MP में APMC कानून लागू होने के बाद बंदी के कगार पर मंडियां, वेतन के भी पड़ रहे लाले


एपीएमसी एक्ट लागू होने के बाद मंडी समितियों की हालत पस्त हो गई है। प्रदेश की लगभग सभी मंडियों में आवक कम हुई है और आमदनी गिरी है। अनूपपुर जिले की कोतमा मंडी में जून से वेतन नहीं मिला है। प्रदेश की 40-50 मंडियों में वेतन की दिक्कत होने लगी है। मंडी शुल्क में कमी करना दूसरा बड़ा नुकसान साबित हो रहा है जिसके परिणाम अगले महीने से नज़र आने आएंगे।


आदित्य सिंह आदित्य सिंह
बड़ी बात Updated On :

भोपाल। प्रदेश की मंडिया बंद होने के कगार पर हैं। मंडी के कर्मचारी बेरोजगारी के डर से नयी नौकरी तलाश रहे हैं। एपीएमसी कानून के बाद से आवक लगभग गिर चुकी है। जहां-त‍हां कपास और अन्‍य कारणों से मंडिया अगर चालू हैं तो वे भी अगले तीन से चार महीने में बंदी के कगार पर पहुंच जाएंगी। उपमंडियां वैसे ही बंद पड़ी हैं।  

केंद्र सरकार द्वारा लाए गए तीन कृषि कानूनों को लागू करने के बाद खासकर क‍ृषि उत्‍पाद विपणन से जुड़े एपीएमसी के बारे में आशंका जतायी जा रही थी कि अब मंडियां बंद हो जाएंगी। इस आशंका को लेकर देश भर के किसान एक तरफ दिल्‍ली को घेरे बैठे हैं तो दूसरी ओर मुख्‍यमंत्री शिवराज से लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जोर लगाकर आश्‍वासन और पैसा दोनों बांटना पड़ रहा है। फिर भी प्रदेश की मंडियों की किस्‍मत में मौत ही लिखी है, लोगों के अनुभव और आंकड़े इसकी गवाही देते हैं।

न आवक, न वेतन

मंडी कर्मचारियों के संगठन संयुक्त संघर्ष मोर्चा से मिली जानकारी के मुताबिक प्रदेश की करीब 40-50 मंडियों में वेतन देने में मुश्किलें सामने आ रही हैं। कुछ मंडियों में तो कर्मचारियों को बीते कई महीनों से वेतन नहीं मिल पा रहा है। जहां वेतन मिल भी रहा है वहां पैसा अगले कुछ महीनों के लिए ही बचा है।

उदाहरण के तौर पर, अनूपपुर जिले की छोटी सी मंडी कोतमा के सचिव बालगोविंद कोल बताते हैं कि उनके यहां केवल पांच कर्मचारी और दो पेंशनधारी हैं। कर्मचारियों को जून से वेतन नहीं मिला है और पेंशनर्स को मार्च से भुगतान नहीं हुआ है। इन सातों की जिंदगी पर तलवार लटक रही है।

कोल के मुताबिक एक्ट लागू होने के बाद से ही आवक शून्य है। इस बारे में कई बार अधिकारियों को जानकारी दी जा चुकी है लेकिन कुछ नहीं हुआ।

इसी तरह झाबुआ जिले में पेटलावाद और थांदला सहित तीन मंडियां हैं। यहां भी वेतन की मुश्किलें हैं। पेटलाबाद मंडी के सचिव मो. सलीम खान बताते हैं कि उनकी मंडी में दो महीने से वेतन नहीं मिल पा रहा है।

पेटलावाद मंडी की आय में गिरावट का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले साल यहां करीब पांच करोड़ रुपये की आय हुई थी, वहीं इस बार एक करोड़ की ही आय का अनुमान है।

थांदला मंडी सचिव अश्विन वसावा बताते हैं कि उनके यहां सितंबर से आवक रुकी पड़ी है। अब तक पुराना पैसा था जिससे कर्मचारियों को वेतन दे पा रहे थे, लेकिन इस बार वेतन के भी पैसे नहीं हैं।

उन्होंने इस बारे में इंदौर और भोपाल में अधिकारियों को पत्र भेजा था, लेकिन कोई जवाब नहीं आया है। वसावा कहते हैं कि अब हालात ऐसे हैं कि वे अगले कुछ महीनों में वीआरएस लेने वाले हैं।

नरसिंहपुर की मंडी के सचिव आरके गुमाश्ता बताते हैं कि पिछले साल 1-15 दिसंबर के बीच उनकी मंडी की आय 27लाख रुपये थी लेकिन इस साल इस अवधी में 5.17 लाख की आय हुई है। अब शेष पंद्रह दिनों में हुआ व्यापार ही वेतन की दिशा तय करेगा क्योंकि मंडी में मासिक वेतन और दूसरे खर्च ही करीब 13 लाख रुपये  हैं।

नौजवानों के करियर पर लटकी तलवार

प्रदेश की मंडियों में सरकारी नौकरी कर रहे नौजवान एक बार फिर नौकरी खोजने लगे हैं। इन्हें अपने भविष्य की चिंता सता रही है। ये सभी अब दूसरी नौकरी के लिए परीक्षाओं की तैयारियां कर रहे हैं या कोई छोटे-मोटे व्यापार तलाश रहे हैं। वहीं मंडी समितियों में अपनी ज्यादातर नौकरी कर चुके कई वरिष्ठ कर्मचारी अब वीआरएस लेने की तैयारी में हैं।

मध्‍य प्रदेश मंडी बोर्ड के अंतर्गत 259 मंडियां और 298 उपमंडियां हैं। मंडी समितियां ही मंडी बोर्ड को पैसा पहुंचाती हैं और मंडी बोर्ड राज्य सरकार का सबसे बड़ा फाइनेंसर है। प्रदेश सरकार की कई बड़ी योजनाएं इसी मंडी बोर्ड से होने वाली आय से पूरी होती हैं। एपीएमसी एक्ट लागू होने के बाद प्रदेश की सभी मंडी समितियों में आवक गिरी है।

मंडियां जहां पहले ही घाटे में हैं वहीं उपमंडियां लगभग बंद हैं। 259 मंडियों में से 47 मंडियों में दो महीने पहले से ही शून्य आवक हो रही थी।

मंडी बोर्ड ने 2017 में 1500 कर्मियों की भर्ती की थी। इस भर्ती में कई इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट की पढ़ाई कर चुके नौजवानों ने मंडी बोर्ड में नौकरी शुरू की थी। ये नौजवान अब परेशान हैं। इन्‍हीं में एक हैं पुष्पेंद्र अजनारे जो पेशे से इंजीनियर हैं और पहले भारतीय जीवन बीमा निगम में विकास अधिकारी के प्रोबेशन पर नौकरी करते थे।

पुष्पेंद्र अब फिर नई नौकरी खोजने की तैयारी में जुट गए हैं। उनके साथ कई और ऐसे नौजवान सरकारी कर्मचारी हैं जो फिलहाल इसी तरह नौकरी खोज रहे हैं। पुष्पेंद्र के मुताबिक उन्हें सरकार से उम्मीद तो है लेकिन वे अपने प्रयास भी कर रहे हैं क्योंकि नए एक्ट के बाद मंडी बोर्ड पहले जैसा तो नहीं ही होगा।

एपीएमसी कानून के खिलाफ क्‍यों हैं मंडी कर्मचारी

कृषि अध्यादेशों के आने पर मध्यप्रदेश में सबसे पहला विरोध संयुक्त संघर्ष मोर्चा नाम के मंडी कर्मचारियों के संगठन ने किया था। इस मोर्चे के नेता बृजभूषण फौजदार बताते हैं कि कानूनों के विरोध में उनके संगठन ने 3 अक्टूबर को सभी मंडियों को बंद रखा था।

फौजदार के मुताबिक कृषि के इन कानूनों के लागू होने से किसानों के साथ धोख़ाधड़ी तो बढ़ ही रही है, मंडी के मौजूदा और रिटायर्ड कर्मचारियों को भी खासा घाटा होगा।

बृजभूषण फौजदार बताते हैं कि हर नए दिन के साथ तस्वीर बदल रही है। पिछले साल नवंबर की तुलना में  नवंबर 2020 में 60 मंडियों में जहां 90-100 प्रतिशत तक आवक कम हुई, वहीं 90-95 प्रतिशत तक की गिरावट करीब 14 मंडियों में दर्ज की गई है। इसके अलावा  60-90 प्रतिशत तक आवक में गिरावट 52 मंडियों में दर्ज की गई है और 64 मंडियां ऐसी हैं जहां गिरावट 30-60 प्रतिशत तक है।

फौजदार बताते हैं कि पिछले साल मंडी बोर्ड ने इस साल सर्मथन मूल्य पर बीते साल से काफी ज्यादा खरीदी की है। ऐसे में बोर्ड को समर्थन मूल्य के रूप में 372 करोड़ रुपये मिलने हैं। सरकार किश्तों में यह पैसा देती है जिससे सीधा संदेश यह जाता है कि आय तो बनी हुई है लेकिन इस दौरान अलग-अलग जिंस की आवक में कमी की बात छिपा ली जाती है।

ऐसे में अगर अगले साल समर्थन मूल्य पर खरीदी नहीं हुई, तो मंडी बोर्ड की अधिकतम आय दो सौ करोड़ रुपये तक ही होगी।

दो चार सौ करोड़ मतलब ऊंट के मुंह में ज़ीरा

सुनने में अच्‍छा लगता है कि इस साल चार सौ करोड़ की कमाई मंडियों को होगी और अगले साल गिरी से गिरी हालत में 200 करोड़ आ जाएंगे। सवाल उठता है कि क्‍या मंडियों को बचाने के लिए इतना पैसा काफी होगा? आंकड़े कहते हैं- नहीं।

मंडी बोर्ड के कुल कर्मचारियों की संख्या 6500 है, वहीं 1000 अस्थायी कर्मचारी और 2500 पेंशनर्स भी शामिल हैं। इस तरह करीब दस हजार लोगों के लिए मंडी बोर्ड के तहत मंडियों को वेतन और पेंशन जुटाना होता है।  इन सभी पर हर साल 415 करोड़ रुपये खर्च होता है।

इसके अलावा मंडी समितियों के पास प्रदेश भर में 11000 वर्ग एकड़ की जमीनों पर बने सर्वसुविधायुक्त मंडी परिसर और इमारतें हैं जिनके रखरखाव के लिए 200 करोड़ रुपये सालाना खर्च होते हैं। ऐसे में मंडी कर्मचारियों, पेंशनरों और परिसर के रखरखाव पर करीब 615 करोड़ रुपये का सालाना खर्चा है।

मंडी बोर्ड इससे पहले तक 1200 करोड़ रुपये से अधिक कमाई करता था और अपना खर्च निकालकर शासन को देता था।

साफ़ मतलब है कि अगर इस खर्च की पूर्ती नहीं हुई तो न केवल मंडियां बंद हो जाएंगी बल्कि मंडी में काम करने वाले हजारों लोग बेरोजगार हो जाएंगे।

क्या बस दो महीने की दूरी पर है तबाही

हरसूद मंडी की बात करें तो यहां फिलहाल दो-ढ़ाई हज़ार बोरी की आवक है। यहां मंडी प्रभारी मोहनलाल भदेरिया ने बताया कि पुराने पैसे से अब तक मंडी चल रही है लेकिन यह कुछ महीने ही चलेगा।

खरगोन जिले की करही मंडी के सचिव अनिल उजले के मुताबिक उनकी मंडी फिलहाल अच्छी तरह चल रही है क्योंकि इस मंडी को निमाड़ का कपास बचाए हुए है लेकिन कपास अगले महीने खत्म हो जाएगा।

दिसंबर के महीने में भी मंडी समितियों की आय बेहद कम होने की संभावना है। आय का एक बड़ा ज़रिया व्यापारियों से लिया जाने वाला मंडी शुल्क होता है जिसे सरकार ने 1.50 प्रतिशत से घटाकर 0.50 प्रतिशत कर दिया है। यह निर्णय 14 नवंबर से लागू किया गया है।

इस दौरान भी मंडी में अगर आवक होती है तो व्यापारी उसके पैसे भी कैसे देगा क्योंकि यह फैसला नवंबर के आख़िरी दिनों में लिया गया था ऐसे में इससे पहले 14 नवंबर तक व्यापारियों से जो 1.50 प्रतिशत शुल्क मंडी ले रही थी वह भी समायोजित यानी एडजस्ट करना होगा।

इस तरह यदि मंडियों में नवंबर में आवक अच्छी भी रही तो भी आय अच्छी नहीं होगी और आने वाले समय में मंडियों की पहले से ही कम हो रही आय में तीन गुने तक की गिरावट आनी  भी तय है जनवरी से मंडी समितियां और भी बड़े वित्तीय संकट में घिर सकती हैं।



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