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स्थानीय वन विभाग के रेंजर विक्रम चौहान बताते हैं कि बीते साल यहां पांच जोड़े खरमोर पक्षी आए थे और उसके पहले की संख्या भी तकरीबन यही थी। भारतीय वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची-I के तहत खरमोर को उच्चतम स्तर पर संरक्षण दिया गया है। आईयूसीएन (International Union for Conservation of Nature) की रेड लिस्ट में भी खरमोर को लुप्तप्राय जीव के रूप में सूचीबद्ध किया गया है। इसके अलावा भारत में इसे पर्यावरण मंत्रालय द्वारा वन्यजीव आवासों के एकीकृत विकास में पुनर्प्राप्ति के लिए प्राथमिकता वाली प्रजाति के रूप में भी शामिल किया गया है। हालांकि, इसके बावजूद इस पक्षी को बचाने की अब तक की सभी कोशिशें असफल रहीं हैं और खरमोर की संख्या में भारी गिरावट आई है।
आंकड़ों के अनुसार, मप्र में वर्ष 2009 में लगभग 50-55 खरमोर पक्षी होने का अनुमान लगाया गया था, लेकिन उसके बाद इनकी संख्या और भी तेजी से गिरी है। हालत यह है कि अब सरदारपुर की सेंचुरी में खरमोर की संख्या मुश्किल से ही दहाई के अंक तक पहुंचती है।
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तस्वीरः गूगल
खरमोर बरसात के मौसम में जुलाई से अक्टूबर के बीच सरदारपुर के इस इलाके में आता है। यहां वह प्रजनन करता है और अंडे देता है, जिसके बाद वह बच्चों को लेकर उड़ जाता है। खरमोर के लिए यह सेंचुरी बनाने का सुझाव वर्ष 1980 में दिया गया था, जब बॉम्बे हिस्ट्री नेचुरल सोसायटी के पक्षी विशेषज्ञ सलीम अली इस इलाके में आए थे। उस समय उन्हें यहां कुछ खरमोर दिखाई दिए थे। उन्होंने पाया कि यह क्षेत्र खरमोर के आने और प्रजनन के लिए अनुकूल है, ऐसे में उन्होंने राज्य सरकार को यह सुझाव दिया। वर्ष 1983 में यहां पक्षी अभ्यरण्य यानी बर्ड सेंचुरी बनाई गई। उसी समय रतलाम जिले के सैलाना में भी खरमोर के लिए एक दूसरी सेंचुरी बनाई गई थी।
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किसानों की भूमिका और उनकी परेशानी
सरदारपुर के रेंजर विक्रम चौहान बताते हैं कि साल दर साल खरमोर पक्षियों की संख्या में कमी आ रही है। उनकी राय में इसका कारण ग्रामीण भी हैं, जो पक्षी के संरक्षण में वन विभाग का सहयोग नहीं करते।
सरदारपुर में बर्ड सेंचुरी के आसपास कई गांव बसे हैं। उनमें से 14 गांव ऐसे हैं जहां की जमीनों को 40 वर्ष पहले सेंचुरी के लिए रिजर्व या नोटिफाई कर दिया गया था। उन गांवों के किसानों के पास अपनी जमीनें तो हैं, लेकिन उनके पास वह अधिकार नहीं है जो किसी दूसरे जमीन मालिक के पास होते हैं। किसानों की जमीनें न तो सरकार ने ली है और न ही कोई मुआवजा दिया है, बस जमीनों की खरीद-बिक्री पर सरकार ने रोक लगा दी है। ऐसे में किसानों को उस पर लोन भी नहीं मिल सकता है।
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किसानों के मुताबिक, उन्हें उनकी जमीनों पर किसी सरकारी योजना का फायदा भी नहीं मिलता है। वे वर्षों से मांग करते आ रहे हैं कि जिस खरमोर पक्षी के लिए सरकार ने हजारों किसानों की जमीनों पर यह रोक लगा रखी है; वह पक्षी उनकी जमीनों पर आता ही नहीं। ऐसे में उनकी जमीन उन्हें वापस क्यों नहीं दे दी जाती। गांवों की कुल 348.2 वर्ग किमी में फैली 34,812 हेक्टेयर जमीन इस वजह से प्रभावित हो रही है।
इन 14 गांवों में गुमानपुरा, बिमरोद, चिदावड़, पिपलानी, सेमलिया, करणावद, केरिया, धुलैट, सियावड़, सोनगढ़, अमोदिया, तिमाइची, भानगढ़ और महापुरा शामिल हैं। ये सभी ग्राम पंचायत आदिवासी बाहुल्य हैं। इनमें से कई गांवों की जमीनें वन भूमि पर नहीं है, लेकिन खरमोर अभ्यारण्य क्षेत्र में आती हैं।
जमीन पर अधिकार वापस लेने की लड़ाई
इस मामले में किसानों ने लंबी लड़ाई लड़ी है। कई मामले तो कोर्ट भी पहुंचे, लेकिन सफलता नहीं मिली। यहां की पूर्व सांसद सावित्री ठाकुर (2014-2019) ने यह मामला संसद में भी उठाया था। किसान कई बार स्थानीय नेताओं से लेकर मुख्यमंत्री तक अपनी यह परेशानी पहुंचा चुके हैं, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई।
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स्थानीय विधायक प्रताप ग्रेवाल कहते हैं कि सरकार खुद इस काम को टाल रही है। यह अकेले राज्य सरकार के बस की बात नहीं थी, लेकिन अब तो केंद्र की सरकार भी राज्य का सर्मथन करती है तो फिर इसे हल करने में इतना समय क्यों लगाया जा रहा है।
ग्रेवाल आगे कहते हैं, “14 गांवों की जमीन व्यर्थ ही दबी हुई है, जबकि यहां खरमोर पक्षी आता ही नहीं है। खरमोर केवल पानसेमल गांव में आता है, जो वन्य क्षेत्र का गांव है। ऐसे में संरक्षण के बेहतर इंतजाम वहां किए जाने चाहिए, न कि इन गांवों में।”
उनके अनुसार, “खरमोर सेंचुरी एक अच्छा कदम था, लेकिन उसका ध्यान नहीं रखा गया और अब कुछ पक्षियों के लिए हजारों लोगों की जमीनों को बिना किसी ठोस वजह के रोककर रखा गया है, जोकि गलत है।”
इस बारे में धार-महू लोकसभा क्षेत्र से सांसद छतर सिंह दरबार कहते हैं, “यहां खरमोर काफी कम संख्या में आते हैं, लेकिन उनके लिए काफी बड़ी जमीन रखी गई है।”
उनके अनुसार, “पहले ज्यादा जमीन रखने और हाईवे के किनारे जो दीवार आदि बनाए गए थे, वह सभी सेंचुरी को बेहतर बनाने के लिए था। लेकिन, पक्षियों की संख्या अब कम हो रही है और जमीन पर पूरा अधिकार न होने से स्थानीय लोगों की परेशानी बढ़ गई है।”
सांसद आगे कहते हैं, “मैं इस मसले को लेकर कई बार मंत्रालयों में गया हूं। मुझे उम्मीद है कि हमें इस पर जल्द ही कोई सकारात्मक समाधान मिलेगा।”
खरमोर को लेकर वन विभाग एवं ग्रामीणों का मत
खरमोर एक शर्मीला पक्षी है और इसकी संख्या लगातार घट रही है। यही वजह है कि यह पक्षी अब मुश्किल से ही नजर आता है। वन विभाग के अधिकारी कहते हैं कि गांव वाले खरमोर के संरक्षण में मदद नहीं करते। उनके मुताबिक, गांव वाले उनके खेतों में खरमोर के आने की जानकारी नहीं देते। हालांकि, ग्रामीणों से यह पूछे जाने पर कि क्या खरमोर उनके खेत में दिखा; वे कहते हैं कि उन्होंने पिछले करीब 35 साल में कभी खरमोर को अपने सामने नहीं देखा।
ग्रामीण बताते हैं कि “जब भी खरमोर की खबर आती है तो वन विभाग की ओर से कुछ तस्वीरें अखबारों को भेज दी जाती हैं और वही अगले दिन प्रकाशित होती हैं, जिससे उन्हें पता चलता है कि उनके आस-पास खरमोर दिखा है।”
ग्रामीणों के आरोप पर एसडीओ, वन विभाग धार, एसके रणछोरे कहते हैं कि पिछली बार पांच जोड़े खरमोर पक्षी आए थे, लेकिन इस बार एक भी नहीं आया है। हालांकि ये आरोप सही नहीं है कि हम गलत जानकारी देते हैं। जब खरमोर आते हैं तभी हम उनकी तस्वीरें जारी करते हैं। कई पर्यावरणविद भी यहां आते हैं और खरमोर की तस्वीरें लेते हैं।
स्थानीय लोगों की क्या है परेशानी
स्थानीय पत्रकार रमेश प्रजापति बताते हैं कि उनके परिवार की यहां करीब 12 बीघा जमीन है। वह कहते हैं कि इस समय आसपास के इलाकों में कई बड़ी परियोजनाओं पर काम चल रहा है, लेकिन इन 14 गांवों में ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि ये खरमोर सेंचुरी में हैं। कोई बड़ी परियोजना यहां के लिए नहीं बनाई जाती – ऐसे में तमाम विकास के दावे यहां आकर ठहर जाते हैं।
रमेश बताते हैं कि इंदौर से अहमदाबाद तक फोर लेन रोड बनाई जानी थी, लेकिन इस इलाके में माछलिया घाट से यह रास्ता गुजरना था – ऐसे में वन विभाग ने इस पर काफी दिनों तक सहमति नहीं दी थी, उसके बाद इस शर्त पर सहमति दी गई कि माछलिया घाट से पहले सेंचुरी के क्षेत्र में हाईवे के साथ एक साउंड प्रूफ दीवार बनाई जाए, ताकि वाहनों के शोर से ये पक्षी भागे नहीं। दीवार का निर्माण छह महीने पहले ही पूरा हुआ है, लेकिन इससे लोग और भी ज्यादा परेशान हो गए हैं।
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धुलैट गांव में रहने वाले विनोद सिरवी कहते हैं कि दीवार बनने के बाद से किसानों को और भी नुकसान हुआ है। उनके अनुसार, “पहले ही किसान अपनी जमीनों को बेचने के लिए अधिकृत नहीं थे; हालांकि उन्हें उम्मीद थी कि हाईवे बनने के बाद जमीनों के आसपास वे अपना कोई कामकाज शुरू कर पाएंगे, लेकिन दीवार उनके खेतों के सामने बना दी गई जिससे किसानों को नुकसान झेलना पड़ा।”
विनोद बताते हैं कि हाईवे की घोषणा होने के बाद गांव वालों को यह लगता था कि जब नया हाईवे बनेगा तब भूमि का अधिग्रहण होगा और थोड़े समय के लिए ही सही, रजिस्ट्री पर लगी रोग हटेगी; लेकिन ऐसा नहीं हुआ। सेंचुरी के नियमों का हवाला देकर राजस्व और वन विभाग ने एनएचएआई के नाम जमीन कर दी।
सिरवी आगे कहते हैं कि नेशनल हाईवे पर काफी ट्रैफिक होता है और सेंचुरी से दूर के इलाके में लोगों को इसका काफी लाभ मिलता है। वह बताते हैं कि इससे लगा हुआ उनका गांव धुलैट भी है, लेकिन उन्हें इसका कोई लाभ नहीं है। उनके मुताबिक, “धुलैट में बड़े पैमाने पर टमाटर का उत्पादन होता है, लेकिन किसानों को इसका कोई लाभ नहीं मिल पाता।”
विनोद के मुताबिक, “टमाटर को बचाने के लिए किसान यहां फूड प्रोसेसिंग यूनिट लगाना चाहते हैं, लेकिन सेंचुरी के नियमों के कारण न तो इसकी इजाजत है और न ही कोई लोन की सुविधा। ऐसे में इस इलाके का विकास रुक गया है।”
28 साल के नीलेश हामर ने कुछ साल पहले इस सड़क पर एक ढ़ाबा खोला था। जब इंदौर से लेकर अहमदाबाद तक हाईवे बनाने की बात शुरू हुई तो उन्हें उम्मीद थी कि अब व्यापार ठीक होगा, लेकिन दीवार उनके ढ़ाबे के सामने ही खड़ी कर दी गई जिससे अब हाईवे से गुजरने वाले किसी वाहन को उनका ढ़ाबा दिखाई नहीं देता।
“खरमोर हैं या नहीं” – क्या कहते हैं ग्रामीण
धुलैट गांव के अन्य ग्रामीण कहते हैं कि उन्होंने कभी खरमोर नहीं देखा, लेकिन उनकी जमीन उसके लिए बंधित है। बीते कई वर्षों के दौरान वन विभाग को भी इस इलाके में कभी खरमोर नहीं दिखाई दिया है। गांव के लोग इसके लिए कई बार मुख्यमंत्री और प्रमुख सचिव तक से मिले, लेकिन इसका कोई असर नहीं हुआ। गांव के लोग कहते हैं कि अब इस बारे में उपाय नहीं किया गया तो वे आने वाले चुनावों का बहिष्कार करेंगे।
सरदारपुर के पत्रकार अक्षय भंडारी इस मुद्दे को लेकर लगातार सक्रिय रहे हैं। वह कहते हैं कि इस मामले में सरकार देरी करती रही है। करीब 10 साल पहले ही यह समझ में आ गया था कि लोगों को इससे नुकसान हो रहा है, लेकिन तब जरूरी कदम नहीं उठाए गए। उनके अनुसार, “इस मुद्दे पर लोगों को भ्रमित करने की कोशिश की गई”।
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अक्षय बताते हैं कि कई मौकों पर नेताओं को यह कहते सुना गया कि खरमोर एक विदेशी पक्षी है और यह दो देशों का मामला है। यह किसानों से अपनी असफलता छिपाने के लिए किया गया। पत्रकार भंडारी ने 14 गांवों की जमीन बचाने के लिए कई मंचों पर बात की। उन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय तक को कई बार पत्र लिखे और हाल ही में उन्होंने राष्ट्रपति से इस मामले में हस्तक्षेप करने की अपील की है। उन्होंने लिखा है कि इस परियोजना से लाभ तो नहीं हुआ, लेकिन हजारों आदिवासियों की जिंदगी में सुधार की उम्मीद भी खत्म होती गई।
पर्यावरण प्रेमी और इंदौर इलाके के जाने माने बर्ड वॉचर अजय गड़ीकर कहते हैं कि वह बीते करीब 12 वर्षों से खरमोर की तस्वीरें ले रहे हैं। उनके मुताबिक, “अब सरदारपुर सेंचुरी में खरमोर पक्षी न के बराबर आ रहे हैं। जुलाई से अक्टूबर तक अमूमन पक्षी आ जाते हैं, लेकिन अगस्त भी बीत गया है और खरमोर दिखाई नहीं दिए। ऐसे में उनके प्रजनन के तीन महीने का वक्त आधा भी नहीं बचा है।”
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तस्वीर साभारः अजय गड़ीकर
गड़ीकर आगे कहते हैं कि सरदारपुर में इस पक्षी को बचाने की योजना असफल रही है। इसकी अहम वजह इंसानी हितों को ध्यान में नहीं रखना है। अगर लोगों को इससे सही तरीके से जोड़ा जाता तो यह योजना सफल हो सकती थी।
अजय के मुताबिक, यहां खरमोर को बचाने के प्रयास इस तरीके से किए गए कि इंसानों को उससे नुकसान हुआ। लोगों की आर्थिक गतिविधियां रुक गईं और यह उस समय हो रहा था जब आज से करीब 15 साल पहले जमीनों के भाव बढ़ने शुरू हो रहे थे।
अजय बताते हैं कि वे कई और दूसरी बर्ड सेंचुरी में जाते रहते हैं; वहां अक्सर खरमोर नजर आ जाता है, लेकिन सरदारपुर में इलाका बड़ा होने के बावजूद इसकी संख्या बेहद कम है। ऐसे में समझना चाहिए कि इसके संरक्षण योजना में कोई परेशानी है।
जमीनों को डिनोटिफाई करने की प्रक्रिया शुरू
फिलहाल 14 गांवों की जमीनों को सेंचुरी से डिनोटिफाई करने की मांग पर कार्रवाई शुरू हो चुकी है, लेकिन यह कार्रवाई काफी धीमी गति से चल रही है। इसकी वजह राज्य के बाद केंद्र की अनुमति और फिर सुप्रीम कोर्ट के द्वारा बनाई गई एक समिति को उनकी राय के लिए आवश्यक समय देना होता है। इसमें काफी समय लग जाता है।
इस मामले की जानकारी देते हुए प्रदेश के प्रधान मुख्य वन संरक्षक (पीसीसीएफ) असीम श्रीवास्तव कहते हैं कि यह बड़ी परेशानी रही है, लेकिन उम्मीद है कि जल्द ही यह विषय सुलझ जाएगा।
उनके अनुसार, “हमारा प्रस्ताव है कि खरमोर सेंचुरी में जो जमीन वन विभाग के पास है, केवल उसी पर खरमोर की बसाहट के इंतजाम किए जाएं। गांव वालों की जमीन डिनोटिफाई कर दी जाए। इसके लिए केंद्र के नेशनल बोर्ड फॉर वाइल्ड लाइफ से अनुमति मिल गई है और उनके द्वारा यह सुप्रीम कोर्ट की समिति को भेज दिया गया है। अब तक उन्होंने किसी भी प्रकार की आपत्ति नहीं जताई है, ऐसे में उम्मीद है कि यह प्रस्ताव पास हो जाएगा और गांव वालों को उनकी अपनी जमीन पर अधिकार जल्द ही मिल जाएगा।”
हालांकि ग्रामीण कहते हैं कि उनसे इस तरह के वादे पहले भी किए जाते रहे हैं, लेकिन कई साल गुजरते रहे और अब तक कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई।
ग्रामीणों के अनुसार, वे चाहते हैं कि पक्षी इस इलाके में अच्छी तरह से रहें, लेकिन उसके लिए इंतजाम भी बेहतर किए जाएं। लोगों के मुताबिक, पक्षी संरक्षण की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जिसमें इंसानों के हितों का भी ध्यान रखा जाए – क्योंकि प्रकृति इंसान और पशु-पक्षियों के आपसी सामंजस्य से ही अच्छी तरह से चल सकती है।
यह स्टोरी आदित्य सिंह द्वारा मोजो स्टोरी के लिए लिखी गई है। हम इसे साभार ले रहे हैं।