नदियों का संरक्षण और उस पर निर्भर समुदाय के अधिकारों की सुरक्षा मसौदा


नदियों के साथ किसानों, विशेष रूप से छोटे भूमि धारकों, मछुआरों, घुमंतू समुदायों और कई आदिवासी, दलित और हाशिए पर रहने वाले समुदायों के तटवर्ती अधिकार जुड़े हुए हैं।


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जन आन्दोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (एन.ए.पी.एम) द्वारा संचालित नदी घाटी मंच की तरफ से मेधा पाटकर अराधना भार्गव राज कुमार सिन्हा मध्यप्रदेश, सी.आर. निलकंदन एस. पी. रवि केरल, मानसी असर हिमाचल प्रदेश, महेन्द्र यादव बिहार, समीर रतुङी उतराखंड, मीरा संघमित्रा तेलंगाना, देव प्रसाद राय सुप्रितम कर्मकार पश्चिम बंगाल, रोहित प्रजापति गुजरात, विधुत सयकिया आसाम, निशीकांत पधारे महाराष्ट्र ने देश की बहुमूल्य नदियों की गंभीर दशा के मद्देनज़र एक मज़बूत नदी प्रबंधन कानून की मांग किया है। उन्होंने वर्तमान लोकसभा चुनावों के सन्दर्भ में सभी राजनीतिक दलों और सांसदों के सामने प्रमुख मांगों के साथ एक पीपुल्स बिल का मसौदा रखा है।

पृथ्वी पर गहराते पर्यावरणीय संकट और इससे जुडी सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों को देखते हुए भारत में 2024 के संसदीय चुनाव न केवल देश, दक्षिण एशिया बल्कि पूरे विश्व के लिए एक महत्वपूर्ण क्षण है। जबकि चुनावी राजनीति में दूरदर्शी‌ लक्ष्य को छोड़, लोक-लुभानि नीतियों का दबदबा रहता है, जिसमें पर्यावरण के मुद्दों को हमेशा दरकिनार कर दिया जाता है।मसौदा में सभी पार्टियों का अपना ध्यान देश की अनमोल प्राकृतिक विरासत हमारी नदियों पर लाना चाहते हैं, जो न केवल हमारे पारिस्थितिक तंत्र को संतुलित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, बल्कि इस देश के प्रत्येक नागरिक को जीवन और आजीविका सुरक्षा प्रदान करती है। हमारी नदियाँ, सभ्यता की रीढ़ है। परन्तु भारत की प्राकृतिक जीवन रेखाएं बेहद संकट में है और हम सभी दलों, निर्वाचित प्रतिनिधियों और राजनेताओं से इस विषय को गंभीरता से लेने की अपील करते हैं।

नदियों के साथ किसानों, विशेष रूप से छोटे भूमि धारकों, मछुआरों, घुमंतू समुदायों और कई आदिवासी, दलित और हाशिए पर रहने वाले समुदायों के तटवर्ती अधिकार जुड़े हुए हैं। देश की विविध नदी घाटियों का प्रतिनिधित्व करने वाले संगठनों और गठबंधनों के रूप में हम केंद्र और राज्य सरकारों की विकासात्मक नीतियों के बारे में चिंतित हैं।

बड़ी विकास निर्माण परियोजनाओं पर आधारित आर्थिक व्यवस्था ने हमारे नदी की पारिस्थितिकी तंत्र और नदियों का वस्तुकरण, निजीकरण, विनियोजन और प्रदूषण ही किया है। इसमें विकास के नाम पर बांधों, बैराजों, तटबंधों, जलविद्युत परियोजनाओं, बड़े पैमाने पर वाणिज्यिक और अवैध रेत खनन, सीवेज और अपशिष्ट प्रदूषण, इंटरलिंकिंग और रिवर फ्रंट परियोजनाओं का निरंतर निर्माण शामिल है।

इसके कारण भूमि उपयोग और जल विज्ञान में परिवर्तन ने देश में सतही और भूजल दोनों व्यवस्थाओं को प्रभावित किया है, जिससे लाखों लोग अपनी आजीविकाओं से बेदखल और विस्थापित हुए हैं। नर्मदा पर बाँध निर्माण में बिना पुनर्वास विस्थापन की ऐतहासिक साज़िश और अन्याय अब हमें मंज़ूर नहीं।

हम ‘नदी जल प्रशासन के लिए जिम्मेदार केंद्रीय जल आयोग (CWC) जैसे संस्थानों ने ‘जल प्रबंधन’ के नाम पर तकनीकी व इंजीनियरिंग परियोजनाओं को जनता पर थोपा है, जबकि नमामि गंगे जैसे कार्यक्रम जो हमारी नदियों की पवित्रता का गुणगान करते हैं, उसमें नदी पुनर्जीवन के नाम पर सार्वजनिक संसाधनों की बर्बादी मात्र है।

आज हम बढ़ते तापमान के साथ, भयंकर चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, एक तरफ़ तेज़ी से पिघलते ग्लेशियर हिमालय की नदियाँ और उसकी गोद में बसे मैदानी इलाकों को कभी बाढ़, तो कभी सूखे का समाना करना पड़ता है तो दूसरी तरफ नदियों के सूखने के कारण जल संसाधनों के बंटवारे पर अंतरराज्यीय और क्षेत्रीय विवाद बढ़ रहे हैं – जैसा कि हम कावेरी, महानदी, कोसी (सीमा-पार नदी) और मुल्लयार और पेरियार जैसी अन्य छोटी नदियों में देख पाते हैं।

पिछले वर्ष हुई चर्चाओं और विचार-विमर्श के माध्यम से, हमने यह निष्कर्ष निकाला है कि भारत के संवैधानिक मूल्यों और सततता तथा समता के सिद्धांतों पर आधारित नदी प्रबंधन व्यवस्था स्थापित करने की आवश्यकता है। ‘विकास’ के नाम पर गलत प्राथमिकताओं को चुनौती देना और अपने संविधान, मानवाधिकारों, पारिस्थितिक स्थिरता और न्यायसंगत, लोकतांत्रिक भागीदारी के मूल्यों के आधार पर, हमारे नदियों के संरक्षण के लिए पैरवी करना हमारा लक्ष्य है।

हम आपके समक्ष एक केंद्रीय कानून का मसौदा प्रस्तुत कर रहे हैं जिसका उद्देश्य भारत में नदियों और तटीय अधिकारों की सुरक्षा, संरक्षण और पुनर्जीवन है। इस मसौदा कानून में जिन कुछ प्रमुख मुद्दों को संबोधित किया गया है। जो इस प्रकार है-

(1) भारत की प्रत्येक नदियों के जल प्रवाह को अविरल एवं निर्मल रखने और गर्मी के मौसम में भी नदी सूखने न देने की जिम्मेदारी शासन लेगी।

(2) नदी और उसकी सहायक नदियों का प्रत्यक्ष जल ग्रहण क्षेत्र में पारिस्थितिकी तंत्र, वन आवरण‌ और जैव विविधता की सुरक्षा का कार्य स्थानीय ग्राम सभा, ग्राम पंचायत और जिला पंचायत के साथ नियोजित कर उसे अमल में लाना।

(3) नदी जल, भूजल, जलीय जीव आदि पर असर लाने वाला अवैध रेत खनन पर संपूर्ण प्रतिबंध लगाना।

(4) नदी किनारे के प्रत्यक्ष जल ग्रहण क्षेत्र के पहाड़ और वन क्षेत्र के जल प्रवाह को प्रभावित करने वाले खनन, निर्माण कार्य, वन कटाई आदि पर पूर्ण प्रतिबंध लगाएं ताकि घाटी की जनता को जलापूर्ति और नदी का जल प्रवाह बाधित न हो।

(5) उदगम स्थल से समुद्र तक पहुँचने वाली नदी को हर प्रकार के प्रदुषण से मुक्त रखा जाए।इस हेतू नदी घाटी के हर क्षेत्र के लिए सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट जल्द से जल्द तैयार करना।शहरी, ग्रामीण तथा औधोगिक क्षेत्र का अवशिष्ट और खेती में उपयोग किया जाने वाला रसायनिक खाद, कीटनाशक, दवाई आदि को ग्राम सभा एवं राज्य शासन की सबंधित संस्थाओं के माध्यम से नियंत्रित करना।

(6) नदी और नदी घाटी के किसी भी संसाधन को प्रभावित करने वाली कोई भी परियोजना का समाजिक, सांसकृतिक, पर्यावरणीय, जीवन एवं आजिविका, आवास आदि पर पङने वाले प्रभाव का सर्वांगीण अध्ययन और मुल्यांकन निष्पक्ष रूप से किया जाए। जिसमें परियोजना प्रभावितों की जनसुनवाई और परियोजना नियोजक संस्था के बीच संवाद और उसके निष्कर्ष के बाद ही परियोजना को मंजूरी दी जाए। जनसुनवाई में किसान, मजदूर, मछुआरे, पशुपालक, कारीगर तथा नदी पर किसी भी प्रकार की निर्भरता रखने वाले और उससे लाभ लाभ कमाने वाले नागरिकों को शामिल किया जाए।

(7) नदी घाटी या नदी पर बनी किसी भी योजना में आवास एवं आजिविका से विस्थापन न हो या कम से कम हो, ऐसा विकल्प अपनाना होगा। किसी भी परियोजना से कोई विस्थापन तथा नुकसान के पहले भूमिअर्जन, पुनर्वास एवं पुनर्स्थापना अधिनियम 2013 तथा सबंधित पुनर्वास नीति और प्रावधानों का पूरा अमल सुनिश्चित किया जाएगा।

(8) नदी घाटी के संसाधनों का दोहन, उपयोग, हस्तांतरण आदि की कोई भी योजना में उस क्षेत्र की की सभ्यता, संसकृति, पुरातत्त्वीय धरोहर, मानव वंश की शास्त्रीय धरोहर पर प्रतिकूल प्रभाव न हो इसके लिए पुरातत्व कानून का सख्ती से पालन सुनिश्चित करना।

(9) पर्यटन या जल परिवहन की कोई भी परियोजना जिसमें नदी जल का प्रदुषण होना संभव है, उसे प्रदुषण नियंत्रण मंडल द्वारा गहन, सर्वांगीण एवं निष्पक्ष अध्ययन और निष्कर्ष के आधार पर ही सबंधित विभाग द्वारा मंजूरी दिया जाए।जबकि उच्चतम न्यायालय और हरित न्याधिकरण ने जलापूर्ति वाले जलाशय में क्रुज चलाने को प्रतिबंधित किया है।

(10) केंद्रीय जल आयोग के निर्देश और नियमावली के अनुसार हर जलाशय में जुलाई और अगस्त माह के अंत तक क्रमशः 50% और 25% क्षमता तक पानी खाली रखा जाएगा। जिससे वर्षा ऋतु तथा जलवायु परिवर्तन की विशेष स्थिति में अचानक आनेवाला वर्षा जल जलाशय में समा जाए और बाढ़ से नुकसान न हो। यह जिम्मेदारी हर परियोजना संचालक तथा सबंधित विभाग के प्रमुख अधिकारी एंव मंत्री की होगी।उल्घंन होने पर संबंधितों के खिलाफ कार्यवाही होगी।

(11) पूर्व में बन चुके बङे बांधों का व्यवस्थापन, सबंधित कानून, नीतियों तथा मंजूरी के साथ रखी गई शर्तों का संपुर्ण पालन करना होगा। बांधों की सुरक्षा, विस्थापित एवं प्रभावितों का न्यायपूर्ण पुनर्वास, पर्यावरणीय हानि की पूर्ति तथा आर्थिक लाभ- हानि का आकलन प्रति वर्ष करना होगा। जबतक पूर्व में बने बांधों के सबंध में मूल योजना के अनुसार लाभदायक तथा सफल और विस्थापितों का पुनर्वास और पर्यावरण की हानिपूर्ति, बांध सुरक्षा आदि की परिपूर्णता साबित नहीं होती, तबतक कोई नये बङे बांध को मंजूरी नहीं दी जाएगी।

(12) अंतर्राज्यीय जल विवाद अधिनियम 1956 के तहत जनतांत्रिक प्रक्रिया के रूप में नदी घाटी में बसे समुदाय और समाजों की, नदी और घाटी से रिश्ता रखने वाले चिंतित नागरिक तथा विशेषज्ञों की सुनवाई हर जल विवाद न्याधिकरण को करना जरूरी होगा।

(13) न्यूनिकरणवादी इंजिनियरिंग आधारित जल ज्ञान और जलवायु संसाधनों को अस्वीकार कर, जलवायु न्याय के समग्र दृष्टिकोण के आधार पर प्रकृति और समुदाय केन्द्रित जल और नदी प्रशासन वयवस्था कायम करना।

(14) यूरोप और अमेरिका में बने हजारों बांध को तोड़ने की मुहिम 2016 से चलाया जा रहा है।जिसके अन्तर्गत अमेरिका ने 1900 और यूरोप ने 4000 से अधिक बांधों को तोङा गया है।सवाल उठता है कि भारत में बङे बांधों का निर्माण क्यों किया जा रहा है ? कहीं कार्पोरेट समर्थित नीतियों का हिस्सा तो नहीं है?

हम आशा करते हैं कि ये महत्वपूर्ण मुद्दे आपके चुनावी घोषणा-पत्रों और आपकी पार्टी की भविष्य की कार्य-नीति में शामिल होंगे।

लेखक बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ से जुड़े हुए हैं।