भारत में धार्मिक आजादी पर बार बार क्यों टिप्पणी करता है अमेरिका


अमेरिका के गृह विभाग ने सोमवार को धार्मिक आजादी की स्थिति पर भारत समेत कई देशों को लेकर रिपोर्ट जारी की थी। भारत सरकार ने उस रिपोर्ट को खारिज कर दिया। पत्रकार पंकज श्रीवास्तव बता रहे हैं कि आखिर अमेरिका लगातार भारत के खिलाफ ऐसी रिपोर्ट क्यों जारी कर रहा है।


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पंकज श्रीवास्तव

अमेरिका के मशहूर मानवाधिकारवादी अश्वेत नेता डॉ. मार्टिन लूथर किंग जूनियर जब 10 फरवरी 1959 को दिल्ली के पालम हवाई अड्डे पर उतरे तो उन्हें अजब अनुभूति हुई। होटल में प्रेस कॉन्फ्रेंस शुरू होने के पहले उन्होंने एक वक़्तव्य दिया। उन्होंने कहा- “मैं कब से भारत आने का इंतज़ार कर रहा था। मैं कई देशों में गया। ये सब मेरे लिए पर्यटन यात्राएँ थीं। लेकिन भारत की यात्रा मेरे लिए पर्यटन यात्रा नहीं बल्कि एक तीर्थयात्रा है। जो आपके लिए भारत है, उसे मैं गाँधी और नेहरू के नाम से जानता हूँ।”

लेकिन 63 साल बाद हालात पूरी तरह उलट चुके हैं। अब कोई अमेरिकी भारत से प्रेरणा नहीं ले रहा है, उल्टा भारत को नसीहत मिल रही है। अमेरिकी सरकार की ओर से धार्मिक आज़ादी को लेकर जारी ताज़ा रिपोर्ट में भारत में अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न पर चिंता जताते हुए कहा गया है कि भारत में धार्मिक समुदायों को निशाना बनाया जा रहा है। इस रिपोर्ट में भारत को उन देशों की श्रेणी में रखा गया है जहाँ धार्मिक आज़ादी ख़तरे में है। यह प्रधानमंत्री मोदी के नौ साल के शासन की ‘उपलब्धि’ है। इस दौरान भारत की जो छवि बनी है, वह उससे पूरी तरह उलट है जिस पर दुनिया कभी आश्चर्य करती थी। विभिन्न धर्मों, नस्लों, क्षेत्रों में बँटे भारत का संयुक्त रूप से लोकतंत्र की राह पर बढ़ते चले जाना वाक़ई एक अभूतपूर्व घटना थी।

जब डॉ. मार्टिन लूथर किंग जूनियर भारत आये तो महात्मा गाँधी की शहादत को 11 साल बीत चुके थे और पहले प्रधानमंत्री के रूप में प.नेहरू एक नया भारत गढ़ने में जुटे हुए। डॉ. किंग ने दिल्ली में राजघाट में महात्मा की समाधि पर फूल चढ़ाके, अहमदाबाद के साबरमती आश्रम में उनके प्रयोगों से साक्षात्कार करके, मुंबई में गाँधी जी के निवास के रूप में मशहूर ‘मणि भवन’ में एक रात बिताकर, गाँधी के शिष्य विनोबा भावे के भूदान आंदोलन में शामिल हो कुछ किलोमीटर पैदल चलकर जैसे गाँधी की सुगंध पाने की कोशिश की थी। वाक़ई यह तीर्थयात्रा थी और डॉ. किंग अपने आराध्य के हर निशान से प्रेरणा पा रहे थे। महात्मा गाँधी कभी अमेरिका नहीं गये थे लेकिन डॉ.मार्टिन लूथर किंग को अमेरिका ने अपना गाँधी मान लिया गया था जिन्होंने गाँधी की ही तरह अहिंसक सत्याग्रह के ज़रिए अश्वेतों पर ढाये जाने वाले ज़ुल्म के ख़िलाफ़ दुनिया का ध्यान खींचा था।

बहरहाल, भारत की गंध से गाँधी को लगातार ग़ायब किया जा रहा है। यह एक शर्मिंदगी की बात है कि भारत की ओर आज वह अमेरिका उँगली उठा रहा है जो तमाम सामर्थ्य के बावजूद भारत की नैतिक आभा के सामने कमज़ोर पड़ता आया है। आख़िर 1955 यानि क्रांति के 179 साल बाद भी अमेरिका की सरकारी बसों मे अश्वेतों को श्वेतों के बराबर बैठने की आज़ादी नहीं थी या श्वेतों के आने पर उन्हें उठ जाना पड़ता था जिसके ख़िलाफ़ डॉ. किंग ने अपना मशहूर आंदोलन किया था, जबकि भारत के संविधान ने बिना किसी किंतु-परंतु के आज़ादी के तुरंत बाद हर तरह के भेदभाव को ग़ैरक़ानूनी क़रार दिया था।

उसी अमेरिका के गृहमंत्री एंथनी ब्लिंकन ने 15 मई को जब अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता 2022 की रिपोर्ट जारी की तो कहा कि इसका मक़सद उन देशों और क्षेत्रों का नाम उजागर करना है जहाँ धर्म या विश्वास की स्वतंत्रता का दमन किया जा रहा है और इसकी कोई जवाबदेही भी नहीं है। ब्लिंकन ने भारत का नाम लेने से तो परहेज़ किया लेकिन रिपोर्ट में भारत के विभिन्न राज्यों में अल्पसंख्यकों, ख़ासतौर पर मुस्लिमों की हत्या, उनकी सार्वजनिक पिटाई, उनके घरों को बुल्डोज़र से तोड़े जाने की घटनाओं का दस्तावेज़ीकरण किया गया है जिससे इंकार करना मुश्किल है।

अमेरिका का धार्मिक स्वतंत्रता आयोग लगातार चार साल से भारत को उन देशों की सूची में डालने की सिफ़ारिश कर रहा है जहाँ धार्मिक आधार पर उत्पीड़न होता है। भारत सरकार लगतार ऐसी रिपोर्ट्स को ख़ारिज करती रही है, लेकिन अमेरिका में यह मुद्दा बन रहा है। इंडियन अमेरिकन मुस्लिम काउंसिल (IAMC) जैसे संगठन लगातार इसे मुद्दा बनाते रहे हैं। खासतौर पर अमेरिका में आरएसएस और बीजेपी से प्रभावित संगठनों की गतिविधियों को चिन्हित करते रहे हैं। पिछले साल भारत के स्वतंत्रता दिवस पर न्यूजर्सी में बुल्डोज़र के साथ परेड निकाली गयी थी जिसका ज़बरदस्त विरोध हुआ था। बाद में इस परेड में शामिल प्रशासनिक अधिकारियों को माफ़ी भी माँगनी पड़ी थी।

मोदी राज में बनी भारत की यह छवि उसकी पारंपरिक सहिष्णु देश की छवि से उलट तो है ही, ‘भारत नाम के विचार’ को भी चकनाचूर करती है जो अनेकता में एकता और धार्मिक विभिन्नताओं के प्रति सम्मान पर आधारित है। प्रधानमंत्री मोदी जून में अमेरिका जाने वाले हैं, जहाँ इस रिपोर्ट पर उनसे जवाब माँगा जा सकता है। अमेरिकी मीडिया इसके लिए तैयार बैठा है। प्रधानमंत्री मोदी हमेशा की तरह प्रेस कान्फ्रेंस करने से इंकार करने का फ़ैसला कर सकते हैं लेकिन इससे भारत की प्रतिष्ठा पर लगे दाग़ तो धुलेंगे नहीं।

बीजेपी और मोदी सरदार पटेल की बहुत जयजयकार करते हैं। विभाजन के बाद उन झंझावाती दिनों के बीच 12 फ़रवरी 1949 को सरदार पटेल ने आकाशवाणी से देश को संबोधित करते हुए कहा था – “हिंदू और मुसलमान एक ही ख़ुदा के बेटे हैं। सबको हिलमिलकर रहना है।” लेकिन मोदी जी के मुँह से भूलकर भी हिल-मिल कर रहने की नसीहत या हिंदू और मुसलमानों के एक होने की बात नहीं निकलती। उल्टा वे अपने भाषणों में श्मशान और कब्रिस्तान का भी फ़र्क़ बता देते। वे भूल गये हैं कि सरदार पटेल ने कहा था – ““हमारा एक धर्मनिरपेक्ष देश है। यहां हर एक मुसलमान को यह महसूस करना चाहिए कि वह भारत का नागरिक है और भारतीय होने के नाते उसका समान अधिकार है। यदि हम उसे ऐसा महसूस नहीं करा सकते तो हम अपनी विरासत और अपने देश के लायक नहीं हैं।”- सरदार पटेल, सोर्सः पुस्तक- आजादी के बाद का भारत, लेखक- बिपन चंद्र

डॉ. मार्टिन लूथर किंग ने एक महीने के प्रवास के बाद अमेरिका लौटकर कहा था – “भारत एक ऐसी भूमि है जहाँ आज भी आदर्शवादियों और बुद्धिजीवियों का सम्मान किया जाता है। यदि हम भारत को उसकी आत्मा बचाए रखने में मदद करें तो उससे हमें अपनी आत्मा बचाए रखने में मदद मिलेगी।”

(लेखक कांग्रेस से जुड़े है)