ग्रहण कर पाया था। आज़ादी के समय भी 526 देशी रियासतें थीं। हर राजे-रजवाड़े के पास अपना-अपना सेंगोल या राजदंड था जिसे उनके पुरोहितों ने तमाम दैवी मंत्रों से पवित्र करके उन्हें सौंपा था। लेकिन भारत के नये संविधान के सामने सभी राजदंडों को दंडवत होना पड़ा।

राजतंत्र जनता की नज़र में अपनी वैधता के लिए धर्मसत्ता के आशीर्वाद से खुद को हमेशा लैस करता है और सब कुछ धर्म के नाम पर ही करता है। लेकिन लोकतंत्र का विकास धर्म और राज्य के अलगाव से ही संभव हो पाया और संविधान ने यही करने का निर्देश दिया था।

प्रधानमंत्री कहते तो हैं कि वे स्वतंत्रता सेनानियों के सपनों को पूरा कर रहे हैं लेकिन किस सेनानी का यह सपना था कि लोकतंत्र के ऊपर धर्मदंड स्थापित हो। महात्मा गाँधी और पं.नेहरू को तो छोड़ ही दीजिए, सरदार पटेल, डॉ.आंबेडकर, सुभाषचंद्र बोस से लेकर भगत सिंह तक संसद के अंदर धार्मिक अनुष्ठान पर हँसते ही। इन सबमें चाहे जितने मंतभेद रहे हों, एक बात पर सब सहमत थे कि आज़ाद भारत की सरकार सच्चे अर्थों मे एक सेक्युलर सरकार होगी। राज्य का कोई धर्म नहीं होगा और सरकार सभी धर्मों के साथ एक सा व्यवहार करेगी।

यानी भारतीय संविधान अतीत, परंपरा और भारतीय संस्कृति की सुचिंतित आलोचना के ज़रिए ही विकसित हुआ है। क्या गृहमंत्री अमित शाह इस संविधान को भी भारतीय संस्कृति का अपमान मानेंगे जिसकी शपथ लेकर वे उस कुर्सी पर बैठे हुए हैं।

प्रधानमंत्री को भी अगर नौतिक शक्ति हासिल करने की ज़रूरत है तो वह चोल साम्राज्य के सेंगोल से नहीं, इसे संविधान की प्रस्तावना से हासिल करें तो बेहतर होगा। भारत को आजाद कराने वाले स्वतंत्रता सेनानी किसी सम्राट के राजदंड से नहीं श्रमशील जनता के औज़ारों से भारत का भविष्य गढ़ते हुए देख रहे थे।

इस सिलसिले में इस सपने के साक्षी रामधारी सिंह दिनकर की मशहूर कविता ‘जनतंत्र का जन्म’ पढ़ी जानी चाहिए जिसकी कुछ पंक्तियाँ यूँ हैं-

आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।
फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर – नाद सुनो,
सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है।

(लेखक कांग्रेस से जुड़े है)