मध्यप्रदेश में बेटी पूजने का नया शिगूफ़ा


यह सुझाव जिसने भी दिया वह सरसरी तौर पर तो सराहनीय लगता है पर इसके प्रैक्टिकल क्रियान्वयन को लेकर सोचिए कि क्या-क्या होगा, हर कार्यक्रम में बेटी कौन, किस जाति और वर्ग की होगी, आदि की गाइडलाइंस बनेगी और गांव मोहल्लों में विवाद की अप्रिय स्थिति बनेगी।


संदीप नाईक
अतिथि विचार Published On :
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जारी किए गए शासनादेश की प्रति।


हर कार्यक्रम की शुरुआत में बेटियों की पूजा होगी मप्र में,आज इस आशय का यह आदेश निकला है, जो नीचे संलग्न है।

मतलब हद है बेटियों को इंसान ही बना रहने दो और याद रखिये मप्र में अभी भी महिला हिंसा का बोलबाला है और कुपोषण से लेकर छेड़छाड़ तक में हम सब आगे हैं। शिक्षा स्वास्थ्य और अन्य मानव विकास सूचकांकों में भी हमारे यहां की महिलाएं अभी बहुत पीछे हैं।

यह सुझाव जिसने भी दिया वह सरसरी तौर पर तो सराहनीय लगता है पर इसके प्रैक्टिकल क्रियान्वयन को लेकर सोचिए कि क्या-क्या होगा, हर कार्यक्रम में बेटी कौन, किस जाति और वर्ग की होगी, आदि की गाइडलाइंस बनेगी और गांव मोहल्लों में विवाद की अप्रिय स्थिति बनेगी।

सच में दुखद है यह सब और शासकीय स्तर पर जब इस तरह के आदेश कि “बेटियों की पूजा” – हो इसका क्या अर्थ है। इससे बेहतर होता कि जेंडर बजटिंग को सही अर्थों में महिला सशक्तिकरण के लिए उपयोग किया जाता ।बजाय सिर्फ स्टंट और अपने व्यक्तिगत फेस लिफ्टिंग करने के बजाय।

पर नेता और सत्ता वही जो लोक लुभावन दिखावे, चोंचले और प्रपंच करें। “मुख्य मंत्री कन्यादान” योजना पहले से चल ही रही है। अब जब शासन स्तर पर कन्या”दान” और बेटी पूजा की समझ नही है। तो क्या बात की जाए। दिवालियेपन की कोई हद होती भी है क्या।

अभी 2021 में जनसंख्या गणना होगी तब समझ आएगा कि पिछले 17 वर्षों में कितना महिला उत्थान हुआ, जेंडर अनुपात सुधरा। NFHS – 5 के आंकड़े सामने आ ही रहे हैं 20 राज्यों के तो आरंभिक रुझान सामने आ ही गए हैं। मप्र के भी आएंगे तो लाज़िम है कि हम भी देखेंगे कि कुपोषण, एनीमिया, संस्थागत प्रसव, कम उम्र में शादी आदि में क्या सुधार हुआ है।

क्या किसी संगठन, राजनैतिक दल या समाज सेवी संस्थानों से पूछा गया है। कोई यह बताएगा।