
लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के प्रो. रविकान्त ने हाल ही में कांग्रेस के साथ राजनीति में कदम रखा है। दलित मुद्दों पर लंबे समय से सक्रिय रहे रविकान्त का मानना है कि आज संविधान और लोकतंत्र पर गहरा संकट है और ऐसे समय में विपक्ष को मज़बूत करना ज़रूरी है।
उनका कहना है कि दलितों-पिछड़ों को शिक्षा और रोज़गार से वंचित किया जा रहा है, जबकि आरक्षण पर लगातार हमले हो रहे हैं। यही वजह है कि उन्होंने राहुल गाँधी का साथ चुना, क्योंकि वही खुलकर RSS और मनुवाद के खिलाफ़ खड़े हैं।
रविकान्त मानते हैं कि गाँधी और अम्बेडकर विरोधी नहीं, बल्कि एक-दूसरे के पूरक थे। इस इंटरव्यू में उन्होंने साफ़ कहा कि अब लड़ाई संविधान बचाने और लोकतंत्र मज़बूत करने की है।
सवाल: शिक्षा क्षेत्र के बिल्कुल उलट राजनीति में जाने की विचार-प्रक्रिया क्या थी?
जवाब: शुरू में बहुत हिचक थी किसी राजनीतिक दल में जाने के लिए। लगता था जो लोग राजनीति कर रहे हैं वो समाज और बच्चों के लिए बेहतर करेंगे और हम शिक्षा क्षेत्र में रहकर पढ़ने-पढ़ाने का काम करेंगे, समाज को जागरुक करेंगे। हम अपने जीवन को शिक्षण में ही सार्थक पा रहे थे, इसमें तो कोई शक़ नहीं है। हम बाबा साहेब को शिक्षा और सिद्धान्तों को शिक्षण के ज़रिए आगे बढ़ाना चाहते थे। किताबें और लेख लिखना चाहते थे। हम चाहते थे कि हमें संविधान और बाबा साहेब की बदौलत जो मिला है वो हम सोसायटी को वापस दें। लेकिन जब संविधान ही नहीं बचेगा। जब हमारे स्कूलों में ताले लग जाएंगें जब हमारी ज़बानों पर ताला लग जाएगा। जब हमारे-आपके अधिकार खत्म हो जाएंगे, तब हम किसके लिए पढ़ेंगे-पढ़ाएंगे और किसको जागरुक करेंगे। फिर हमें लगा कि इस कीचड़ को खत्म करना है तो इसमें उतरना ही होगा। ये फ़ैसला हमने कोई एक दिन में नहीं लिया। किसी प्रलोभन में नहीं लिया। किसी दबाव या एफआईआर की डर से नहीं लिया। बल्कि समाज के हित के लिए लिया। कितने संघर्षों के बाद में मताधिकार का बुनियादी अधिकार दलितों को हासिल हुआ था आज हमारे मत अधिकार पर हमला हुआ है, ये अंतिम कड़ी थी जिसने राजनीति में उतरने का निर्णय लेने के लिए फोर्स किया।
आप देखिए कि दलित पैन्थर से निकले लोग जाकर लोग हिंदुत्व की गोद में बैठ गये। जो बिहार में सामाजिक न्याय के पुरोधा थे वो समझौता करके संविधान खत्म करने का इरादा रखने वालों के दर के चिराग बन गये। आज जो लोग राजनीति में हैं और समझौता परस्त हैं, दबाव में हैं, झुक जा रहे हैं या खामोश हो जा रहे हैं। इसलिए आज संविधान और लोकतंत्र के सामने जो ख़तरे हैं उनके मद्देनज़र ये ज़रूरत महसूस हुई की राहुल गाँधी के साथ चला जाये। आज अगर हम उनके साथ नहीं जाते हैं और संविधान को बदल दिया जाता है तो आने वाली पीढ़ियाँ माफ़ नहीं करेंगी।
सवाल: अपने राजनीतिक सफ़र के लिए, कांग्रेस ही क्यों चुनी आपने?
जवाब: आज़ादी से पहले दलितों, महिलाओं के पास क्या था। उनका उद्धार तो संविधान लागू होने के बाद हुआ, जब उनके लिए स्कूल खुले, जब सरकारी नौकरियाँ आयीं। दलितों के पास तो ज़मीन भी नहीं था। कोई सांस्कृतिक सम्पदा भी नहीं थी। तो जिस संविधान नें हमें बोलने का अधिकार दिया इन्सान होने का अधिकार दिया और उस संविधान पर जब ख़तरा है जब आरएसएस और मनुवादी लोग कहते हैं कि संविधान बदलना है तब इनके ख़िलाफ़ सबसे बड़ी लड़ाई का कोई ऐलान करता है तो वो राहुल गाँधी हैं।
आज सत्ता का एजेंडा साफ़ है कि कैसे दलितों पिछड़ों को ग़ुलाम बनाना है, कैसे उन्हें शिक्षा, सम्पत्ति और शस्त्र से वंचित करना है, कैसे स्त्रियों को वापस दहलीज़ के भीतर धकेलना है। ये विशुद्ध रूप से मनुवादी लोग हैं। इन्हें देश के संसाधनों, ज़मीनों पर क़ब्ज़ा करना है। जब आज दलितों के बच्चों के सपनों को छीना जा रहा है जहाँ 90 हज़ार स्कूल बंद किया जा रहा है। फेलोशिप खत्म कर दी गयी नौकरियाँ ग़ायब कर दी गयीं आरक्षण को दीमक लग चुका है उस दौर में हमें कई फ़ैसला लेना पड़ेगा और उसके साथ खड़ा होना पड़ेगा जो उस ताक़त से लड़ रहा है जो 100 साल में इस देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने और संविधान और आरक्षण को खत्म करने में लगा हुआ है। आज सरकार महज 66 दलित विद्यार्थियों को देश के बाहर पढ़ने के लिए नहीं भेज पा रही है। कह रहे हैं कि बजट नहीं है, हज़ारों करोड़ रुपये मोदी जी की विदेश यात्रा में ख़र्च होता है और नतीज़ा शून्य निकलता है। दिन में तीन बार वो कपड़े बदलते हैं उसके लिए बजट है। क्योंकि आप दलितों को ज़ाहिल बनाकर रखना चाहते हैं। ये डर रहे हैं कि एक अम्बेडकर विदेश से पढ़कर आया और इनके पूरे ब्राह्मणवाद मनुवाद को ध्वस्त करके रख दिया संविधान बना दिया। 90 हज़ार प्राइमरी स्कूल बंद किया जा रहा है। शराब के ठेके खोले जा रहे हैं। इस देश में दलितों के मोहल्ले में शराब के ठेके खोले जाते हैं और मुस्लिमों के मोहल्ले में पुलिस थाने खोले जाते हैं। एक समाज को डराकर रखा जाता है दूसरे को नशेड़ी बनाया जाता है। ये पूरी साजिश है मनुवाद की।
तो ज़रूरत इस समय विपक्ष को मज़बूत करने की है। लोकतंत्र में सत्ता और विपक्ष दोनों बराबर होते हैं फिर चाहे विपक्ष में 2 ही लोग क्यों न हों। लेकिन ये सत्ता विपक्ष-मुक्त भारत के एजेंडे का लागू करने में लगी हुई है। आखिर जनता की आवाज़ कहाँ होती है? वो विपक्ष के ज़रिये ही आती है। हिन्दुत्व के सामने आज कोई छाती तानकर खड़ा है तो वो अम्बेडकरवाद है। जो अम्बेडकरवाद की तासीर है वो जो संघर्ष का माद्दा है वो प्रतिबद्धता है वो जो लोकंतत्र और संविधान बचाने का आवाज़ है वो आवाज़ कहाँ से निकल रही है। वो आवाज़ कांग्रेस से निकल रही है। इसलिए हम बिना किसी शंका के पूरी प्रतिबद्धता से कांग्रेस के साथ खड़े हुए। समाज के हितों के संरक्षण के लिए, सामाजिक न्याय के लिए, संविधान के लिए मैं कांग्रेस के साथ हूँ। यह कोई एक दिन का फ़ैसला नहीं है। बहुत सोच समझकर लिया गया फ़ैसला है। मैं बाबा साहेब के सिद्धान्तों, नैतिक मूल्यों के साथ कभी समझौता नहीं करुँगा।
कांग्रेस में जाने के आपके फ़ैसले का कुछ लोग विरोध कर रहे हैं, कह रहे हैं कि जो अम्बेडकर के दलित थे, वो अब गाँधी के हरिजन हो गये हैं।
देखिए, पहली बात तो यह है कि मैं एक लोकतांत्रिक व्यक्ति हूँ। जो लोग विरोध कर रहे हैं, उनका स्वागत है। आलोचना हर किसी की होनी चाहिए। लेकिन अगर आलोचना तार्किक हो, तो ज़्यादा अच्छा है, बजाय इसके कि आप, किसी पर कोई लेबल थोपते हैं। यह उचित नहीं है, लेकिन अगर उनके पास कोई तर्क है या मेरे बारे में कोई ऐसे तथ्य हैं जिसको वह रख सकते हैं कि भाई, मैंने बाबा साहब अम्बेडकर के आइडियोलॉजी के ख़िलाफ़ कोई काम किया है, तो वह उनको प्रस्तुत करें, इससे समाज का भी भला होगा।
दरअसल, आपने जिस पार्टी का हाथ थामा है, वह गाँधी की विचारधारा पर चलती है। पिछले एक दशक में आरएसएस-बीजेपी के गाँधी विरोधी प्रोपेगैंडा के समानान्तर बहुजनवादी और सवर्ण अम्बेडकरवादी बुद्धिजीवियों और यूट्यूबरों ने गाँधी और अम्बेडकर के बीच एक बाइनरी खड़ी की है। उसी बाइनरी में ये लोग अपनी दुकान चलाते रहे। इसी बाइनरी के बूते इन्होंने सोशल मीडिया पर अपने समर्थक बनाये, सब्सक्राइबर बनाया और रीच बढ़ायी और ख़ुद को स्थापित किया। आपका विरोध भी यही लोग कर रहे हैं।
यह बात आपने बिल्कुल ठीक कही कि गाँधी और अम्बेडकर के बीच बाइनरी बनायी गयी है। मुझे नहीं लगता कि इस तरह की कोई बाइनरी वास्तव में रही होगी। कांग्रेस की एक कमी यह रही कि उन्होंने दलितों को वोट बैंक के रूप में कभी इस्तेमाल नहीं किया। जैसे एक सवाल यह आता है कि कांग्रेस ने डॉ. अम्बेडकर को भारत रत्न नहीं दिया। दरअसल कांग्रेस ने कभी यह समझा ही नहीं कि दलित हमारा वोट बैंक है और हम केवल बाबा साहब को भारत रत्न दे देंगे तो उससे दलित खुश हो जाएगा। दलितों के हित के लिए 20 सूत्रीय कार्यक्रम इंदिरा गाँधी ने लागू किया। रिजर्वेशन को फॉलो किया, बैक लॉग की भर्तियाँ कीं। वे तमाम चीजें ले करके आये जिनसे दलितों का उत्थान हुआ। लेकिन फिर भी मैं ये मानता हूँ कि हाँ, यह कांग्रेस की चूक है। यह होना चाहिए था। लेकिन इसका एक तर्क यह है कि बाबा साहब 1956 में ही गुज़र गये थे। उस समय यह नियम था कि मरणोपरान्त भारत रत्न नहीं दिया जाता था। तो कांग्रेस पार्टी उस नियम के तहत उनको नहीं दे सकी। दूसरी बात यह कि गाँधी जी और बाबा साहेब में कोई बाइनरी नहीं है। वो एक दूसरे के पूरक हैं, और मैं यह मानता हूँ कि 1930 के बाद गाँधी जी पर बाबा साहब का बहुत असर पड़ रहा है। गाँधी जी चेंज हो रहे हैं।
दूसरा, पूना पैक्ट को लेकर के बहुत ज़्यादा विरोध होता है गाँधी जी का। पूना पैक्ट को मैं एक-दूसरे ढंग से देखता हूँ। मान लीजिए कि पूना पैक्ट नहीं होता और दलितों को पृथक निर्वाचन मिल जाता, डबल वोटिंग का अधिकार मिल जाता। तो मेरा सवाल यह है कि जिस समय देश आज़ाद हुआ और संविधान बना, उस समय क्या पोजीशन होती? सिक्खों को तो पृथक निर्वाचन मिला हुआ था? वो क्या हुआ आज़ादी के बाद? वैसे भी डबल वोटिंग, समानता के अधिकार का हनन भी होता, तो वो खत्म हो जाता। मैं यह कह रहा हूँ। पूना पैक्ट ने एक राजनीतिक आरक्षण के लिए बुनियाद तैयार कर दी जो आज़ादी के बाद आगे भी कांटीन्यू हुआ। क्योंकि रिजर्वेशन को लेकर पूरी कांग्रेस पार्टी में जितने भी शीर्षस्थ सदस्य थे, एक तरह से उनमें आम सहमति हो गई और बाबा साहब का दबाव भी हो गया। पहली बार कांग्रेस पार्टी ने स्वतंत्रता आन्दोलन में बाबा साहब को दलितों का नेता स्वीकार किया और गाँधी जी उनको संविधान सभा में लेकर के गये।
सवाल: आप कह रहे हैं कि गाँधी और अम्बेडकर एक दूसरे के पूरक थे। कैसे?
जवाब: ये जो बामसेफ की ट्रेनिंग रही है दलितों के बीच में, बहुजनों के बीच में सारी गड़बड़ इसी ने की है। मैं यह मानता हूँ कि 1980-90 के दशक में बसपा, बामसेफ के उदय के समय जब गाँधी जी का विरोध हो रहा था, वह शायद उस समय की माँग थी। क्योंकि तब कांग्रेस पार्टी केंद्र सत्ता में थी। लेकिन समस्या यह है कि उस समय भी झूठे झूठे तथ्य पेश किये गए, चाहे पूना पैक्ट हो या उसमें गाँधी बनाम अम्बेडकर की बात हो। जबकि सच्चाई यही है कि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और इस रूप में मैं मानता हूँ। गाँधी जी सवर्णों के भीतर बदलाव लाने की बात कर रहे थे। जब वह बार-बार हरिजन शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं, तो उनका ध्यान दलितों से ज़्यादा सवर्णों पर है। वो सवर्णों को सम्बोधित कर रहे हैं कि ये भी हरिजन हैं तुम्हारी तरह। ये भी वैसे ही ईश्वर के बच्चे हैं, जैसे तुम हो। गाँधी का आग्रह था कि सवर्णों को यह समझना होगा, यह मानना होगा कि उनके पुरखों ने दलितों पर अत्याचार किये हैं और उसको स्वीकार करना होगा। जब उन्होंने बिरला से या बिरला जैसे लोगों से शौंचालय साफ़ करवाया तो छुआछूत को खत्म करना तो उद्देश्य था ही लेकिन वो सवर्णों के भीतर बदलाव ला रहे थे कि आप दलितों को हीन कैसे मान सकते हैं? इस तरह एक ओर गाँधी जी सवर्णों के भीतर बदलाव चाहते थे वहीं दूसरी ओर बाबा साहेब दलितों के भीतर चेतना पैदा कर रहे थे, क्योंकि दलित भी अपने आपको हीन मान रहे थे। तो वो उनके भीतर चेतना पैदा कर रहे थे कि आप कीड़े-मकोड़े नहीं हैं, आप भी इंसान हैं, और इनके बराबर हैं। हम संगठित हो करके लड़ सकते हैं, अपने अधिकारों के लिए खड़े हो सकते हैं। इस तरह ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। सवर्णों में अगर यह बात आती है कि हाँ, हम हमारे पुरखों से ग़लती हुई है और दलितों में चेतना आती है कि हम भी इंसान हैं, तो इसी तरह से, तो ये समतामूलक समाज बनता।
वाम अतिवादी और दक्षिणपंथी अतिवादियों की ही तर्ज़ पर अम्बेडकरवादी अतिवादियों की भी एक जमात तैयार हुई है। जो अपने शत्रुओं के सफ़ाये की बात करती है। तो समाज सुधरकर बदलेगा,?या कि मार-काट और सफ़ाये से बदलेगा?
मैं आपकी इस बात को बाबा साहब से जोड़ दे रहा हूँ। ज्योतिबा फुले जी ने मूल निवासी का कॉन्सेप्ट दिया। उन्होंने ब्राह्मणों को आर्य माना, उनको विदेशी कहा और कहा कि इनको यूरेशिया जाना है। आर्य सिद्धान्त तो विलियम जोन्स की थ्योरी थी। बाबा साहब ने आर्य थ्योरी को अस्वीकार कर दिया। उन्होंने कहा कि अगर ब्राह्मण एक होता तब तो मद्रास का ब्राह्मण और उत्तर भारत का ब्राह्मण एक जैसा होना चाहिए था। उन्होंने कहा कि ये थ्योरी ठीक नहीं है। दूसरी बात यह कि, जब हम एक राष्ट्र बन रहे हैं, तो फिर कोई विदेशी और कोई देशी नहीं होगा। अगर आप करते हैं तो फिर तो आप आरएसएस की तरह बात कर रहे हैं। आरएसएस मुस्लिमों को विदेशी कह रही है, आप कह रहे हैं कि ब्राह्मण विदेशी हैं, हम इनको यूरेशिया भेजेंगे। तो ये तो वही अतिवाद है और मुझे लगता है कि इससे राष्ट्र बनता नहीं है। इससे समाज विभाजित होता है। तो बाबा साहब ने उसको ख़ारिज़ कर दिया, तो हम कौन होते हैं? मैं नहीं समझता कि हम बाबा साहब से ज्यादा समझते हैं चीजों को।
दूसरी बात यह कि बामसेफ की जो ट्रेनिंग है, उसमें प्रोग्रेसिवनेस नहीं है। वह क्यों फेल हो गया? अगर हम इस पर कभी विचार करें कि बीएसपी की पॉलिटिक्स, बामसेफ की पॉलिटिक्स क्यों फेल हुई, तो उसकी मूल वजह है कि उसमें कोई प्रगतिशीलता नहीं है। वो 1990 में भी गाँधी को गाली दे रहे थे और आज भी गाँधी को गाली दे रहे हैं। उन्हें मालूम ही नहीं कि अब हमारी लड़ाई किससे है? उस समय हम मान लेते हैं केन्द्र में कांग्रेस पार्टी थी, तो आपको गाँधी और नेहरू पर अटैक करना था। लेकिन आपके भीतर कोई विवेक नहीं है, जो अपने आप को तथागत बुद्ध का अनुयायी कहते हैं। उनके भीतर विवेकशीलता है ही नहीं। बाबा साहब सीधे तौर पर हिंदू महासभाई और सावरकर और आरएसएस के प्रति सचेत थे और उन्होंने कहा था कि हिंदू राष्ट्र अगर कभी होता है, तो यह दलितों के लिए सबसे बड़ी विपदा होगी। इसलिए किसी भी क़ीमत पर इन्हें रोका जाना चाहिए। और आज वो लोग (बीएसपी और बामसेफ) आरएसएस और भाजपा के पक्ष में तो खड़े हैं। लेकिन उस कांग्रेस का विरोध कर रहे हैं या कांग्रेस में शामिल होने वालों को हरिजन कह रहे हैं। जिस कांग्रेस ने बाबा साहब को संविधान सभा में लाकर के संविधान प्रारूप समिति का अध्यक्ष बनाया, उनके हाथ में क़ानून बनाने की ज़िम्मेदारी सौंपी, ताकि वह सबके साथ न्याय कर सकें। उनको दो-दो बार राज्यसभा भेजा। नेहरू जी उनको कहते थे कि हमारे कैबिनेट के डायमंड हैं। इतना सम्मान दिया। मामला यह है कि चूँकि कांग्रेस ने कभी काउंटर नहीं किया या कांग्रेस का जो थिंक टैंक था वो अम्बेडकर को पढ़ा ही नहीं था, ख़ास बात तो ये है कि वो अम्बेडकर और गाँधी और नेहरू की बहस में पड़ा ही नहीं। उसने कभी जवाब ही नहीं दिया। जब जवाब नहीं दिया, तो वह बामसेफ की ये सारी बातें स्थापित हो गई समाज में। और चूँकि हमारा समाज भी नहीं पढ़ना चाहता है। भाई, सबसे अच्छी बात तो ये होती, मान लीजिए किसी ने जैसे हमने आपसे कहा कि बाबा साहब ने ये बात कही थी, और हमने उसका विश्लेषण किया, तो समाज को तो इतना चेतना-संपन्न होना चाहिए कि वो उसको पढ़े, काउंटर करे, उसको चेक करे कि मैं सही कह रहा हूँ कि ग़लत कह रहा हूँ। मैं मानता हूँ कि हमारे दलित नेताओं ने कुछ ऐसी-ऐसी बातें कही हैं जो सही नहीं थीं। जो अब भी समझ में बनी हुई है। कांग्रेस ने उसका काउंटर कभी नहीं किया।
आप कह रहे हैं कि आरएसएस ही मुख्य समस्या है, कांग्रेस और राहुल गाँधी उसकी शिनाख़्त कर रहे हैं। आप यह भी कह रहे हैं कि कांग्रेस जो बोल रही है, उसको अपने शासन वाले राज्यों जैसे कर्नाटक, और तेलंगाना में लागू कर रही है। तो, बजरंग दल पर बैन लगाने की बात कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने कहा था और धीरे-धीरे दो साल हो गया सत्ता में आये हुए। लेकिन उन्होंने बजरंगदल के ख़िलाफ़ कुछ नहीं किया। दूसरी बात आरएसएस पर कांग्रेस ने बैन पहले भी तीन बार लगाया है? तो, इनके ख़िलाफ़ कोई ठोस योजना है, कांग्रेस के पास कि क्या करना है, कैसे करना है या फिर ऐसे ही बस हवा हवाई बाते हैं?
देखिए, इस पे तो मुझे लगता है कि जो हमारी सेंट्रल लीडरशिप है, वह चिंतन कर रही होगी। लेकिन, मैं एक अनुमान से आपसे बात कर सकता हूँ। कर्नाटक में बजरंग दल की गतिविधियां पहले जैसी नहीं हैं। वो अब साइलेंट मोड पर बैठे हैं। दूसरी बात, चूँकि अभी केंद्र में सरकार है नरेंद्र मोदी की। अभी हम लोगों ने समझौता एक्सप्रेस केस का फ़ैसला देखा। जो लोग इसके लिए लड़ रहे थे। उनको बड़ी निराशा हुई कि जो कोर्ट में सबूतों और गवाहों के बाद भी ऐसा फैसला आया है। लेकिन जब इधर बदलाव होगा, उसके बाद फ़ैसला होगा। लेकिन, मैं समझता हूँ कि राहुल गाँधी जी आरएसएस और हिंदुत्व के ख़तरे को बखूबी समझ गये हैं, जिसको नेहरू जी समझ तो रहे थे, लेकिन वह सोच रहे थे कि ये धीरे-धीरे खत्म हो जाएगा। नेहरू जी को ये महसूस नहीं हुआ, उन्हें लगा कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी को हम कैबिनेट में ले लेंगे, तो ये ख़तरा टल जाएगा या ये धीरे-धीरे सुधर जाएगा। राहुल गाँधी जी को ये बात समझ में आ गई कि ये सुधरने वाले नहीं हैं। अब आरएसएस को पूरे तरीक़े से इस देश में आपको बैन ही करना पड़ेगा। इनकी गतिविधियाँ देश, संविधान जन विरोधी हैं। ये सरेआम मनुस्मृति लागू करने की बात करते हैं, रिजर्वेशन खत्म करने की बात करते हैं। मोहन भागवत भले ही खामोश हों, लेकिन सबको मालूम है कि जो बात कर रहे हैं, चाहे वह बाबा हों, चाहे कोई हिंदूवादी संगठन के लोग हों जो सरेआम मनुस्मृति के आधार पर संविधान बनाने की बात कर रहे हों, ऐसे लोगों को कतई बख्शा नहीं जाएगा। राहुल गाँधी जी का, जो टेंपरामेंट यही है कि ये देश सिर्फ़ और सिर्फ़ डॉ. अम्बेडकर के संविधान से चलेगा। ये देश डेमोक्रेसी ही रहेगा। इस देश में आरएसएस का जो सपना था कि 100 साल में हम हिंदू राष्ट्र बनाएंगे, वो लोग कटघरे में खड़े होंगे और कल उनके साथ संविधान और क़ानून के हिसाब से न्याय होगा। जी। वे बक्शे कतई नहीं जाएंगे। थोड़ा सा मुझे लगता है कि इंतज़ार करने की ज़रूरत है।
सत्ता परिवर्तन तभी होगा जब सत्तासीन लोग विदा हों और दूसरी पार्टी या दूसरे लोग निर्वाचित होकर आयें। लेकिन पिछले 10 सालों में हमने मध्य प्रदेश, गोवा, कर्नाटक और महाराष्ट्र में देखा कि जनता की चुनी हुई अपनी सरकार को, जनता के चुने हुए अपने विधायकों को, बचाने में कांग्रेस अक्षम साबित हुई है। यदि मैं बीजेपी को नहीं वोट देता हूँ, कांग्रेस को देता हूँ। और मेरे वोट से कांग्रेस का विधायक, सांसद निर्वाचित होता है, लेकिन तब भी, मेरे पास ये गारंटी नहीं है कि मैंने जिसको चुना है, वो बीजेपी के साथ उनके पाले में नहीं जाएगा। तो, घूम-फिरकर मैं किसी को भी चुनूँ, आना उन्हीं को तो इस चीज़ को ले करके भी जनता में एक अविश्वास है। क्या इसको लेकर पार्टी में कोई विचार कोई मंथन हो रहा है?
यह सही बात है। चाणक्य के नाम के जो गृह मंत्री हैं, वो ख़रीद लेते हैं, डरा देते हैं और इस बात को ख़ुद राहुल गाँधी जी ने कई बार कहा है। पब्लिकली नहीं बोला है, लेकिन हम लोगों की मीटिंग में उन्होंने बोला है कि जैसे हर जाति ये कहती है कि नहीं साहब, हमारे यहाँ विधायक बना दीजिए। हम लोग ये चाहते हैं कि हमें प्रतिनिधि दे दीजिए। वो इस बात को कहते हैं कि चलिए, मान लीजिए, हम आपके समाज को दो टिकट दिए, आपके दो जीत के आ गए। उन्हें अंबानी और अडानी के पैसे से वो खरीद लेंगे। हमें विधायक से ज़्यादा एजेंडा चाहिए। वह तो बिक जाएगा, डर जाएगा।
लेकिन, इस पर एक दूसरा मेरा काउंटर है कि यह तब ज़्यादा हो रहा था। जब पब्लिक परसेप्शन यह था कि मोदी और अमित शाह विश्व विजेता हैं, विश्व गुरु हैं और सबसे ज़्यादा उनसे पब्लिक डरी हुई थी, नेता डरे हुए थे उनसे, पत्रकार डरे हुए थे। राहुल गाँधी जी ने ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के बाद जो मुहिम शुरू की, “डरो मत, डराओ मत।” उसके बाद पूरा एटमॉस्फियर बदला है। एक मनोवैज्ञानिक बदलाव हुआ है, उससे सिर्फ़ जनता में ही डर नहीं खत्म हुआ, बल्कि विधायकों में भी डर खत्म हुआ है। एक विश्वास पैदा हुआ कि नहीं, यह सरकार, यह जो पार्टी है, वह हमेशा नहीं जीतेगी। यदि डेमोक्रेसी रहेगी, संविधान सबसे मज़बूत है अगर वह सुरक्षित रहेगा, तो यह बाहर भी जा सकते हैं। तो, जो आत्मविश्वास है, उसकी वापस बहाली की है राहुल गाँधी ने, जनता के भीतर भी और नेताओं के भीतर भी। अब डर खत्म हो गया है। तो जो चाणक्य महोदय दबाव बनाते थे, वह दबाव अब कम हुआ है। मुझे नहीं लगता है कि अब वह बिकने वाले हैं। पहले जनता को यह भी लगता था कि नहीं, यह सरकार जीत रही है और इनको वोट मिल रहा है। उसकी वजह क्या है? अभी आप देख रहे हैं बिहार में यात्रा चल रही है। राहुल गाँधी जी को कौन कवरेज कर रहा है? केवल जो समानान्तर मीडिया है, आप जैसे हम जैसे लोग तमाम बात कर रहे हैं। लेकिन गोदी मीडिया पर वह चीज़ नहीं है। गोदी मीडिया पर क्या चलेगा? गया में मोदी जी की रैली क्या हो रही थी? वहाँ पर जिन लोगों को लाया गया, एक आईटीआई का एक लड़का बोल रहा था कि मैं तो आरजेडी का समर्थक हूँ, मुझे यहाँ लाया गया है। महिलाएँ कह रही थीं कि हम तो आँगनवाड़ी में काम करते हैं, तो हमको बस में भरके लाया गया है। तो, भीड़ दिखा करके गोदी मीडिया प्रचारित करता है कि नहीं साहब, मोदी जी का भी जलवा क़ायम है। और देखिए, सरकार वही बनाएंगे। अब क्या है कि राज वह खुल गया है कि ये भीड़ दिखा करके, वो चोरी करके, फर्जी वोट डाल करके, वोट काट करके, यह चुनाव जीतते हैं। माने जनता इनको चुन नहीं रही है। तो, इसने भी लोगों के भीतर कॉन्फिडेंस पैदा किया है कि मोदी हमेशा के लिए विजय रहने वाले नहीं हैं।
सवाल: क्या सत्ता परिवर्तन, मौजूदा चुनाव आयोग के रहते सम्भव है?
जवाब: जनता भी अब चुनाव आयोग पर सवाल खड़ा कर रही है। मैं एक बात बराबर कहता आया हूँ कि 2019 के बाद बीजेपी ने कोई चुनाव नहीं जीता है। सारे चुनाव मैनेज्ड हैं। मैंने सात चीज़ें बतायी थीं बाक़ायदा जिसमें दो चीज़ें ये भी थीं – पने पक्ष मे फ़र्जी वोटर तैयार करना और विपक्ष के वोटों को मतसूची से काटना। अब राहुल जी ने पूरे सबूतों के साथ पेश कर दिया है। तो अब देश के लोगों की आँखें खुल गई हैं। उनको समझ में आ गया कि इधर तो ढोल का पोल है। यह जीत ही नहीं रहा है, यह तो हार भी रहा है। तो जो कॉन्फिडेंस बिल्डअप हुआ है, उसने चुनाव आयोग को कटघरे में खड़ा कर दिया कि बेईमान चुनाव आयोग उनको चुनाव जितवा रहा है। अभी बिहार के एक सर्वे में 59% लोगों ने माना कि राहुल गाँधी जो कह रहे हैं कि यह वोट चोर है, वोट चोर चोरी कर रहा है, चुनाव आयोग करवा रहा है, उससे वह सहमत हैं।
आज चुनाव आयोग की सबसे ज़्यादा साख गिरी है। इस देश की मालिक जनता है। भारत का संविधान देते हुए बाबा साहेब ने कहा था, कि अब राजा रानी के पेट से पैदा नहीं होगा, मतदाता और मतपेटी से पैदा होगा। कम से कम मैं यह तो कह ही सकता हूँ कि दलितों के भीतर यह चेतना है, कि हम संविधान पर कभी हमला नहीं होने देंगे। मैं यह मानता हूँ मैं कि विपक्ष ने ऐसा कोई काम नहीं किया था जो नरेंद्र मोदी को 240 पर रोक लेते। राहुल गाँधी जी ने जब संविधान को हाथ में उठाया तब यह केवल संविधान था जिसने लोगों को अपने आप बीजेपी के खिलाफ़ वोट करने के लिए प्रेरित किया। यह सारी बेईमानी के बावजूद 240 पे अटक गये। वर्ना ये तो जुगाड़ करके 400 जीतना चाहते थे, वोट चोरी करके और फर्जी वोट के ज़रिये। अब आप सोचिए कितना लोगों ने वोट किया होगा जा कर के। सबसे बड़ा जो प्रभाव था पिछली बार कि लोगों ने अपने जाति के कैंडिडेट को वोट नहीं किया है, केवल वोट किया है बीजेपी के खिलाफ़। तब जा कर के यह विपक्ष को जीत हासिल हुई थी।
2019 के चुनावी घोषणा पत्र, में कांग्रेस ने कहा था कि वो इलेक्शन कमिशन को और अधिकार देगी और उनके अधीनस्थ एक चुनावी कोष स्थापित करेगी जो चुनाव के समय पार्टियों को फंड करे। ताकि पार्टियों की प्राइवेट फंडिंग बंद हो। लेकिन कांग्रेस इसे लेकर आगे नहीं बढ़ी, इलेक्टोरल बॉन्ड घोटाले के बावजूद। दूसरी बात चुनाव आयोग की भूमिका पर भी सवाल है। चुनाव प्रक्रिया पारदर्शी और निष्पक्ष नहीं होती तो लोकतंत्र कैसे चलेगा।
बेशक़ चुनाव आयोग और चुनाव प्रक्रिया में बड़े सुधार की ज़रूरत है। राजनैतिक दलों को चंदा मिलेगा, तो चुनाव आयोग के ज़रिए फंडिंग होगी। यह एक ऐसा प्रोसेस है कि जिसे कांग्रेस लेकर आयी थी, लेकिन बिना सर्वसम्मति के यह सम्भव नहीं है।
(प्रोफेसर रविकांत का यह इंटरव्यू पत्रकार सुशील मानव ने लिया)