लोग मुझे नहीं जानते, लेकिन मेरे पोस्टरों को बख़ूबी जानते हैं: अशोक दुबे


विचार तो अपने आप में महत्वपूर्ण होते ही हैं, जो सीधा दिल पर दस्तक देते हैं। इसके साथ ही अगर विचारों को सुंदर लिखावट में पेश किया जाए, तो यह पढ़ने वालों की आंखों को भी अच्छा लगता है। साधारण लिखावट में होने के कारण कई बार लोग अच्छे विचारों को भी नज़रअंदाज़ कर आगे बढ़ जाते हैं।


दिनेश 'दर्द' दिनेश 'दर्द'
साक्षात्कार Updated On :
ashok dubey interview

12 नवम्‍बर 1955 को इंदौर में पैदा हुए जाने-माने कैलीग्राफर अशोक दुबे से मिलकर सहज ही समझा जा सकता है कि ज़िंदगी सचमुच एक रंगमंच है और इस रंगमंच पर एक शख़्स को न जाने कितने ही किरदार निभाने पड़ते हैं। कैलिग्राफी के अलावा, सोशल एक्टिविज़्म के न जाने कितने किरदारों में थोड़े-थोड़े बंटे अशोक दुबे ये मानते हैं कि समाज के प्रति उनके फ़र्ज़ तो बेहिसाब हैं, लेकिन ज़िंदगी सिर्फ़ एक। ग़ालिबन, यही वजह है कि ज़िंदगी का ये मुसाफ़िर थकना-रुकना-बैठना नहीं जानता। अशोक दुबे ने इंदौर के होल्‍कर साइंंस कॉलेज से गणित विषय लेकर एमएससी की और गोल्‍ड मेडलिस्ट रहे, इप्टा के इंदौर सचिव हैं और एक सामाजिक संस्था ‘रूपांकन’ का संचालन करते हैं। प्रस्तुत है हिन्दी कैलिग्राफी के देश भर में जाने-पहचाने नाम बन चुके अशोक दुबे से पत्रकार-शायर दिनेश ‘दर्द’ की बातचीत।

अशोक जी, अपने बचपन, अपने शुरुआती दिनों के बारे कुछ बताइए?

पिता पुलिस सेवा में थे। दादाजी भी अपने ज़माने में तुकोजीराव होल्कर की फौज का हिस्सा रहे। घर में आने वाली पत्रिका ‘कल्‍याण’ और ‘रामायण’  सहित अन्य धार्मिक पत्रिकाओं-पुस्‍तकों से पढ़ने का माहौल बना। कुछ बड़े हुए, तो बड़े भाई के ज़रिए साहित्यिक पुस्‍तकें पढ़ने की ओर रुझान हुआ। उन दिनों उपलब्‍ध बांग्‍ला साहित्यकारों बिमल मित्र, शरतचंद्र, बंकिमचंद्र आदि की तमाम पुस्‍तकें पढ़ डालीं। ‘धर्मयुग’ जैसी पत्रिकाएं भी आती थीं। कहानियों की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘सारिका’ के गोर्की और टॉलस्टॉय विशेषांकों ने ख़ासा असर डाला। लेकिन इनके अलावा किराये पर जासूसी उपन्यास लेकर पढ़ना भी मेरे शौक में शामिल रहा।

पढ़ाई के बाद बतौर रोज़गार 3 बरस इंदौर में ही चोइथराम स्‍कूल के बच्चों को गणित पढ़ाया। इसके बाद नरसिंहगढ़ के शासकीय कॉलेज और नागदा के ग्रेसिम विद्यालय में भी नौकरी की। नागदा में रहने के दौरान ही ट्रेड यूनियन से भी जुड़ने का मौका मिला, और मेरे  दिलो दिमाग़ पर वामपंथी विचारों का गहरा प्रभाव पड़ा। इस बीच इप्टा (भारतीय जन नाट्य संघ) से भी परिचय हो गया। फिर जब कभी इप्टा के कार्यक्रम होते या वाम दल के आंदोलन, उनमें मेरी सक्रियता रहती थी।

कैलिग्राफी की शुरुआत कैसे हुई?

स्‍कूल में सप्‍ताह में एक बार आने वाले सुलेखन के पीरियड में बड़े उत्‍साह से भाग लेता था। एक-एक हर्फ़ सुंदर लिखने की कोशिश करता था। यह नहीं जानता था कि इसे कलात्मक तरीक़े से लिखा जाए, तो यही शैली कैलिग्राफी कहलाएगी। बस, सुंदर लिखने का जुनून था। बचपन से ही इंक पेन से लिखते थे और कोशिश रहती थी कि अक्षर जमा-जमाकर लिखें। लिहाज़ा, राइटिंग भी बचपन से ही अच्छी थी। कॉलेज के नोटिस बोर्ड पर भी मुझसे ही लिखवाया जाता था। उस वक्त तक बाज़ार में स्केच पेन भी नहीं आए थे।

हां, लेकिन सही अर्थों में मेरी कैलिग्राफी का आरंभ 90 के दशक में हुआ। जब 1992 में बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद कर्फ्यू के कारण घर में क़ैद रहना पड़ा। उस दौरान साम्प्रदायिक सद्भावना और सूफ़िज़्म पर कुछ पोस्टर बनाये, जिसे मेरा पहला काम कहा जा सकता है। मुझे ख़ासतौर पर वाम दलों द्वारा कलात्मक तरीक़े से बनाई गई तख़्तियां/पोस्टर ख़ूब आकर्षित करते थे। इन्हें देखने पर सहसा नज़र ठहर जाती थी और बड़ी राहत मिलती थी।

आप हिन्दी कैलिग्राफी करते हैं। दूसरी भाषाओं की कैलिग्राफी के बारे में बताएं। कैलिग्राफी का इतिहास क्या है?

एशिया-अरब के मुल्कों में कैलिग्राफी काफी समृद्ध है। कुरान जैसी धार्मिक पुस्तकों की कैलिग्राफी तो बहुत ही आकर्षक लगती है। पेंटिंग की तरह। भारत में औरंगजेब खुद एक बड़ा कैलिग्राफर रहा और कुरान की आयतें कैलिग्राफी में लिखकर बेचता था जिससे होने वाली आय से वह अपने निजी ख़र्चे चलाता था। अपने कुछ निजी कामों के लिए सरकारी ख़ज़ाने से पैसे नहीं लेता था। उर्दू में भी ख़ूब कैलिग्राफी हुई है और अंग्रेज़ी कैलिग्राफी भी उर्दू की तरह समृद्ध है। इनकी तुलना में देखें तो हिन्दी में कैलिग्राफी का कोई खास समृद्ध इतिहास नहीं रहा। शुरुआती उदाहरणों में इप्टा जैसे सांस्कृतिक संगठनों के कैलिग्राफिकल पोस्टर बने। एक ज़माने में रायपुर से निकलने वाला दैनिक अखबार ‘देशबंधु’ एक साप्ताहिक कॉलम, ‘कविता पोस्टर’ चलाता था, जिसने इस विधा को अपने दौर में काफी लोकप्रिय बनाया। फ़िल्मी पोस्टरों में भी कैलिग्राफी करने का चलन खूब रहा है। ‘रंगीला’ जैसी फिल्मों के लोकप्रिय होने में उनके पोस्टरों ने भी मदद की। हिन्दी के कई प्रकाशक भी किताबों के कवर पर कैलिग्राफी को स्थान दे रहे हैं। ‘जनम’ और ‘सहमत’ जैसी सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाओं ने भी कैलिग्राफिकल पोस्टर बनाने की परंपरा को काफी समृद्ध किया है। पिछले दो सालों से हम कैलिग्राफी में कैलेंडर निकाल रहे हैं। अभी तक हमने कैफी आज़मी की जन्म शताब्दी वर्ष पर और शहरी परिवहन पर केंद्रित कैलेंडर निकाले हैं।

कैलिग्राफी के लिए कंटेंट एवं फॉर्म कैसे तय करते हैं?

जो भी कंटेंट इंसानियत, भाईचारे, प्रेम और तरक्कीपसंद विचारों वाले होते हैं, उन पर पोस्टर बनाने का मन करता है। कंटेंट की तासीर के हिसाब से आर्टवर्क तय करते हैं कि इस कंटेंट को किस कलर में दिया जाये, जिससे तैयार किए गए पोस्टर आकर्षक और कम्यूनिकेबल रहें। लिहाज़ा, कंटेंट को सपोर्ट करता हुआ आर्टवर्क तैयार किया जाता है। दोनों की बैलेंसिंग प्रस्तुति करने की कोशिश रहती है। जब कभी किसी बड़ी एक्ज़िबिशन के लिए काम करते हैं, तो उसमें कलापक्ष का काम अधिकांशत: उज्जैन के चित्रकार मुकेश बिजौले देखते-करते हैं। एक तरह से मुकेश बिजौले के साथ हमारी जुगलबंदी है।

 

कुछ किताबों पर अशोक दुबे की कैलिग्राफी

हिन्दी में कैलिग्राफी को लेकर आपके अनुभव कैसे रहे?

कविताओं का शौक तो था ही। फिर दंगा विरोधी कविताओं के पोस्टर/बैनर बनाना शुरू किए। पोस्टर/बैनर पर आपातकाल के दौरान भवानीप्रसाद मिश्र द्वारा लिखी कविताएं, काव्य संग्रह ‘गीतफ़रोश’ की रचना ‘मैं गीत बेचता हूँ’ आदि कैलिग्राफी के रूप में उतारता था। दोस्तों ने मेरे इस प्रयास को सराहा। इस सराहना ने मेरे इस शौक को और रफ़्तार दे दी।

इसके बाद उज्जैन की कालिदास अकादमी में पहली बार पोस्टर प्रदर्शनी लगाई, जिसका उद्घाटन प्रख्यात कवि शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ ने किया था। यह प्रदर्शनी सांप्रदायिक दंगों के ख़िलाफ़ थी। प्रदर्शनी को उम्मीद से अधिक सराहना तो मिली ही, साथ ही कैलिग्राफी से होने वाली यह पहली आय भी थी।

इसके अलावा ‘पर्यावरण’ विषय पर केंद्रित पुणे में लगाई गई प्रदर्शनी भी काफी सराही गई। कई बार शायरों/कवियों की रचनाओं से अलग, विषय केंद्रित बैनर/पोस्टर भी तैयार किए। महिला दिवस, प्रेम, पत्रकारिता, चुनाव, सूफी परंपरा, साइकिल, नर्मदा बचाओ आंदोलन, विस्थापन, शहरी परिवहन, सरकारी स्कूलों में शिक्षा आदि मुद्दों के लिए कैलिग्राफी की।

कैलिग्राफी अपनी बात कहने का इफेक्टिव मीडियम है। जैसे, हमने कवि वरवर राव और दिल्ली की एक्टिविस्ट सफूरा ज़रगर की रिहाई को लेकर चल रहे आंदोलन पर पोस्टर बनाये, जो पूरे देश भर में और नेपाल तक पसंद किए गए। लोग मुझे नहीं जानते, लेकिन मेरे पोस्टरों को बख़ूबी जानते हैं।

अभी हाल ही में कैलिग्राफी में एक पूरी किताब लिखी है- शायर जावेद अख्तर की शायरी और विचारों पर, जो अमेज़न पर बेस्ट सेलर रही है। इससे पहले मेरी जानकारी में, केवल एक किताब कैलिग्राफी में निकली है और वह है मशहूर पेंटर मकबूल फिदा हुसैन की जीवनी। हालांकि, इसे कैलिग्राफी के बजाय सुंदर हस्तलिपि में लिखी गई किताब कहना ज्यादा बेहतर होगा।

सुंदर हस्तलिपि और कैलिग्राफी में क्या अंतर होता है?

देखिए, अच्छी तरह से लिखे गए अक्षर जो रीडेबल हों, वे सुलेखन या सुंदर हस्तलिपि की केटेगरी में आते हैं, जबकि उसी अक्षर को किसी कलात्मक एनाटॉमी यानी फैलाव और विस्तार के साथ लिखते हैं, तो उसे कैलिग्राफी कहते हैं। अक्षरों को उनके बनावट के तयशुदा ग्रामर से परे जाकर उन्हें एक स्वतंत्र फॉर्म देना कैलिग्राफी है।

इस काम में विचार की भूमिका कितनी रहती है?

विचार तो अपनेआप में महत्वपूर्ण होते ही हैं, जो सीधा दिल पर दस्तक देते हैं। इसके साथ ही अगर विचारों को सुंदर लिखावट में पेश किया जाए, तो यह पढ़ने वालों की आंखों को भी अच्छा लगता है। साधारण लिखावट में होने के कारण कई बार लोग अच्छे विचारों को भी नज़रअंदाज़ कर आगे बढ़ जाते हैं।

इसके विपरीत अगर इन विचारों को सुंदर व आकर्षक तरीक़े से लिखा जाए, तो इंसान एक बार तो रुककर ज़रूर देखता-पढ़ता है। ऐसे में अच्छी लिखावट क़ीमती विचारों को आंखों के रास्ते दिल-ओ-दिमाग़ तक पहुंचाने में बहुत कारगर साबित होती है। शहीद भगत सिंह के विचारों को लेकर भी हमने इसी तरह का कुछ काम किया। कई मशहूर रचनाकारों के लिए भी हाथ चलाए। इनमें कैफ़ी आज़मी, जावेद अख़्तर, मुनव्वर राना, निदा फाज़ली आदि की रचनाओं पर भी विस्तृत शृंखला निकाली।

क्या कैलिग्राफी की कोई प्रोफेशनल ट्रेनिंग भी ली?

सच तो यह है कि ये हुनर मैंने किसी से सीखा भी नहीं है, ना ही इसे व्यावसायिक रूप से किसी को सिखाया। मैंने किसी की व्यक्तिगत फ़रमाइश के लिए कभी कोई पोस्टर नहीं बनाया। केवल उन्हीं पोस्टरों पर काम किया, जो मुझे भीतर तक छू गए।

 

ashok dubey

 

‘रूपांकन’ शुरू करने के पीछे क्या सोच रही?

अपने बचपन के एक सपने को पूरा करने की ओर एक छोटा-सा क़दम था ‘रूपांकन’, जो 2003 में अस्तित्व में आया। दरअस्ल, बचपन में दिनभर खेलने के बाद अपने मोहल्ले के वाचनालय में जाया करता था और वहां काफ़ी कुछ सीखने को मिलता। लिहाज़ा, सोचा कि एक ऐसा केन्द्र शुरू किया जाए, जहां आकर लोग पत्र-पत्रिकाएं व किताबें पढ़ सकें। प्रयास सफल भी हुआ, कुछ ही समय में आसपास के काफ़ी युवा आने लगे, तो कैलिग्राफी के अलावा कुछ साथियों के साथ मिलकर संगीत व नाटक प्रस्तुतियां भी होने लगीं।

हमारा सपना है कि शोषण मुक्त समाज हो, न्यायपूर्ण व्यवस्था हो और समानता के अधिकार के साथ हम एक ख़ूबसूरत दुनिया में जी सकें। भोजन का अधिकार, महिला आरक्षण और अधिकार, युवा व क्रांतिकारी सोच, नर्मदा आदि मुद्दों पर गाहे-ब-गाहे हमारा काम और चर्चा चलती रहती है। ‘रूपांकन’ को रफ़्तार देने के लिए इसकी ख़ुराक़ का इंतेज़ाम हम टी-शर्ट्स, पोस्टर, पेपर बैग आदि बेचकर और कुछ साथियों के सहयोग से करते हैं।

क्या आपके पास इसे सीखने के लिए नये लोग आते हैं ? कैलिग्राफी के भविष्य को आप कैसे देखते हैं?

कुछ जिज्ञासु लोग मुझसे कैलिग्राफी सिखाने लिए कहते हैं तो मैं उन्हें अपने काम करने के वक़्त पर बुला लेता हूं। मेरे काम के दौरान ही वे लोग देखकर सीखते-समझते हैं। इसके लिए अलग से कभी किसी को कोई ट्यूशन नहीं दी, ना ही कोई सेमीनार लगाए। रूपांकन आने वाले बच्चों ने भी जो थोड़ी बहुत कैलिग्राफी सीखी है, वो मुझे काम करते हुए देखकर ही सीखी है।

2-3 दशक पहले लगता था कि कैलिग्राफी डूब रही है, लेकिन अब देखकर तसल्ली होती है कि यह फिर उभरती नज़र आ रही है। दरअसल, इस दौर में जब कम्प्यूटर प्रिंटिंग देख-देख कर निगाहें थक जाती हैं, तब ऐसे में कैलिग्राफी ठीक वैसा ही सुकून देती है, जैसे सूखे जंगल में अचानक कोई हरा-भरा दरख़्त नज़र आ जाए। वास्तव में, कैलिग्राफी धड़कन और ज़िंदगी पैदा कर देती है।

 

(दिनेश “दर्द” पेशे से पत्रकार, मिज़ाज से लेखक, शायर और घुमंतू हैं। आकाशवाणी से कई बार रचनाओं का प्रसारण। पत्रकारिता की शुरुआत “नईदुनिया” से। उसके बाद कई बरस “वेबदुनिया डॉट कॉम” में काम करने और सीखने के बाद फ़िलहाल “लोकमत” समूह में सेवारत।)