फ्रांस के घटनाक्रम पर एक नजर: धार्मिक स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी में से किसे चुना जाए?


जहां भारत में सार्वजनिक विमर्श में धर्मनिरपेक्षता पर चर्चा कम हो रही है और उसे लांछित किया जा रहा है वहीं फ्रांस में बहुत आक्रामक तरीके से धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत की रक्षा की बात की जा रही है। परंतु दोनों के नतीजे एक से हैं।


नेहा दाभाड़े
अतिथि विचार Updated On :

फ्रांस में राज्य ‘लाईसिटे’ के सिद्धांत में आस्था रखता है जिसका अर्थ है कि न तो राज्य धार्मिक संगठनों के कार्य में हस्तक्षेप करेगा और ना ही धार्मिक संगठन, राज्य के कार्यकलापों में। “इस सिद्धांत के अंतर्गत धार्मिक आस्थाओं का सकारात्मक प्रदर्शन प्रतिबंधित है। तो फिर उनके नकारात्मक प्रदर्शन पर भी रोक क्यों नहीं होनी चाहिए?” यह कहना था राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व अध्यक्ष और विधि आयोग के पूर्व सदस्य प्रोफेसर ताहिर महमूद का। प्रोफेसर महमूद “धार्मिक स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रताः टकराव का स्वरूप – फ्रांस, इस्लाम और मुसलमान” विषय पर 3 नवंबर 2020 को सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म (सीएसएसएस) द्वारा आयोजित एक वेबिनार में अपने विचार व्यक्त कर रहे थे। वेबिनार का आयोजन एक मुस्लिम चेचन किशोर द्वारा पेरिस में एक स्कूल अध्यापक सैम्यूअल पेटी का गला काटने की घटना के संदर्भ में किया गया था।

ऐसा आरोपित है कि पेटी ने अपने विद्यार्थियों को पैगम्बर मोहम्मद के ऐेसे कार्टून दिखाए थे जो मुसलमानों की दृष्टि में पैगम्बर को अपमानित करने वाले थे। इस घटना के बाद फ्रांस के नाईस में तीन निर्दोष नागरिकों को मार डाला गया। फ्रांस में हुईं इन हिंसक घटनाओं से धार्मिक स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर एक विश्वव्यापी बहस छिड़ गई है।

इस बहस में फ्रांस के राष्ट्रपति इमेन्युल मेक्रान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में खड़े दिख रहे हैं। उन्होंने यहां तक कहा है कि विवादित कार्टूनों को प्रदर्शित करने का अधिकार, फ्रांस के राष्ट्रीय चरित्र का अभिन्न अंग है। इस घटनाक्रम के चलते फ्रांस में मुसलमानों को अलगाव का सामना करना पड़ रहा है और उन पर तरह-तरह की तोहमतें लगाई जा रही हैं। वेबिनार में सभी वक्ताओं ने फ्रांस में धर्म के नाम पर हो रही हिंसा की बिना किसी लागलपेट के कड़ी निंदा की।

मौलाना आजाद विश्वविद्यालय में इस्लामिक अध्ययन के एमेरिटस प्रोफेसर अख्तरउल वासे ने कहा कि “धर्म के नाम पर किसी भी तरह की हिंसा की भर्त्सना की जानी चाहिए, फिर चाहे यह हिंसा दुनिया के किसी भी हिस्से में हो रही हो और इसके शिकार किसी भी धर्म के लोग क्यों न हों”।

फॉदर विक्टर एडविन का कहना था कि वे पैगम्बर मोहम्मद पर बनाए गए विवादास्पद कार्टूनों के प्रकाशन के जितने विरोधी हैं उतने ही विरोधी वे किसी भी धर्म या विचारधारा के नाम पर हिंसा के भी हैं। फ्रांस के सांथ ड स्यांस ह्यूमेन (मानव अध्ययन केन्द्र) में मुख्य शोधकर्ता डेजां-तुमा मखटेली ने फ्रांस में निर्दोषों की हत्या को अत्यधिक जघन्य अपराध निरूपित किया। इसके साथ ही वक्ताओं ने यह भी कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता असीमित नहीं हो सकती और उसके नाम पर धार्मिक स्वतंत्रता को कुचलने की आजादी नहीं दी जा सकती।

प्रोफेसर ताहिर महमूद ने कहा कि दुनिया भर के देशों के संविधानों और समय-समय पर जारी मानवाधिकार घोषणापत्रों में से किसी में भी न तो धार्मिक स्वतंत्रता और ना ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को असीमित विस्तार दिया गया है और यह बात फ्रांस के मामले में भी सच है। उन्होंने कहा कि फ्रांस में ‘लाईसिटे’ के सिद्धांत के अनुसार अपनी धार्मिक पहचान का सार्वजनिक प्रदर्शन प्रतिबंधित है। उदाहरण के लिए, वहां मुस्लिम महिलाएं हिजाब नहीं पहन सकतीं, सिक्ख पुरूष पगड़ी नहीं बांध सकते और ईसाई क्रास लटकाकर सड़कों पर नहीं घूम सकते। परंतु इसी सिद्धांत के अंतर्गत किसी धर्म या धार्मिक पहचान का नकारात्मक प्रदर्शन भी प्रतिबंधित होना चाहिए।

पैगम्बर मोहम्मद पर बनाए गए अपमानजनक कार्टून, इस्लाम की नकारात्मक छवि प्रस्तुत करते हैं और इसलिए फ्रांस जिस तरह की धर्मनिरपेक्षता की वकालत करता है उसके अंतर्गत इन कार्टूनों को भी प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि फ्रांस की सरकार कुछ धर्मों के नकारात्मक चित्रण को प्रोत्साहित कर रही है जिसके कारण वहां मुसलमानों को अलगाव का सामना करना पड़ रहा है और समाज में परस्पर बैर बढ़ रहा है। प्रोफेसर महमूद ने फिनलैंड के विदेश मंत्री को उद्धत किया जिन्होंने कहा था कि “फ्रांस में अश्वेत अफ्रीकियों को अपमानित करने को नस्लवाद कहा जाता है, वहां यहूदियों को अपमानित करने वाले को यहूदी-विरोधी (एंटी-सेमिटिक) कहा जाता है परंतु इस्लाम के अपमान को अभिव्यक्ति की आजादी की संज्ञा दी जाती है।

डेजां-तुमा मखटेली ने कहा कि धर्मनिरपेक्षता के संबंध में फ्रांस का दृष्टिकोण और नीतियां अत्यधिक आक्रामक हैं। वहां धर्मनिरपेक्षता की नीति मूलतः इसलिए अपनाई गई थी क्योंकि कैथोलिक चर्च, जो वहां के सबसे बड़े धर्म का संस्थागत प्रतिनिधि था, राज्य के काम में हस्तक्षेप कर रहा था। परंतु अब वहां धर्मनिरपेक्षता, अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने का उपकरण बन गई है। उन्होंने भारत और फ्रांस में धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत की विकास यात्रा की तुलना करते हुए कहा कि इन दोनों देशों में जो हो रहा है वह एकदम विरोधाभासी है परंतु उसके नतीजे एक से हैं- इसने संकीर्ण राष्ट्रवाद को जन्म दिया है जिसमें अल्पसंख्यकों के लिए उचित और पर्याप्त स्थान नहीं है। उन्होंने कहा कि जहां भारत में सार्वजनिक विमर्श में धर्मनिरपेक्षता पर चर्चा कम हो रही है और उसे लांछित किया जा रहा है वहीं फ्रांस में बहुत आक्रामक तरीके से धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत की रक्षा की बात की जा रही है। परंतु दोनों के नतीजे एक से हैं।

भारत में धर्मनिरपेक्षता पर जोर न देने के कारण एक संकीर्ण साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद जड़ पकड़ रहा है जिससे अल्पसंख्यक समाज की मुख्यधारा से कट रहे हैं। फ्रांस में धर्मनिरपेक्षता पर बहुत जोर दिया जा रहा है जिससे वहां भी यही हो रहा है। मखटेली ने कहा कि सन् 1968 में स्थापित शर्ली एब्दो समाचारपत्र अपनी शुरूआत से ही अराजकतावादी रहा है और आज भी है।

इस समाचारपत्र का घोषित उद्धेश्य समाज में रूढ़िवादिता को चुनौती देना है। परंतु यह विडंबना है कि आज इस समाचारपत्र को फ्रांस में ‘लाईसिटे’ और राष्ट्रीय पहचान का प्रतीक और एक मानक बताया जा रहा है। उन्होंने कहा कि फ्रांस में हिंसा की जो हालिया घटनाएं हुई हैं वे देश की सामान्य प्रवृत्तियों को प्रतिबिंबित नहीं करतीं बल्कि वे अपवाद हैं। उन्होंने कहा कि जो लोग इस तरह की हिंसा कर रहे हैं वे न तो अभी-अभी मुसलमान बने फ्रांसीसी नागरिक हैं और ना ही फ्रांस में बसे प्रवासियों की दूसरी पीढ़ी से हैं जिन्हें ऐसा लग रहा है कि इस्लाम या उसकी संस्कृति खतरे में हैं। हिंसा करने वाले देश में हाल में आए प्रवासी हैं। यह तथ्य इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे यह पता चलता है कि हिंसा करने वालों के तार दूसरे देशों से जुड़े हुए हैं। अतः यह मानना गलत होगा कि यह हिंसा फ्रांस के मुस्लिम नागरिकों के कट्टरपंथ की ओर आकर्षित होने का सुबूत है।

फॉदर विक्टर एडविन ने धर्मशास्त्र और इतिहास के ग्रंथों का हवाला देते हुए कहा कि ईसाईयों और मुसलमानों के बीच सामंजस्यपूर्ण संबंध रहे हैं। पैगम्बर मोहम्मद को अपमानित करने वाले कार्टूनों के प्रकाशन की कड़ी आलोचना करते हुए उन्होंने कहा कि वे न केवल मुसलमानों को ठेस पहुंचाने वाले हैं वरन् उनसे ईसाई भी अपमानित महसूस करते हैं क्योंकि इस्लाम और ईसाई धर्म दोनो ही एक खुदा में आस्था रखने वाले दीन हैं और कैथोलिक चर्च अपने अनुयायियों से कहता है कि वे अपने मुसलमान भाईयों और इस्लाम का सम्मान करें।

ईसाईयत अपने अनुयायियों को सभी धर्मों का सम्मान करना सिखाती है और उन लोगों का भी जो किसी धर्म में विश्वास नहीं रखते। कार्टूनों के प्रकाशन को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर उचित ठहराए जाने के संदर्भ में उन्होंने कहा कि सन् 2015 में पोप फ्रांसिस ने कहा था कि पैगम्बर पर कार्टूनों का उपयोग मुसलमानों को भड़काने के लिए नहीं होना चाहिए और ना ही उन्हें इस आधार पर औचित्यपूर्ण ठहराया जाना चाहिए कि वे अभिव्यक्ति की आजादी का प्रतीक हैं।

फॉदर एडविन ने ईसाईयों और मुसलमानों के परस्पर संबंधों के इतिहास की चर्चा करते हुए कहा कि संभवतः पैगम्बर मोहम्मद और नाज़ारेथ के ईसाई एक दूसरे के संपर्क में आए थे। यद्यपि उनकी आस्थाएं और विचार एक-दूसरे से अलग थे परंतु उनके बीच सार्थक संवाद हुआ था। उन्होंने याद दिलाया कि लागोस (नाईजीरिया) में बसे मुस्लिम शरणार्थियों ने किस तरह वहां के समाज से सामंजस्य बिठाया और नाईजीरिया की प्रगति में अपना योगदान दिया। उन्होंने कहा कि जहां अरब के ईसाईयों ने इस्लाम का सकारात्मक आकलन किया और पैगम्बर साहब की प्रशंसा की वहीं पश्चिमी दार्शनिकों और इतिहासविदों ने पैगम्बर साहब के बारे में अपमानजनक बातें कहीं और इस्लाम के संबंध में नकारात्मकता फैलाई।

उन्होंने कहा कि आज पूरी दुनिया में जिस तरह का ध्रुवीकरण हो गया है उसके चलते यह जरूरी है कि सभी आस्थाओं के लोगों के साथ संवाद स्थापित किया जाए और उनमें इस्लाम की बेहतर समझ विकसित की जाए। उन्होंने कहा कि इस्लाम के बारे में नकारात्मक सोच की जड़ें अज्ञानता में हैं और अन्य धर्मों के लोगों का मुसलमानों और इस्लाम से संपर्क-संबंध जितना बढ़ेगा, इस्लाम के बारे में व्याप्त गलत धारणाओं और मिथकों में उतनी ही कमी आएगी। उन्होंने जोर देकर कहा कि धार्मिक स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दोनों मानव जाति के लिए एक बराबर महत्व रखती हैं और दोनों के बीच कथित टकराव का सकारात्मक हल निकाला जाना चाहिए। यह हल ऐसा होना चाहिए जिससे विश्व स्तर पर बंधुत्व को बढ़ावा मिले और सभी मनुष्यों की गरिमा को अक्षुण्ण रखा जा सके।

प्रोफेसर अख्तारूल वासे ने फ्रांस में हो रही हिंसा की निंदा करते हुए कहा कि अभिव्यक्ति की आजादी की कोई न कोई सीमा अवश्य होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि अभिव्यक्ति की आजादी, मानवता के लिए अपरिहार्य है परंतु हमें यह ध्यान भी रखना होगा कि इस आजादी से किसी को हानि न पहुंचे और किसी का अपमान न हो। उन्होंने कहा कि धार्मिक स्वतंत्रता की भी यह शर्त है कि आप अपने धर्म का आचरण करने के लिए स्वतंत्र हैं परंतु दूसरे धर्मों के देवताओं, पैगम्बरों और सिद्धांतों का मजाक उड़ाने का हक आपको नहीं है। प्रोफेसर वासे ने आगे कहा कि जब तालिबान ने अफगानिस्तान में बुद्ध की प्राचीन मूर्तियों का विध्वंस किया था तब उन्होंने इसकी कड़ी निंदा की थी।

प्रोफेसर वासे ने मुसलमानों से अपील की कि वे क्षमाशील बनें। इस सिलसिले में उन्होंने पैगम्बर साहब का उदाहरण दिया। उन्होंने कहा कि पैगम्बर साहब जब भी एक वृद्ध महिला के घर के नीचे से निकलते थे वह महिला उन्हें गालियां देती थी और उन पर कचरा फेकती थी। परंतु पैगम्बर साहब ने न तो कभी बदले में उससे कुछ कहा और ना ही उससे पूछा कि वह ऐसा क्यों करती है। एक दिन जब पैगम्बर साहब उसी सड़क से गुजर रहे थे तब उन पर कचरा नहीं फेका गया।

वे तुरंत उस महिला के घर पहुंचे और उन्होंने पाया कि वह बहुत बीमार है। महिला को लगा कि पैगम्बर साहब उसे बहुत खरी-खोटी सुनाएंगे। परंतु उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया बल्कि उन्होंने उस महिला की प्रेमपूर्वक देखभाल की।

इस प्रकार अपनी क्षमाशीलता और दयालुता से पैगम्बर साहब ने उस महिला का दिल जीत लिया। क्षमाशीलता और दयालुता, पैगम्बर मोहम्मद की सबसे महत्वपूर्ण शिक्षाएं हैं जिनसे दुनिया भर के मुसलमानों को सीख लेनी चाहिए। उन्होंने कहा कि मुसलमानों को अपने अखलाक नहीं भूलने चाहिए। इससे मुसलमानों की छवि सुधरेगी, विशेषकर दुनिया के उन क्षेत्रों में जहां उनकी छवि एक असहिष्णु और हिंसक समुदाय की बन गई है। उन्होंने मुसलमानों से अनुरोध किया कि कोरोना काल के चलते वे सड़कों पर उतरकर विरोध न करें, विशेषकर ऐसे समय में जब बहरीन जैसे देश इजराइल के नजदीक आ रहे हैं। उन्होंने कहा कि दुनिया के सभी लोगों को सहिष्णु और क्षमाशील बनना चाहिए और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के सिद्धांत के अनुरूप आचरण करना चाहिए।

सीएसएसएस के निदेशक और लेखक इरफान इंजीनियर ने वेबिनार का संचालन किया। उन्होंने भी फ्रांस में हुई हिंसा बिना किसी किंतु-परंतु के आलोचना की। कुरान को उद्धत करते हुए उन्होंने कहा कि इस्लाम सभी धर्मों के लोगों की धार्मिक और अभिव्यक्ति की आजादी का सम्मान करता है। उन्होंने कहा कि इस्लाम अपने अनुयायियों से किसी की जान लेने को नहीं कहता और ना ही हिंसा को उचित ठहराता है।

कुरान कहती है कि एक व्यक्ति की रक्षा करना पूरी मानवता की रक्षा करने के समान है। उन्होंने कहा कि फ्रांस के दुर्भाग्यपूर्ण घटनाक्रम का इस्तेमाल मुसलमानों को निशाना बनाने के लिए नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि कोई भी विविधतापूर्ण समाज तभी जिंदा रह सकता है जब उसके सभी सदस्य शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के सिद्धांत के अनुरूप आचरण करें। वेबिनार में लगभग 150 लोगों ने हिस्सेदारी की और वक्ताओं के विचारों को ध्यानपूर्वक सुना।

(अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)