ये हार सिर्फ और सिर्फ नरेंद्र मोदी के चेहरे की हार है। आम जनता के पैसों से 42 रैलियां और 28 रोड शो के बावजूद वे 50% सीटें भी नहीं निकाल पाए।
2024 के इक्वेशंस अभी यथावत् हैं। स्टेटस-को डगमगाया नहीं है। बीजेपी अभी भी लोकसभा चुनावों में लीड कर रही है और हैट्ट्रिक के लिए तैयार है।
कर्नाटक चुनाव से बहुत पहले ओपनियन पोल और मतगणना के बाद हुए एग्ज़िट पोल कुछ वैसे ही परिणामों के संकेत दे रहे थे जैसे आज देखने को मिल रहे हैं। इससे यह निष्कर्ष…
कुल मिलाकर कर्नाटक चुनाव के नतीजों ने बीजेपी और मोदी की विभाजनकारी राजनीति को पराजित करने का मंत्र दे दिया है।
'द केरला स्टोरी' की कहानी कितनी सही है कितनी नहीं, इस पर विवाद से ज्यादा जरूरी यह है कि धर्म में धर्मांतरण के सूत्र और उपदेशों को आधुनिकता के आधार पर परिवर्तित किया…
संवैधानिक मामलों में तो लोकतांत्रिक व्यवहार इतना सटीक और सार्थक होना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करने का अवसर ही नहीं आए।
दक्षिण अफ्रीका, इंडोनेशिया, जर्मनी, स्पेन, हंगरी, स्लोवेनिया, अल्बानिया, पोलैंड, बेल्जियम जैसे दुनिया के कई देश हैं, जो केंद्र और राज्यों के चुनाव एक साथ ही कराते हैं, ताकि उनके विकास की गति बाधित…
जो लोग नारी सम्मान के नाम पर ऐसी योजनाएं घोषित कर रहे हैं उन्होंने कभी यह सोचकर नहीं देखा होगा कि उतने रुपये में उनके कपड़ों की धुलाई भी संभव नहीं है।
यूपी में नगर निकाय चुनाव को हम भले ही लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल न मानें लेकिन, यह बीजेपी-कांग्रेस सहित यूपी के दो प्रमुख राजनीतिक दलों सपा और बसपा के साथ आम आदमी पार्टी…
मामला सिर्फ़ दो फ़िल्मों की सफलता-असफलता का नहीं है ! कर्नाटक चुनावों के ज़रिए स्थापित यह होने वाला है कि भाजपा-शासित राज्यों में आगे कौन सी विचारधारा चलने दी जाएगी ।
कांग्रेस और बीजेपी दोनों बजरंग बली को अपनी चुनावी जीत का आधार बनाने में जुटे हुए हैं. चुनाव परिणाम कुछ भी आए विजय बजरंग बली की ही होगी.
कार्यकर्ताओं को मान-सम्मान, गौरव और अवसर राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी है.
‘विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस’ के मौक़े पर क्या हम सैन्य तानाशाही के बीच भी बहादुरी के साथ अपना फ़र्ज़ अदा कर रहे मायंमार के बहादुर पत्रकारों और फ़ोटोग्राफ़रों के बुलंद हौंसलों को सलाम…
बताया जाता है कि सोवियत यूनियन में आप स्टालिन की आवाज़ से बच नहीं सकते थे। सड़कों पर लाउडस्पीकरों से स्टालिन की आवाज़ आपका पीछा करती रहती थी। हिटलर ने आत्मप्रचार के लिए…
प्रधानमंत्री ने चुटकुला चाहे किसी अलग संदर्भ में याद करते हुए समारोह में सुनाया हो, सवाल यह है कि क्या श्रोताओं-दर्शकों के तौर पर हम पूरी तरह से संवेदनशून्य होते जा रहे हैं…
राजनेताओं को संभलने का वक्त है. यह सोचने की जरूरत है कि आज राजनीति के नाम पर कड़वाहट क्यों मुंह में घुल जाती है?
‘व्यवस्था-आश्रित मीडिया जानता है कि कोई भी पाठक सवाल नहीं पूछने वाला है कि क्या अपराधियों और उनसे पीड़ित लोगों की सूचियाँ भी अब जाति और संप्रदायों के आधार पर तैयार होने लगीं…
जो भी आदिवासी समुदाय के संवैधानिक अधिकारों और न्याय के लिए आवाज उठाता है, उस पर विकास विरोधी होने और ‘अर्बन नक्सल’ का ठप्पा लगाकर मुद्दे को खारिज करने का खेल शुरू हो…
मलिक ने अपनी चुप्पी तोड़ना तभी शुरू कर दिया था जब उन्हें गोवा से हटाकर मेघालय का राज्यपाल बना दिया गया था और पंजाब, हरियाणा के साथ-साथ उनके इलाक़े पश्चिमी यूपी के किसान…
सोशल मीडिया या मीडिया चैनलों से किसी सकारात्मक भूमिका की उम्मीद करना बेमानी होगी। उम्मीद केवल नागरिक समाज से ही रह जाती है जो इन दोनों माध्यमों के सबसे बड़े ग्राहक और उपयोगकर्ता…



















