भावनाओं का विस्फोट करती खबर


इस मामले को मार्केटिंग की नजर से भी देखना चाहिए । बूढ़ा ढाबे वाला लोगों को बिल पर भले ही दाल मखानी लिखकर दे रहा हो पर असल उत्पाद दिल पर मक्खन लगाने वाला जज्बात है , जो खरीदा बेचा गया। मार्केटिंग की भाषा में इसे प्रोडक्ट रिपोजिशनिंग कहते हैं



अतिथि विचार Updated On :

किसी अवतारी पुरुष की तरह सोशल मीडिया अब रातों-रात किसी की जिंदगी चमत्कारिक ढंग से बदल सकता है । आभासी दुनिया में घटनाएं मिथकीय कहानियों की तरह घट रही हैं ।

ऐसी एक कहानी दिल्ली के एक बूढ़े ढाबे वाले की है जिसे आभासी मीडिया का वरदान मिला । इस बूढ़े ने अपनी ढाबा न चलने की दुख भरी कहानी एक फूड ब्लॉगर गौरव वासन को बताई जिस का वीडियो वायरल हो गया । बूढ़े के आंसूओं ने आभासी दुनिया के बाशिंदों के दिलों में सच्चे जज्बात जगा दिए । खाये अघाये लोग भी मटर पनीर और दाल मखानी पैक कराने दौड़ पड़े। और बाबा का ढाबा चल निकला । कहानी खत्म । जैसे बाबा के दिन फिरे वैसे सबके फिरें ।
मगर कहानी है , तो शिक्षा भी होगी । हर कहानी की तरह इस कहानी से भी हमें कुछ शिक्षा मिलती है ।
पहली कि सोशल मीडिया सिर्फ नफरत डर और अफवाह ही नहीं फैलाता कभी खुशियां और भलाई भी लेकर आता है ।
दूसरी , लोग ढाबे पर सिर्फ मटर पनीर खाने नहीं गए थे । सोचिए मटर पनीर के अलावा वह कौन सी भूख थी जो वहां जाकर वे मिटाना चाहते थे । बेशक वे परोपकार करने गए थे । तो क्या शहरी समाज अचानक बहुत दयालु और जज्बाती हो गया है ? मगर यदि वे सचमुच इतने परोपकारी हैं , तो उनके आसपास दसियों लोग हैं जिन्हें उनकी मदद की जरूरत है । उनके ड्राइवर, माली, कामवाली बाई, ऑफिस का चपरासी , गरीब रिश्तेदार..! फिर इन सब को पछाड़ते हुए ढाबे वाले बूढ़े ने इन शहरियों का प्रेम पात्र बनने की होड़ में पहला स्थान कैसे प्राप्त किया ? जवाब है – अकेलापन, सेंस आफ बिलॉन्गिंग की अतृप्त प्यास और किसी बड़े समूह या गतिविधि में शामिल होने की चाहत।

लोग जुड़ना चाहते हैं । किसी इंसान से , किसी रिश्ते से ! मगर रिश्ते मेहनत मांगते हैं । लगातार त्याग और समर्पण मांगते हैं , जो ये नहीं करना चाहते । जुड़ने की यह अतृप्त प्यास ऐसे किसी मौके की तलाश में रहती है । ऐसी किसी खबर से भावनाओं का विस्फोट होता है । एक दिन जाकर बाबा के ढाबे पर सौ ,पांच सौ खर्च कर अपना गला जज्बातों से रुंधने का सुख पा लिया जाता है । यह प्यार पाने – देने का शॉर्टकट है । इंस्टेंट नूडल्स की तरह इंस्टेंट रिश्ता । भविष्य की किसी भी जिम्मेदारी से मुक्त । किसी फिल्म की हीरोइन के दुख में शामिल होकर रोने से जो सुख मिलता है वैसा ही भाव विरेचन । तुरंत खर्च तुरंत मजा । उसके बाद सब अपने घर । एक महीने बाद किसी को नहीं याद होगा कि उस बूढ़े का क्या हुआ ।
इंस्टेंट मदद इन दिनों ‘इन’ है , फैशन है ! इससे एक बड़े समूह का हिस्सा बनने पर आदमी लेफ्ट आउट नहीं फील करता । असल जिंदगी के रिश्ते ना निभा पाने का अपराध बोध भी इस तरह कम कर हो जाता है । फिर इसे एक एक्सपीरियंस की तरह महफिलों में टंगड़ी कबाब चबाते हुए खपाया जा सकता है , ठीक वैसे ही जैसे कोई ट्रैवल एक्सपीरियंस या पहाड़ पर ट्रैकिंग का किस्सा !

इस मामले को मार्केटिंग की नजर से भी देखना चाहिए । बूढ़ा ढाबे वाला लोगों को बिल पर भले ही दाल मखानी लिखकर दे रहा हो पर असल उत्पाद दिल पर मक्खन लगाने वाला जज्बात है , जो खरीदा बेचा गया। मार्केटिंग की भाषा में इसे प्रोडक्ट रिपोजिशनिंग कहते हैं ,जहां प्रोडक्ट पहले किसी और काम के लिए बनाया गया हो , मगर बाद में उसके इस्तेमाल की वजह बदल दी जाए । ठीक वैसे ही , जैसे साइकिल अब आवाजाही का साधन नहीं , कसरत का उपकरण है।
तो यहां लोग दाल नहीं एक जज्बाती अनुभव खरीद रहे थे । यह जज्बात ,यह सेंस आफ बिलॉन्गिंग अब एक नया प्रोडक्ट है । लोगों को इस उत्पाद की जरूरत है और वह उसके लिए खर्च करने के लिए तैयार हैं । मार्केटिंग के गुरुओं क्या आप इसे देख रहे हैं ?