गांधी बनाम गोडसे की जंग में बेमानी हुई TINA फैक्टर की बहस


देश को गाँधी और गोडसे के बीच चुनाव करना है और किसी भी संवेदनशील भारतीय के लिए इसमें कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए कि उसे नफ़रत चाहिए या प्रेम!


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अतिथि विचार Published On :
rahul gandhi and gandhi vs godse

पंकज श्रीवास्तव

सोमवार 5 जून की शाम जब कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने अमेरिका से भारत के लिए वापसी की उड़ान भरी, तो भारत का डिजिटल आकाश सबसे बड़े न्यूज़ चैनल के बहिष्कार के नारों से भरा हुआ था। ट्विटर पर यह बहिष्कार ट्रेंड कर रहा था। यह प्रतिक्रिया उन आम भारतीयों की थी जो यौन उत्पीड़न को लेकर न्याय माँग रहीं महिला पहलवानों को लेकर चलाई गयी ग़लत ख़बरों से आहत थे। सिर्फ़ यही नहीं, कई दूसरे चैनल भी अपनी ख़बरों से यह आभास दे रहे थे – “महिला पहलवानों का मुद्दा ख़त्म हो चला है। नाबालिग ने बीजेपी सांसद ब्रजभूषण शरण सिंह के ख़िलाफ़ शिकायत वापस ले ली है और आंदोलन का नेतृत्व कर रहीं साक्षी मलिक रेलवे की अपनी नौकरी पर वापस चली गयी हैं।”

लेकिन जैसे ही पहलवानों ने इस ख़बर को फ़र्ज़ी बताया, मीडिया के ख़िलाफ़ लोगों का ग़ुस्सा फूट पड़ा। यह ग़ुस्सा उसी ‘भारत’ का था जिसे लेकर राहुल गाँधी ने अमेरिका में अप्रवासी भारतीयों के बीच कहा था कि ‘आरएसएस और बीजेपी को कांग्रेस नहीं, जनता हराएगी।’ समझा जा सकता है कि बीजेपी के तमाम नेताओं ने अमेरिका में अपेक्षाकृत बेहद संयत और शांत भाव से की गयी राहुल गाँधी की बातचीत के कुछ बिंदुओं पर क्यों इतनी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी। उन्हें उस बात का अंदाज़ा हो चला है जिसे शायद उन विद्वान विश्लेषकों के लिए समझना मुश्किल हो रहा है जो TINA (देयर इज़ नो आर्टरनेटिव) फ़ैक्टर की दुहाई देते हुए 2024 में नरेंद्र मोदी की हैट्रिक का दावा कर रहे हैं।

निश्चित ही राहुल गाँधी ‘मैं हूँ न!’ की तर्ज़ पर ख़ुद को विकल्प बतौर नहीं पेश कर रहे हैं। न ये कह रहे हैं कि ‘नफ़रत के बाज़ार में मुहब्बत की दुकान’ खोलने की बात कहकर वे कोई नयी बात कह रहे हैं। यहाँ तक कि वे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को भी ‘मौलिक’ न बताते हुए गौतम बुद्ध, वासवन्ना और गुरु नानक की परंपरा को ही आगे बढ़ाने वाली विभूति बता रहे है जिसके मूल में प्रेम, विनम्रता और समता के मूल्य हैं। राहुल इस परंपरा को आगे बढ़ाने वाली कड़ी की तरह ही खुद को पेश कर रहे हैं न कि किसी भी तरह प्रधानमंत्री की कुर्सी पर खुद को बैठाने की जुगत भिड़ा रहे राजनेता की तरह। चूँकि इस तरह की राजनीति या राजनेता किसी बीते ज़माने की बात हो गये थे, इसलिए कई विश्लेषक समझ नहीं पा रहे हैं कि विकल्प व्यक्ति नहीं कोई विचार भी हो सकता है। इसलिए वे 2024 के आमचुनाव को लेकर ‘टीना फ़ैक्टर’ की रट लगाने की ग़लती कर रहे हैं।

ग़ौर से देखिए तो राहुल गाँधी ने 2024 के आम चुनाव के लिए मुद्दा स्पष्ट कर दिया है। इस मुद्दे में ही विकल्प छिपा है। राहुल गाँधी ने साफ़ कहा है कि भारत में लड़ाई ‘गाँधी और गोडसे’ के बीच है। यह बयान तमाम जटिलताओं को एक ऐसे आसान सूत्र में सामने रखता है जिसे समझना किसी के लिए भी मुश्किल नहीं है। राहुल का यह आत्मविश्वास भी गौर करने लायक़ है कि ‘वे एक क्षण के लिए भी नहीं मानते कि बीजेपी को हराया नहीं जा सकता।’

युनिवर्सिटी ऑफ़ कैलीफोर्निया के ‘सेंटेर फ़ॉर साउथ एशियन स्टडीज़’ में बातचीत करते हुए उन्होंने ये भी कहा कि एकजुट विपक्ष आसानी से बीजेपी को केंद्र की सत्ता से बाहर कर सकता है, लेकिन यह एकता अगर किसी ‘विज़न’ के आधार पर नहीं हुई तो काम नहीं करेगी। इस ‘विज़न’ में सांप्रदायिक सद्भाव लेकर जाति जनगणना और ‘जितनी आबादी उतना हक़’ का नारा शामिल है। निश्चित ही, यह उन सभी दलो के लिए एक संदेश है जो कांग्रेस के साथ एक बड़ा मोर्चा बनाकर बीजेपी से लोहा लेना चाहते हैं और इस दिशा में किसी फार्मले की तलाश में हलकान हैं। राहुल का फ़ार्मूला अगर माना गया तो शायद सीटों का गुणा-गणित एक छोटा सवाल बनकर रह जाएगा।

राहुल की इस वैचारिक स्पष्टता से सबसे ज़्यादा परेशान आरएसएस है। राजनीति को चुनावबाज़ दलों की अखाड़ेबाज़ी बताकर खुद को किसी उच्च नैतिक धरातल पर रखने की उसकी रणनीति बेपर्दा हो चुकी है। राहुल बीजेपी से पहले आरएसएस का नाम लेकर स्पष्ट कर रहे हैं कि उनकी निगाह समस्या की जड़ मे है। और यह ‘समस्या’ है भारत को धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणतंत्र बतानेवाले संविधान पर आरएसएस की ओर से होने वाला निरंतर हमला।

हमला करने वालों का ही रूपक ‘गोडसे’ है जबकि इस संविधान को बचाने वाले गाँधी के सिपाही, जिन्होंने सत्य और अहिंसा के पथ पर अडिग रहते हुए सीने पर गोली खायी। यह संविधान उन्हीं गाँधी जी के नेतृत्व में हुए महान उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष का हासिल है। यानी राहुल जब गाँधी और गोडसे के संघर्ष को मूल संघर्ष बताते हैं तो वह स्पष्ट कर देते हैं कि विकल्प को किसी चेहरे में नहीं विचार में ढूँढा जाना चाहिए। यह लड़ाई 562 राजदंडों को दफनाकर भविष्योन्मुखी लोकतांत्रिक भारत बनाने वाली और फर्ज़ी क़िस्से के आधार पर नई संसद में एक नया राजदंड स्थापित करने वाली अतीतजीवी विचारधारा के बीच है। राहुल ने स्पष्ट कहा है कि “भारत संविधान की उपेक्षा बरदाश्त नहीं कर सकता। संविधान पर हमला आयडिया आफ इंडिया पर हमला है।“

राहुल गाँधी मीडिया को भी विपक्ष के परिसर का एक महत्वपूर्ण अंग बताते रहे हैं जिसे कभी अपनी स्वतंत्रता पर नाज़ था और जो मोदी राज में सरकार का पूरी तरह नुमाइंदा (कथित मुख्यधारा का सच यही है) बन चुका है। राहुल गाँधी की छवि ख़राब करने को इस मीडिया ने अकल्पनीय झूठ-छल का सहारा लिया है। ऐसे में ये देखना दिलचस्प है कि राहुल गाँधी की स्वीकार्यता जिस अनुपात में दिनों दिन बढ़ रही है, उसी अनुपात में इस मीडिया की छवि ख़राब होती जा रही है। लोग चौक-चौराहों पर गोदी मीडिया के पत्रकारों को बेइज़्जत कर रहे हैं। महिला पहलवानों के मसले पर फूटा गुस्सा तो एक बानगी है। यह एक तरह से ‘भारत’ की ओर से राहुल को दिया जा रहा तोहफ़ा है।

इसमें शक़ नहीं कि ‘भारत के विशाल समंदर में आये इस विद्वेषकारी तूफान के थमने का समय आ गया है।’ अगर देश का हर कमज़ोर तबका दर्द की हद से गुज़र रहा है तो विकल्प का सवाल केवल राहुल गाँधी की इच्छा का मसला नहीं है। यह देश के सामने जीने मरने का सवाल है। देश को गाँधी और गोडसे के बीच चुनाव करना है और किसी भी संवेदनशील भारतीय के लिए इसमें कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए कि उसे नफ़रत चाहिए या प्रेम!

(लेखक कांग्रेस से जुड़े हैं)