लाइफ इन कोरोना डेज: जो भी है अंदर उसको जीवित रखिये


पढ़ें सतना से दीपक गौतम की कलम से कि “जनता कर्फ्यू” के ठीक बाद लगे पहले लॉकडाउन के वक्त जिंदगी कैसी थी। आज एक साल बाद हम कोविड-19 की वैक्सीन के डोज ले रहे हैं। यह किसी चमत्कार से कम नहीं है।


deepak gautam dp दीपक गौतम
अतिथि विचार Published On :
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देश में एक साल पहले कोरोना महामारी के बढ़ते प्रकोप को देखते हुए 24 मार्च 2020 से 21 दिवसीय पहला लॉकडाउन लागू हुआ था। यूँ लगा कि जैसे जिंदगी घरों में हमेशा के लिए कैद हो गई। पहले लॉकडाउन के वक्त जब कोरोना महामारी जब जिंदगियां लील रही थी। आदमी खुद को बचाए रखने के लिए हर सम्भव कोशिश कर रहा था। पूरी दुनिया ठप पड़ी थी। ठीक उसी वक्त जेहन के अंदर पसर चुके सन्नाटे से जो निकला था, ये ब्लॉग उसी मनोदशा का बयान है।

ये उस वक्त रूह में उठ रही सिहरन के बीच मन से उठी टीस पर लिखी गई एक टीप है। शायद आप याद न करना चाहें कि ठीक एक साल पहले आज के दिन 21 दिन के पहले लॉकडाउन के चार दिन पूरे हो गए थे। इसलिए इसे पढ़िए और गुनिये कि यदि उम्मीद जिंदा रहती है, तो जीवन बचा रहता है। यूँ भी अगर कयामत का दिन आ जाए और कुछ ना बचे, तब भी प्रेम बचा रह जाएगा, क्योंकि प्रेम शाश्वत है।

पढ़ें सतना से दीपक गौतम की कलम से कि “जनता कर्फ्यू” के ठीक बाद लगे पहले लॉकडाउन के वक्त जिंदगी कैसी थी। आज एक साल बाद हम कोविड-19 की वैक्सीन के डोज ले रहे हैं। यह किसी चमत्कार से कम नहीं है।

इन दिनों जब ख़ामोश रातों का सन्नाटा दिन को भी बेधड़क चीर रहा है। एकांत का मधु सरस ही जिंदगियों में घुल रहा है। जिंदगी किसी हॉलीवुड की फिक्शन फ़िल्म की तरह हो गई है। क्या असल है और क्या नकल कुछ समझ नहीं आ रहा है। लगता है जैसे उन्हीं में से कोई एक फ़िल्म चल रही है, जहां तकनीक के इस दौर में होने वाले तरह-तरह के खतरों के बीच दुनिया विनाश के मुंहाने पर खड़ी है और कोई मसीहा उसे बचाता है। लेकिन यहां मसीहा नदारद है, वो कहीं से नहीं आएगा।

इंसान ही खुद का मसीहा है। उसे ही इसका जिम्मा लेना है। ये तो तय है कि ऐसी आपदा प्रकृति के बिगड़े संतुलन का ही परिणाम है। इससे मिले सबक ही हमें याद रह जाएंगे, वही हमें फिर से रचेंगे। एक बड़े परिवर्तन के बाद दुनिया कैसी होगी, इसके अंदाजे अभी से लगाए जा रहे हैं। इंसान जहां एकाकी होकर घरों में अपनों के बीच समय गुजार रहा है, वहीं अपने अंतर्मन को भी लगातार टटोल रहा है। पुरानी स्मृतियाँ साफ झलक रहीं हैं और इस वक्त की ताजा स्मृतियों का गवाह बनने पर भी भरोसा नहीं हो रहा है।

ये तब है, जब एक वायरस ने दुनिया में दस्तक दी है। पूरे विश्व को हिला डाला है। क्या राजा क्या रंक कोई इसके दंश से बच नहीं पा रहा है। प्रिंस चार्ल्स से लेकर ब्राजील और ब्रिटेन के पीएम तक दुनिया भर में 5 लाख से ज्यादा लोग कोविड-19 से संक्रमित हैं और 23 हजार से ज्यादा मौतें दर्ज हैं। इस त्रासदी में इंसानी मौत महज एक आंकड़ा बनकर रह गई है। भारत में भी संक्रमित लोगों का आंकड़ा 700 के पार है, हालांकि मरने वाले 17 ही पहुंचे हैं।

ये आंकड़े और कितना डराएंगे कुछ पता नहीं। जिंदगी आगे कैसी होगी इस पर कई महारथियों ने लिख डाला। इजरायली इतिहासकार युआल नूह हरारी का लेख भी आया है, जो कई अलग तरह के मुद्दों पर हमारी आंखें खोलता है। आने वाले समय की तस्दीक करना सिखाता है और समय रहते चेतने और सजग रहने की मांग करता है, क्योंकि इस महामारी के बाद होने वाले बदलाव अधिक डरावने हैं।

190 से ज्यादा देशों में पैर पसार चुकी ये महामारी चीन से उपजी है, तो उसी की साजिश लगती है, कभी वहां दवा खोजने की बात होती है। कभी संक्रमण पर नियंत्रण की बात होती है, तो कभी लाखों फोन कनेक्शन गायब होने को लेकर मरने वालों की मौत के आंकड़ों के साथ खिलवाड़ की आशंका भी जाहिर होती है। अमेरिका जैसा देश इस महामारी के सामने घुटने टेक रहा है, कभी चीन को जिम्मेदार ठहरा रहा है, तो कभी उसके साथ मिलकर इस महामारी से लड़ने के नए-नए प्रयासों को लेकर इस पर काबू पाने के दावे कर रहा है।

ये विरोधाभास भी कितना तगड़ा है कि आर्थिक मोर्चे पर पूरी दुनिया को धक्का लगा है। शेयर बाजार त्राहि-त्राहि कर उठे हैं। बाजार से लेकर आम इंसानों तक के लिए दुनियाभर की सरकारें अरबों-खरबों के आर्थिक पैकेजों का ऐलान कर रही हैं। और इन सबके बीच ये भी खबरें हैं कि चीन अमेरिका के बाजारों में अपना निवेश बढ़ा रहा है।

ऐसी तमाम आशंकाओं और खतरों के बावजूद दुनिया चल रही है, मौत के तिल-तिल करते बढ़ते आंकड़ों के बीच। सूनी सड़कों, बाजारों, गली, मोहल्लों, मंदिरों, मस्जिदों और गिरिजाघरों से लेकर हर भीड़ वाले स्थलों में पसरे सन्नाटे रूह में घर कर रहे हैं। धूल खा रही किताबें बिस्तर और तकिए के आसपास हैं। पंक्षियों का चहकना पहले से ज्यादा सुनाई देता है। हर तरह के खाने में स्वाद मिल रहा है।

फोन की घण्टी पहले से ज्यादा बज रही है, बेफिक्री हवा हो चुकी है। फिक्रमंद होना भा रहा है। लग रहा है चुन-चुनकर नहीं हर किसी से बात हो जाये जो जिंदगी की किताब में दर्ज है। सबसे जाने-अनजाने किये अपराधों की माफी मांग लें। हर उस शख्स का शुक्रिया कह दें, जो जरा सा भी हमदर्द रहा हो। अंदर इतनी हलचल है, जैसे तूफान उमड़ रहा हो और बाहर एकदम मुर्दा शांति। हम इस दौर के गवाह बन रहे हैं।

मानव इतिहास में कोरोना ने अपने दस्तख़त लाल स्याही से कर दिए हैं। हमें आगे सिर्फ और सिर्फ इस महामारी के परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहना है और मौजूदा हालातों में इससे लड़ते हुए जीना है। यहाँ एक साथ क्या-क्या घटित हो रहा है, जो जैसा अभी इस वक्त है, आने वाले समय में उसी शक्ल में कहीं लिखा मिलेगा या नहीं, पता नहीं। इसलिए इन दिनों को उसी शक्ल में दर्ज होना चाहिए जैसे ये महसूस हो रहे हैं। मैं वही लिख रहा हूँ, जो पिछले कुछ दिनों से जी रहा हूँ।

जिंदगी में क्या होगा, ये तो मैं फिलवक्त नहीं जानता, लेकिन इतना जरूर कह सकता हूँ कि ये हमारी स्मृतियों और उम्मीदों को जिंदा रखने का का दौर है। क्योंकि यहां कुछ भी साफ नहीं है। ना ही इस वायरस की उत्पत्ति न इसके खात्मे के संकेत। क्या ये एक तरह का युद्ध है, जो वायरस से लड़ा जा रहा है और पूरी दुनिया की आर्थिक सेहत खराब करने की बड़ी साजिश। बहुत से सवाल खड़े हो रहे हैं, जिनके उत्तर भविष्य के गर्भ में छिपे हैं।

बहुत हद तक सम्भव है कि इनके जवाब आने वाली पीढ़ियों को मिलें। यदि ये एक साजिश है, तो मुमकिन है कि एक निश्चित समय तक इसका अंजाम भुगतने के बाद दुनिया फिर से पहले जैसी हो सकेगी। शायद तस्वीर इतनी साफ न हो, क्योंकि कुछ खबरें ऐसी भी हैं कि इससे ठीक हुए लोगों को सेहत सम्बन्धी कुछ अलग तरह की समस्याएं भी हो रही हैं, मसलन गन्ध और स्वाद की क्षमता खो देने जैसी बातें भी सामने आ रही हैं।

एक हॉलिवुडिया फ़िल्म कभी देखी थी शायद उसका नाम था “परफेक्ट सेंस” मुझे केवल उसकी नायिका इवा ग्रीन का नाम ही याद आ रहा है। कुल जमा लब्बोलुआब ये था कि ऐसे ही किसी एक वायरस से ग्रसित होने के बाद नायिका के सेंस धीरे-धीरे गायब होने लगते हैं। और वो ये बीमारी नायक को भी ट्रांसमिट कर देती है।

फ़िल्म के एक सीन में जब स्वाद लेने की क्षमता नायक-नायिका खो देते हैं, तो वे साबुन को चॉकलेट की तरह खा रहे होते हैं। म्यूजिक सिस्टम से फुल वॉल्यूम में भी उन्हें संगीत सुनाई नहीं देता है। ठीक-ठीक याद नहीं और मुझे गूगल करने का मन भी नहीं हो रहा है कि आखिर उसमें क्या होता है। लेकिन मेरी स्मृति में जो दृश्य अब तक साफ है, वो ये कि गन्ध, स्वाद और सुनने की क्षमता खो देने के बाद लोग पागल होने लगते हैं और एक दूसरे को जान से मारना शुरू कर देते हैं। उनकी स्मृतियाँ धुंधली होने लगती हैं।

इन सबके बीच नायक और नायिका आखिरी दम तक एक डोर से बंधे रहते हैं और वो था प्रेम। उन्हें और कुछ नहीं आता था सिवाय प्रेम के। इसलिए वो साबुन को निगलने के बाद भी बिना कोई शब्द सुने मौन को साधते हैं और आलिंगनबद्ध होकर एक-दूसरे को चूमते रहते हैं।

मुझे इन दिनों कभी-कभी लगता है कि ये वक्त कुछ ऐसा ही है, जो भी हमारे अंदर है, उसे जीवित रखिये। प्रेम, करुणा, दया, स्नेह, वात्सल्य या और कुछ भी जो कुछ रच सके उम्मीद के काबिल, क्योंकि नाउम्मीद होना मर जाने जैसा है। जिंदगी जिंदाबाद। इश्क जिंदाबाद, आवारगी जिंदाबाद।