तालिबान की गिरफ्त में अफगानिस्तान यानी शिकारी की कैद में लोकतंत्र की बुलबुल


अफगानिस्तान दुनिया के तमाम खूबसूरत देशों में से एक था लेकिन यहां एक तरफ बारूद का धुंआ उड़ता रहा हौर दूसरी तरफ लोकतंत्र की पौध रोपने की कोशिश की जाती रही।


rakesh-achal राकेश अचल
अतिथि विचार Published On :
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अफगानिस्तान तालिबान की गिरफ्त में है, ठीक उसी तरह जैसे कोई बुलबुल शिकारी के हाथ में होती है। अफगानिस्तान में लोकतंत्र की बुलबुल जैसे-तैसे काबुल में छिपकर सांसें ले रही थी, लेकिन अब उसका मुस्तकबिल भी महफूज नहीं है।

पूरा अफगानिस्तान बारूद के ढेर पर है। अफगानिस्तान से चुनी हुई सरकार के नुमाइंदे या तो भाग खड़े हुए हैं या उन्होंने तालिबानों के आगे आत्मसमर्पण कर दिया है।

अफगानिस्तान दुनिया के तमाम खूबसूरत देशों में से एक था लेकिन यहां एक तरफ बारूद का धुंआ उड़ता रहा हौर दूसरी तरफ लोकतंत्र की पौध रोपने की कोशिश की जाती रही।

अमेरिका ने दो दशक तक ट्री गार्ड बनकर यहां लोकतंत्र का पौधा लगाने वालों की मदद भी की लेकिन जब उसे भी लगा कि वो बंजर जमीन में बीज और पानी डाल रहा है तो उसने भी अफगानिस्तान को उसके हाल पर छोड़ दिया।

अमेरिका के अफगानिस्तान से हटते ही तालिबान आंधी की तरह उठा और धुंए की तरह पूरे अफगानिस्तान पर छा गया। अफगानिस्तान से भारत के ऐतिहासिक और भौगोलिक रिश्ते रहे हैं, अनेक पुरातन कहानियां आपने पढ़ी ही होंगी।

बहरहाल आज की तारीख में सबसे महत्वपूर्ण सवाल ये है कि अब भारत के तालिबान के साथ रिश्ते कैसे रहेंगे, क्योंकि अतीत में भारत अफगानिस्तान से तालिबान का सफाया करने में एक सहायक देश रहा है।

आपको याद होगा कि 1980 के दशक में सोवियत समर्थित लोकतांत्रिक गणराज्य अफगानिस्तान को मान्यता देने वाला भारत गणराज्य वाहिद दक्षिण एशियाई देश था।

भारत ने तालिबान को उखाड़ फेंकने में सहायता की और अफगानिस्तान के वर्तमान इस्लामी गणराज्य को मानवीय और पुनर्निर्माण सहायता का सबसे बड़ा क्षेत्रीय प्रदाता बन गया। अफगानिस्तान में भारत के पुनर्निर्माण प्रयासों के तहत भारतीय विभिन्न निर्माण परियोजनाओं में काम कर रहे हैं।

अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी के बाद वहां अराजक स्थितियां हैं। एक तरह से भगदड़ मची हुई है। सब अपनी जान-माल बचकर भाग रहे हैं, ये सब तालिबान के खूनी, और पाशविक चरित्र की वजह से हो रहा है।

लेकिन ये एक हकीकत है कि तालिबान ने अफगानिस्तान की सत्ता पर कब्जा कर लिया है, वहां एक कामयाब तख्ता पलट हो चुका है और बहुत जल्द अफगानिस्तान में तालिबान की एक वैधानिक किन्तु अवैध सरकार होगी। सवाल ये है कि तब क्या भारत तालिबान सरकार को समर्थन देगा, या पहले की तरह विरोध करेगा।

अफगानिस्तान में अतीत में हिन्दू भी थे और बौद्ध भी। बामियान में महात्मा बुद्ध की विशालकाय प्रतिमाओं को इसी तालिबान ने नेस्तनाबूद कर दिया था।

अफगानिस्तान में साल 1990 में शुरू हुए गृहयुद्ध के पहले ढाई लाख सिख और हिंदू रहते थे। जबकि एक दशक पहले यहां महज तीन हजार सिख और हिंदू रह गए।

अफगानिस्तान में सत्ता पर तालिबान का नियंत्रण भारत के लिए भी चिंता की बात है। पिछले दो दशक में भारत ने अफगानिस्तान में करीब 22 हजार करोड़ रुपये का इंवेस्टमेंट किया है। सवाल ये है कि तालिबान के कब्जे के बाद क्या यह निवेश पूरी तरह फंस जाएगा?

आपको याद दिला दूं कि 1996 से 2001 के बीच जब अफगानिस्तान में तालिबान का शासन था, तब भारत ने अफगानिस्तान से संबंध तोड़ लिए थे, लेकिन अमेरिका के आने के बाद हामिद करजई की सरकार का गठन हुआ तो भारत फिर से काबुल में सक्रिय हो गया था। इस समय अफ़ग़ानिस्तान में भारत के 400 से अधिक छोटे-बड़े प्रोजेक्ट हैं।

तालिबान के कब्जे में आये अफगानिस्तान में एक सलमा बांध या हाइड्रो परियोजनाओं के अलावा सबसे महत्वपूर्ण परियोजना काबुल में अफगानिस्तान की संसद है। इसके निर्माण में भारत ने लगभग 675 करोड़ रुपये खर्च किए हैं।

इसका उद्घाटन भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साल 2015 में किया था और भारत-अफगान मैत्री को ऐतिहासिक बताया था। इस संसद में एक ब्लॉक पूर्व भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर भी है। अब ये परियोजना जारी रहेगी या पूंजी डूब जाएगी।

मेरा मानना है कि यदि तालिबान सत्ता में अपनी निर्णायक पकड़ बना लेते हैं तो यह भारत के लिए झटका तो होगा ही, लेकिन इस बार तालिबान भी कोशिश कर रहा है कि उसे महज एक कट्‌टरपंथी संगठन मानने के बजाय एक राजनीतिक दल माना जाए।

ऐसे में यह देखना होगा कि तालिबान पर कौन से गुट की हुकूमत काबिज होती है। तालिबान ने अपने पुराने रुख में तब्दीली करते हुए चीन, अमेरिका और दूसरे अनेक देशों से बातचीत की है। तालिबानी मुमकिन है कि अमेरिका से भी कुछ न कुछ बातचीत जरूर करेगा, क्योंकि देश चलाने के लिए तालिबान को विदेशी पूंजी तो चाहिए है।

फिलहाल हालात बहुत जटिल हैं। भारत सरकार को बहुत सोच-समझकर कदम उठाने होंगे। भारत और अफगानिस्तान के रिश्ते पुराने हैं। लोगों का भी आपस में संपर्क है।

फिलहाल, भारत को हर स्तर पर यह कोशिश करनी चाहिए कि वहां किसी की भी सत्ता रहे, लेकिन ऐसी स्थिति न पैदा हो कि पिछले 20 साल में बने वहां के सभी लोकतांत्रिक ढांचे टूट कर बिखर जाएं।

अफगानिस्तान में तालिबान के आने से सबसे ज्यादा चिंता भारत और ईरान को है क्योंकि दोनों के लिए अफगानिस्तान महत्वपूर्ण है। दोनों देश इसीलिए अफगानिस्तान में तालिबान के आने के बाद सोच-समझकर आगे कदम बढ़ाएंगे।

भारत के 75 वे स्वतंत्रता दिवस समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 80 मिनट से भी ज्यादा लम्बे भाषण में अफगानिस्तान को लेकर ऐसा कोई संकेत नहीं मिला कि भारत अफगानिस्तान में तालिबान की आमद से चिंतित है या उसने अफगानिस्तान को लेकर कोई ख़ास रणनीति बनाई है। मौजूदा सरकार की विदेश नीति हमेशा से आलोचनाओं का शिकार रही है।

अफगान मामले में शायद इसीलिए भारत अपने पत्ते नहीं खोल रहा है। कुल जमा भारत को अफगानिस्तान की ओर से हमेशा सचेत रहने की जरूरत है, क्योंकि अफगानिस्तान आखिरकार हमारा पुराना हमसफ़र और हमराज रह चुका है, भले ही आज उसकी नजदीकी चीन और पाकिस्तान के साथ नजर आ रही है।

(आलेख साभारः मध्‍यमत)