उच्चतम न्यायालय का पतनः कहां खो गईं आजादियां, कहां गए अधिकार


व्याख्यान का विषय था: “उच्चतम न्यायालय का पतन: कहां खो गईं आजादियां, कहां गए अधिकार”। कार्यक्रम की अध्यक्षता उच्चतम न्यायालय बार एसोसिएशन के अध्यक्ष वरिष्ठ एडवोकेट दुष्यंत दवे ने की। इस अवसर पर जस्टिस होजबेठ को डॉ असगर अली इंजीनियर स्मृति लाईटाइम एवार्ड से मृत्योपरांत सम्मानित किया गया।


नेहा दाभाड़े
अतिथि विचार Updated On :
supreme court of india

“उच्चतम न्यायालय के पतन की शुरूआत, सन् 2014 मे भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन के सत्ता में आने के साथ ही हो गई थी। सन् 2014 के बाद से हर उस संस्था तंत्र व उपकरण को कमजोर किया जा रहा है जो कार्यपालिका को जवाबदेह बनाने के लिए निर्मित किए गए हैं।’’

ये विचार दिल्ली व मद्रास उच्च न्यायालयों के पूर्व मुख्य न्यायाधीश व विधि आयोग के पूर्व अध्यक्ष न्यायमूर्ति एपी शाह ने व्यक्त किए। वे 18 सितंबर, 2020 को सेंटर फॉर स्टडी ऑफ़ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म, बोहरा यूथ संस्थान, सेन्ट्रल बोर्ड ऑफ़ दाउदी बोहरा कम्युनिटी, सिटीजन्स फॉर जस्टिस एंड पीस, इंस्टीट्यूट फॉर इस्लामिक स्टडीज, पीपुल्स वाच व मज़लिस लॉ सेंटर के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित ‘जस्टिस होजबेठ सुरेश स्मृति व्याख्यान’ में बोल रहे थे।

व्याख्यान का विषय था: “उच्चतम न्यायालय का पतन: कहां खो गईं आजादियां, कहां गए अधिकार”। कार्यक्रम की अध्यक्षता उच्चतम न्यायालय बार एसोसिएशन के अध्यक्ष वरिष्ठ एडवोकेट दुष्यंत दवे ने की। इस अवसर पर जस्टिस होजबेठ को डॉ असगर अली इंजीनियर स्मृति लाईटाइम एवार्ड से मृत्योपरांत सम्मानित किया गया। अपने भाषण में न्यायमूर्ति शाह ने विभिन्न कालखंडों में उच्चतम न्यायालय की भूमिका पर प्रकाश डाला और उसकी तुलना आज के उच्चतम न्यायालय से की।

जानी-मानी सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड ने प्रतिभागियों के स्वागत की रस्म अदा की। कमांडर मंसूर अली बोहरा ने डॉ असगर अली इंजीनियर के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुए इस्लामिक अध्ययन, मुस्लिम महिलाओं के अधिकार, दाउदी बोहरा समुदाय में सुधार व साम्प्रदायिक सद्भाव के क्षेत्रों में डॉ इंजीनियर के महती योगदान का संक्षिप्त विवरण दिया। कार्यक्रम का संचालन वरिष्ठ अधिवक्ता मिहिर देसाई ने किया। जानेमाने मानवाधिकार कार्यकर्ता हेनरी टी फगने ने धन्यवाद ज्ञापन दिया।

अपना वक्तव्य देने के पूर्व, न्यायमूर्ति शाह ने असगर अली इंजीनियर और न्यायमूर्ति होजबेठ सुरेश से अपने आत्मीय संबंधों को याद किया। उन्होंने इन दोनों की सतत प्रतिबद्धता और देश की भलाई में उनके अमूल्य योगदान की भूरि-भूरि प्रशंसा की।

न्यायमूर्ति शाह ने कहा कि उच्चतम न्यायालय, देश की एक बहुत महत्वपूर्ण संस्था है और उसका इतिहास गर्व करने योग्य है। उन्होंने केशवानंद भारती प्रकरण में उच्चतम न्यायालय के निर्णय की चर्चा करते हुए कहा कि इस निर्णय में न्यायालय ने सबसे पहले संविधान के मूल ढ़ांचे की अवधारणा को प्रतिपादित किया और संविधान को न्यायपालिका का संरक्षण उपलब्ध करवाया।

यह एक बहुत महत्वपूर्ण निर्णय था जो एक नजीर बन गया। इसी तरह के महत्वपूर्ण निर्णयों में शामिल हैं मेनका गांधी, फ्रांसिस कुरेली म्यूलिन और इंटरनेशनल एयरपोटर्स एथारिटी ऑफ़ इंडिया मामलों में न्यायालय के निर्णय। इन सभी निर्णयों ने किसी भी कार्य को करने की उपयुक्त प्रक्रिया का निर्धारण किया और संविधान के अनुच्छेद 21 में दिए गए अधिकारों की परिधि को विस्तार दिया।

इसके बाद से उच्चतम न्यायालय ने कई ऐसे क्षेत्रों में सार्थक दखल दी जिनसे वह पहले दूर रहता था। इनमें शामिल थे पर्यावरण संबंधी कानून। न्यायालय ने ‘ज्यूडिशियल एक्टिविस्ट’ की भूमिका निभानी शुरू कर दी। न्यायपालिका के इतिहास में अनेक उतार-चढ़ाव आए। एडीएम जबलपुर प्रकरण में जो हुआ वह न्यायालय की गरिमा और सम्मान को गिराने वाला था।

परंतु इसके बाद उच्चतम न्यायालय संभल गया और उसने सही और सीधी राह अपनाई। उन्होंने कहा कि उच्चतम न्यायालय के गौरवपूर्ण दिन अब लद गए हैं। आज के दौर में जब संसद और राज्य के अन्य अंगों पर उंगली उठाई जा रही है तब उच्चतम न्यायालय की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। उन्होंने कहा, “संसद के अधिकार और उसकी महत्ता को कितना कम कर दिया गया है यह इससे जाहिर है कि हाल में हुए कोविड-19 लाकडाउन के दौरान संसद की बैठक तक आयोजित नहीं हुई और लाकडाउन हटने के पश्चात जब संसद समवेत हुई तब प्रश्नकाल आयोजित ही नहीं किया गया। चूंकि संसद को अपाहिज बना दिया गया था इसलिए अन्य संस्थाओं का यह कर्तव्य था कि वे आगे आतीं और कार्यपालिका पर अंकुश लगातीं।

परंतु यह भी नहीं हुआ। लोकपाल के बारे में तो एक लंबे समय से बात होना तक बंद हो गया है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग सुषुप्त अवस्था में है। चुनाव आयोग के कई निर्णय अत्यंत संदेहास्पद जान पड़ते हैं। सूचना आयोग पंगु है। अपना कर्तव्यपालन न करने वाली ऐसी संस्थाओं की सूची लंबी और पीड़ाजनक है। शिक्षाविदों, मीडिया और नागरिक समाज को भी विभिन्न तरकीबों से चुप कर दिया गया है। विश्वविद्यालयों की स्वायत्ता पर आए दिन हमले हो रहे हैं। विद्यार्थियों पर दंगा करने के आरोप लगाए जा रहे हैं तो शिक्षकों को आपराधिक षड़यंत्र रचने का दोषी ठहराया जा रहा है। भारत में मुख्यधारा की निष्पक्ष प्रेस की अवधारणा कब की स्वर्गवासी हो चुकी है। नागरिक समाज का गला घोंट दिया गया है।

कहां खो गईं आजादियां

न्यायमूर्ति शाह ने उच्चतम न्यायालय की पक्षपातपूर्ण भूमिका पर अफसोस जाहिर करते हुए कहा कि वह न्याय करने की बजाए कार्यपालिका के पक्ष में झुका हुआ नजर आ रहा है। वह कतई यह प्रयास नहीं कर रहा है कि कार्यपालिका को जवाबदेह बनाया जाए और इसके लिए स्थापित तंत्र को मजबूती दी जाए। उन्होंने कहा कि नागरिकों के अधिकारों की रक्षा और बहुसंख्यकवाद पर नियंत्रण, प्रजातंत्र को टिकाऊ बनाए रखने की आवष्यक शर्तें हैं। उच्चतम न्यायालय ने इस संदर्भ में भी अपनी भूमिका का सही ढ़ंग से निर्वहन नहीं किया। उन्होंने सबरीमला और अयोध्या मामलों में उच्चतम न्यायालय के निर्णयों का हवाला देते हुए कहा कि इन दोनों प्रकरणों में न्यायालय ने सरकार के पक्ष में निर्णय देने के लिए विधि के शासन के सिद्धांत से समझौता किया। अयोध्या मामले में न्यायालय ने यह स्वीकार किया कि हिन्दुओं ने 1949 और 1992 में गैरकानूनी कार्यवाहियां कीं थीं परंतु उसने कानून तोड़ने वाले पक्ष को ही पुरस्कृत किया।

कहां गए अधिकार

न्यायमूर्ति शाह ने एक संस्था के रूप में उच्चतम न्यायालय के पतन की चर्चा करते हुए अभिव्यक्ति की आजादी और विरोध करने के अधिकार की हिफाजत करने में उसकी विफलता पर प्रकाश डाला। इस संदर्भ में उन्होंने नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के विरोध में हुए आंदोलन की ओर श्रोताओं का ध्यान आकर्षित करते हुए कहा कि इस अधिनियम की संवैधानिकता को न्यायालय में चुनौती दी गई थी परंतु उसने किसी न किसी बहाने इस मुद्दे पर सुनवाई ही नहीं की। दूसरी ओर, सरकार इस अधिनियम से असहमत लोगों और उसका विरोध करने वालों को कुचलने में जुटी रही। इसके विरोधियों पर सरकार ने जमकर निशाना साधा। इनमें विद्यार्थी, शिक्षाविद् और कवि शामिल थे। इन पर आपराधिक प्रकरण दर्ज किए गए और उन्हें दंगा करने, गैर कानूनी ढ़ंग से एकत्रित होने और आपराधिक षड़यंत्र रचने का दोषी ठहराया गया।

यहां तक कि उन पर देशद्रोह के आरोप तक लगाए गए और गैरकानूनी गतिविधियां निरोधक अधिनियम (यूएपीए) की धाराओं के अंतर्गत उनके विरूद्ध प्रकरण कायम किए गए। जिस समय निर्दोष लोगों पर राष्ट्रद्रोही होने का आरोप लगाया जा रहा था और यह कहा जा रहा था कि वे सरकार को अस्थिर करना चाहते हैं, उस समय उच्चतम न्यायालय चुपचाप तमाशा देख रहा था। इन मामलों में हस्तक्षेप न करने के लिए उसने कई बहाने खोज निकाले।

न्यायमूर्ति शाह ने कहा, “जरा सीएए और एनपीआर के विरोधियों के साथ हुए व्यवहार की तुलना भाजपा के शीर्ष नेताओं के साथ हुए व्यवहार से कीजिए – उन नेताओं के साथ जो भड़काऊ बयान और वक्तव्य देते नहीं थकते। यह अत्यंत दुःखद और धक्का पहुंचाने वाला है कि इन लोगों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं हुई और जब एक जज ने कुछ करने की हिम्मत दिखाई तो रातोंरात उसका तबादला कर दिया गया।“

दिल्ली दंगों और सीएए व एनपीआर के विरोध के मामलों में बड़ी संख्या में निर्दोषों को फंसाया गया। यही बात भीमा-कोरेगांव मामले में भी सही है। न्यायमूर्ति शाह ने इस बात पर रोष व्यक्त किया कि सुधा भारद्वाज, वरवरा राव और गौतम नवलखा जैसे लोग कई महीनों से जेलों में बंद हैं और उन्हें जमानत तक नहीं दी जा रही है। उन्होंने कहा, “इन सभी मामलों में एक असाधारण समानता है।

सरकार का विरोध करने वाले शिक्षाविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों पर पहले माओवादी होने का आरोप लगाया जाता है, फिर उन्हें दलितों को भड़काने वाला बताया जाता है और अंततः उन्हें देशद्रोही करार दे यूएपीए के तहत आरोपी बना दिया जाता है।“

न्यायमूर्ति शाह ने उच्चतम न्यायालय की बढ़ती असहिष्णुता पर भी चिंता व्यक्त की। इस सिलसिले में उन्होंने हालिया प्रशांत भूषण प्रकरण पर बात करते हुए कहा, “जहां तक अभिव्यक्ति की आजादी का मुद्दा है, उच्चतम न्यायालय इस स्वतंत्रता की अत्यंत संकीर्ण व्याख्या कर रहा है। अपनी स्व-घोषित उदारता का प्रदर्शन करते हुए न्यायालय ने प्रशांत भूषण को एक रुपए के जुर्माने की सजा सुनाई परंतु उसने उनके कथनों की कड़ी आलोचना करने से परहेज नहीं किया। प्रशांत भूषण मामले में पूरी कार्यवाही से यह बहुत साफ है कि एक संस्था के रूप में उच्चतम न्यायालय अत्यंत असहिष्णु हो गया है।“

न्याय करने की अनिच्छा

न्यायमूर्ति शाह ने कहा कि कश्मीर घाटी में इंटरनेट व अन्य संचार सुविधाओं को ठप्प करने के निर्णय का परीक्षण, संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 के प्रकाश में करने की बजाए, न्यायालय ने यह पूरा मामला सरकार के नेतृत्व में बनाई गई विशेष रिव्यू कमेटी को सौंप दिया। क्या यह न्यायालय के उत्तरोत्तर पतन का उदाहरण नहीं है? इस निर्णय से कश्मीर में शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था पर गंभीर कुप्रभाव पड़े और वहां की अर्थव्यवस्था और व्यापार-व्यवसाय ठप्प हो गए। जाहिर है कि राज्य की जनता के दुःखों और कष्टों में बढ़ोत्तरी ही हुई।

रोस्टर का मसला

न्यायमूर्ति शाह ने कहा कि ‘मास्टर ऑफ़ द रोस्टर’ प्रणाली पूरी तरह से अपारदर्शी है और इसका प्रयोग महत्वपूर्ण मामलों को ऐसी बेंचों के सुपुर्द करने के लिए किया जा रहा है जिनके जज सरकार के प्रति अपने नरम रूख के लिए जाने जाते हैं। इस कारण अदालतें जनता को न्याय देने वाली और आमजनों के अधिकारों की रक्षा करने वाली संस्था की जगह ऐसी संस्था बन गईं हैं जो केवल कार्यपालिका के निर्णयों पर अपनी मुहर लगाती हैं। इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अत्यंत महत्वपूर्ण संवैधानिक सिद्धांत कमजोर हुआ है। न्यायमूर्ति शाह ने कहा कि अदालत को कार्यपालिका का पिछलग्गू बनाने में मुख्य न्यायाधीश की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका है।

कैसे बुझती है प्रजातंत्र की जोत

न्यायमूर्ति शाह ने कहा कि सरकारों, भले ही वे निर्वाचित हों, द्वारा संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर करना एक अत्यंत खतरनाक संकेत होता है। एकाधिकारवादी सरकारें, राज्य के तंत्र और उसकी संस्थाओं का उपयोग अपने ही नागरिकों का दमन करने और उन्हें चुप करने के लिए करती हैं। इस परिप्रेक्ष्य में, उच्चतम न्यायालय, बल्कि संपूर्ण न्यायपालिका, प्रजातंत्र को बचाए रखने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। न्यायमूर्ति शाह ने भारत, इंग्लैंड और अमरीका की अदालतों के कई साहसिक निर्णयों का जिक्र करते हुए कहा कि न्यायालयों ने युद्ध के दौरान भी संविधान की रक्षा और कानून के राज के पक्ष में अपने निर्णय सुनाए। उन्होंने आशा प्रकट की कि आने वाले समय में उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीष, साहस के साथ अपने कर्तव्यों का निर्वहन करेंगे।

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए एडवोकेट दुष्यंत दवे ने इस बात पर चिंता प्रकट की कि इस देश में जब मुसलमान और दलित मारे जाते हैं तब आम लोग खामोशी ओढ़ लेते हैं। उन्होंने पूछा कि अमरीका में जार्ज फ्लायड की हत्या के बाद जिस तरह का जबरदस्त आंदोलन (ब्लैक लाईव्स मैटर) शुरू हुआ वैसा भारत में क्यों नहीं होता। उन्होंने कहा कि न्यायपालिका क्या करती है और क्या नहीं यह तो महत्वपूर्ण है ही, इसके साथ यह भी महत्वपूर्ण है कि देश के नागरिक अपने साथी नागरिकों के दमन पर किस तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। जनमत की आवाज के महत्व को कोई नजरअंदाज नहीं कर सकता। दवे ने कहा कि दरअसल न्यायपालिका के रूख में परिवर्तन भी तभी आएगा जब जनता अपनी आवाज बुलंद करेगी। देश के सामूहिक अंतःकरण की आवाज, परिवर्तन का वाहक बन सकती है।

इस कार्यक्रम में जूम के जरिए लगभग तीन सौ प्रतिभागियों ने हिस्सेदारी की। सभी ने मुख्य वक्ता और कार्यक्रम के अध्यक्ष के वक्तव्यों का स्वागत किया। दोनों से अनेक प्रश्न पूछे गए जिनमें से अधिकांश भविष्य की राह के बारे में थे। जिन लोगों ने कार्यक्रम में शिरकत की उनमें उमा चक्रवर्ती व स्टीवन विलकिनसन जैसे अध्येता, भारत के पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी, न्यायमूर्ति अभय थिप्से, न्यायमूर्ति मदन लोकुर व प्रख्यात विधिवेत्ता प्रशांत भूषण शामिल थे।

असगर अली मेमोरियल लाइफटाईम अवार्ड, सीएसएसएस के निदेशक एडवोकेट इरफान इंजीनियर द्वारा दिवंगत जस्टिस होजवेट सुरेष की पुत्रियों रजनी सुंदर, शालिनी प्रसाद और मालिनी कनाल को प्रदान किया गया। पुरस्कार में प्रशस्ति पत्र व रूपये 25,000 की नकद धनराशि शामिल है। न्यायमूर्ति सुरेश को वंचित वर्गों को न्याय दिलवाने में उनकी अप्रितम भूमिका के लिए जाना जाता है।

सेवानिवृत्ति के पश्चात न्यायमूर्ति सुरेश ने मुंबई के 1992 और गुजरात के 2002 के दंगों की जांच की थी। वे उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीष जस्टिस पीवी सावंत के साथ गुजरात दंगों की जांच के लिए गठित इंडियन पीपुल्स ट्रिब्यूनल तथ्यांवेषण दल के सदस्य थे।
कार्यक्रम में विभिन्न वक्ताओं ने जस्टिस सुरेश के साहस और योगदान की प्रशंसा की और यह उम्मीद जाहिर की कि वे न्याय के लिए लड़ने वाले नागरिकों के प्रेरणास्त्रोत बने रहेंगे।

(अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)