लीटर और किलो में उलझी सियासत, लेकिन हकीकत को भूलते राजनेता


फिसलती हुई जबानों का मजाक बनाना छोड़ दें, क्योकि आने वाले दिनों में ये जबानें ही हालात को बदलने वाली हैं। मूक जब वाचाल होता है तो उसका सामना करना आसान नहीं होता। हमारे नेता शायद इस हकीकत को भूल गए हैं।


rakesh-achal राकेश अचल
अतिथि विचार Published On :
rahul gandhi tounge slip

हम आज भी राजनीति से ऊपर उठकर मुल्क के बारे में नहीं सोच पाते तो जबान और जुबान से ऊपर कैसे उठ सकते हैं। आम आदमी के मुद्दों को रेखांकित करने की कोशिश करती कांग्रेस से घबड़ाये सत्तारूढ़ दल के नेता अपने प्रतिद्वंदियों की जबान फिसलने को मुद्दा बनाकर मुकाबला करना चाहते हैं, जबकि नहीं जानते कि आज के दौर में जबान की फिसलन कितनी आम हो गयी है और बड़े-बड़ों की जबान रोज फिसलती है।

रामलीला मैदान में कांग्रेस की रैली में राहुल गांधी का भाषण पूरे देश ने सुना। उन्होंने भी सुना जो उनके समर्थक हैं और उन्होंने और ज्यादा गौर से सुना जो उनके विरोधी हैं और उन्हें जन्मजात ‘पप्पू’ मानते और ठहराते आये हैं। वे जिस तरीके से बोलते हैं उसमें जादू भले नजर न आये लेकिन जो आक्रामकता है वो सामने वाले को परेशान करती है।

सामने वाला चाहे सत्ता पक्ष में हो या खुद कांग्रेस की तरह विपक्ष में, राहुल के प्रहार सहने की स्थिति में नहीं हैं, ऐसे में राहुल की जबान का फिसलना सबके लिए बड़ा राहत देने वाला है। ख़ास तौर पर सत्तारूढ़ दल के लिए, क्योंकि यही एक दल है जो शुरू से राहुल को पप्पू साबित करने में लगा है।

नेताओं की जबान फिसलने के हजार किस्से हैं, इसलिए मैं किसी एक का उल्लेख नहीं करूंगा। असली बात है कि बात आप तक पहुंची या नहीं? देश में आटा 20 रुपये किलो से 40 रुपये किलो हुआ या नहीं? आटे की माप के लिए आमतौर पर हम किलो का इस्तेमाल करते हैं किन्तु रौ में यदि हमने किलो की जगह लीटर का इस्तेमाल कर दिया तो इससे आटे के भाव नहीं बदल जाते। तरल पदार्थों का जिक्र करते हुए लीटर का इस्तेमाल करते-करते राहुल आटे पर आये और उसके लिए भी लीटर का इस्तेमाल कर गए, तो कोई पहाड़ नहीं टूटा। पर हास्यास्पद बात ये है कि पूरा सत्तारूढ़ दल पहाड़ तोड़ने की कोशिश कर रहा है।

राहुल गांधी हों या देश के प्रधानमंत्री माननीय नरेंद्र मोदी, सबकी जिम्मेदारी है कि वे अपनी-अपनी जबान को फिसलने से बचाएं। मुमकिन है कि बचाते भी हों। प्रधानमंत्री जी तो इस मामले में बेहद सतर्कता बरतते हैं। जब भी बोलते हैं मंच के दाएं-बाएं दो मशीनें लगाकर बोलते हैं, फिर भी जबान है कि फिसले बिना नहीं मानती।

जबान का काम है फिसलना, और वक्ता का काम है उसे फिसलने से रोकना। दोनों अपना-अपना काम करते हैं और कभी-कभी इस जंग में जबान जीतती है और नेता हारता है। लेकिन आप जिसे सम्बोधित कर रहे होते हैं वो भाव समझ लेता है। पर हम हिन्दुस्तानी हैं कि फिसलती जबान को उसी तरह पकड़ते हैं जैसे मछुआरे पानी में बहती मछलियों को।

बहरहाल बात ये है कि राहुल की जबान फिसली। उनकी जबान का उसी तरह मजाक बनाया जा रहा है जैसा आमतौर पर बनाया जाता है। बनाया भी जाना चाहिए, आखिर अब राजनीतिक दलों ने इस काम के लिए बाकायदा करोड़ों रुपये खर्च कर हरावल दस्ते जो बना रखे हैं। जो ‘तिल का ताड़’ और ‘लत्ते का सांप’ बनाकर उसे हवा में लोहान की गंध की तरह फ़ैलाने में सिद्धहस्त हैं।

हम तकनीक का इस्तेमाल देश की भलाई के लिए नहीं करते, बुराई के लिए करते हैं। हमारी पुरानी आदत है। हमने तकनीक का इस्तेमाल एटीएम से एक, पांच, दस का नोट निकालने के लिए आजतक नहीं किया, लेकिन हम फिसलती जबान को वायरल करने में तकनीक का इस्तेमाल जरूर करते हैं और गर्व से करते हैं।

इस समय देश में उपलब्ध सोशल मीडिया के तमाम मंचों पर तकनीक के घृणित प्रयोग की प्रतिस्पर्द्धा चल रही है। भाजपा ने 2014 में इस तकनीक का इस्तेमाल सफलतापूर्वक कर दिखाया था, आज भाजपा के अलावा कांग्रेस सहित तमाम राजनीतिक दल इस काम में लगे हुए हैं।

हमारे देश के इंजीनियर अपने तकनीकी ज्ञान का इस्तेमाल करने के बजाय उसका दुरुपयोग करने के लिए खुद को आसानी से उपलब्ध करा देते हैं, क्योंकि बेचारे बे-रोजगार हैं, गरीबी और मंहगाई से जूझ रहे हैं, उन्हें इसी काम से घर चलाने की मजबूरी का सामना करना पड़ रहा है। मजबूरी का नाम आज कुछ भी हो सकता है।

बात जबान फिसलने की है तो ये जबान जिसे हिंदी साहित्य वाले रसना कहते हैं, वो प्रकृति प्रदत्त सबसे बड़ी अभिव्यक्ति की ऐसी मशीन है जिससे दुनिया कि हर सत्ता खौफ खाती है। ये कैंची की तरह चलना जानती है और फिसलना भी। जबान को लगाम देना आसान काम नहीं। ये साधना का काम है और हमारे नेताओं के पास साधना के लिए समय नहीं है। वे साधना से नहीं साधनों से काम चलना ज्यादा आसान समझते हैं।

नेताओं के पास साधन अकूत हैं लेकिन जबान का घोर अभाव है। जिनके पास बेहतर जबान होती है उन्हें सरस्वती पुत्र कहते हैं, किन्तु आज लोग सरस्वती के नहीं लक्ष्मी के पुत्र बनने में ज्यादा गौरवान्वित अनुभव करते हैं। अटल बिहारी बाजपेयी और जवाहर लाल नेहरू बनना कोई नहीं चाहता।

आज के दौर में बहुत कम लोग ऐसे हैं जो अपनी जबान का इस्तेमाल मिर्जा की तरह करते हों और कहते हों कि- ‘हम भी मुंह में जबान रखते हैं’ जनता के पास जबान है लेकिन जनता इसका इस्तेमाल करना भूल गयी है, ये दोषारोपण नहीं है, एक हकीकत है जो देश, काल और परिस्थितियों की वजह से पैदा हुई है।

लेकिन आप निराश न हों, फिसलती हुई जबानों का मजाक बनाना छोड़ दें, क्योकि आने वाले दिनों में ये जबानें ही हालात को बदलने वाली हैं। मूक जब वाचाल होता है तो उसका सामना करना आसान नहीं होता। हमारे नेता शायद इस हकीकत को भूल गए हैं।

नोटः आलेख वेबसाइट मध्यमत.कॉम से साभार