मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव 2023: भ्रष्टाचार की सियासत, जनतंत्र की आफत


एमपी में राजनीतिक सामंजस्य का वातावरण रहता रहा है। कभी भी एक दूसरे पर निजी आक्षेप कम ही लगाए जाते हैं। इस चुनाव में पोस्टर वार की शुरुआत इसके विपरीत संकेत दे रहा है।


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अतिथि विचार Published On :
kamalnath vs shivraj singh chouhan

सरयूसुत मिश्रा

चुनाव आते ही करप्शन की सियासत शुरू हो जाती है। राजनीतिक दल एक दूसरे को करप्ट साबित करने के लिए भ्रष्टाचार-भ्रष्टाचार खेलने लगते हैं। करप्शन नाथ-करप्शन राज की जुबानी और पोस्टर जंग में एमपी पर करप्शन प्रदेश का दाग लगने लगा है।

करप्शन नाथ शीर्षक से प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ के भ्रष्टाचार और घोटालों के शहर में चस्पा पोस्टरों से राजनैतिक तापमान बढ़ गया है। मानसून की आहट के बीच करप्शन के डैम अगर ईमानदारी से खोले जाने लगे तो मध्यप्रदेश को करप्शन की बाढ़ से बचाना मुश्किल हो जाएगा। पॉलिटिक्स में कभी भी किसी राजनेता ने करप्शन स्वीकार नहीं किया है। इसके विपरीत हर राजनेता दूसरे राजनेता को करप्ट बताने का मौका नहीं छोड़ता है। कौन राजनेता कितना करप्ट है, कौन ज्यादा करप्ट है, कौन कम करप्ट है, इसको मापने का पैमाना भारत में तो अभी तक विकसित नहीं हो पाया है।

जहां राजनेता पॉलिटिक्स को ही अपना प्रोफेशन मानते हैं वहां करप्शन राजनीति का छुपा हुआ अंग ही कहा जाएगा। एमपी के संदर्भ में देखा जाए तो पिछले चुनाव में कमलनाथ ने करप्शन के मुद्दे पर जन आयोग बनाने का वायदा किया था। 15 महीने की उनकी सरकार में भ्रष्टाचार के किसी भी आरोप पर कोई भी तथ्य साबित नहीं किया जा सका। अब जब उनके खिलाफ भ्रष्टाचार और घोटालों के पोस्टर चस्पा हुए हैं तब कमलनाथ भी अपनी प्रतिक्रिया में यही कह रहे हैं कि अगर उनकी सरकार में कोई भ्रष्टाचार था तो तीन साल से चल रही वर्तमान सरकार ने कोई भी कार्यवाही या जांच क्यों नहीं की? केस दर्ज क्यों नहीं किया?

पॉलीटिकल करप्शन का सबसे दुखद पहलू यही है कि इस पर जुबानी वार तो खूब किया जाता है लेकिन जब भ्रष्टाचार को उजागर करने और एक्शन लेने का समय आता है तो फिर चुप्पी साध ली जाती है। सरकारों की इसी चुप्पी को राजनेता अपने बचाव में उपयोग करते हैं और कमलनाथ भी ऐसा ही कर रहे हैं। इसके पहले जब कांग्रेस सरकार थी तब भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई जांच नहीं होने पर बीजेपी ने भी इसी तर्क का सहारा लेकर उनकी सरकार को पाक साफ साबित करने का प्रयास किया था। सबसे भयानक पहलू यही है कि सरकार में सिस्टम द्वारा भ्रष्टाचार की शिकायतों पर क्लोज़र लगाया जाता है और चुनाव के समय पोस्टरों पर करप्शन का डिस्क्लोजर किया जाता है।

जब तक कोई पकड़ा नहीं जाए, सजा नहीं हो, तब तक किसी को भी करप्ट कहना ना तो मर्यादित है और ना ही विधिसम्मत है। करप्शन पर परसेप्शन की अगर बात की जाएगी तो कोई भी सिस्टम ईमानदारी के आसपास टिक नहीं सकेगा। ऐसा लगता है कि यह भी राजनीति का एक हिस्सा है कि भ्रष्टाचार को उजागर करने का ड्रामा किया जाए। भारतीय जनमानस ड्रामा देखने का अभ्यस्त है। ड्रामे में कहे गए तथ्यों को पब्लिक केवल समय गुजारने के रूप में ही लेती है उस पर गंभीरता से विचार नहीं किया जाता। इसी मानसिकता का राजनीतिक जगत खूब उपयोग करता है। जनमानस में तो भ्रष्टाचार मुश्किल को हल करने की जुगाड़ के रूप में सर्वमान्य हो चुका है। इस तरह के पोस्टर वार भ्रष्टाचार पर असल बहस को ढकने का ही काम करते हैं।

वर्तमान हालातों को देखकर तो ऐसा कहा जा सकता है कि भ्रष्टाचार जनसेवा की व्यवहारिक जरूरत है। करप्शन की ऊर्जा सिस्टम की सुस्त मशीन में जान डाल देती है। राजनेताओं के गुलाबी चेहरे और बुढ़ापे में जवानी का राज भ्रष्टाचार की संभावनाओं में ही छिपा हुआ है। जिस तरह का पॉलीटिकल सिस्टम देश में काम कर रहा है उसमें तो करप्शन राजनीतिक जरूरत भी प्रतीत होता है। जरूरत और लालच का गांधीवादी बैलेंस राजनेताओं की संपत्ति और एशोआराम वाली जिंदगी में दिखाई पड़ता है। कोई भी राजनेता जिसका कोई उद्योग ना हो, कोई कमाई का घोषित जरिया सार्वजनिक न हो, वह हवाई जहाज और हेलीकॉप्टर पर कैसे उड़ता है इस पर तो कोई अब सवाल भी नहीं उठाता। करप्शन के मामले अब सिस्टम में गिफ्ट और रिटर्न गिफ्ट के रूप में उपयोग किए जाने लगे हैं।

कमलनाथ के खिलाफ शहर में घोटालों से जुड़े चस्पा पोस्टर को लेकर कांग्रेस जहां बीजेपी को जिम्मेदार बता रही है वहीं बीजेपी इससे पल्ला झाड़ते हुए इसे कांग्रेस के अंदर की उठापटक बता रही है। चुनावी जीत भले ही सत्ता का अवसर दे लेकिन इससे राजनेता के प्रति धारणा में कोई अंतर नहीं आता।15 महीने की कांग्रेस सरकार में कामकाज के तरीके और जिस तरह के अफसरों को उच्च पदों पर अवसर दिए गए थे उन पर करप्शन के आरोप अदालतों में भी चल रहे थे।

सरकारी सिस्टम में गैर सरकारी लोगों की भूमिका बढ़ाकर भी राजनेता सिस्टम पर नियंत्रण और अपनी पसंद की थोपते हैं। सीएम सचिवालय में ओएसडी के रूप में प्राइवेट लोगों की भरमार कांग्रेस सरकार के समय से ही शुरू हुई है। चुनाव के पहले विपक्षी दल, सत्ता पार्टी के खिलाफ आरोप पत्र जारी करते हैं। पिछले चुनाव के समय भी ऐसे आरोप पत्र जारी किए गए थे। निश्चित रूप से इस चुनाव में भी आरोपपत्र सामने आएंगे लेकिन इन आरोपों पर जब एक्शन का समय आता है तब चुप्पी साध लेना जनता के लिए भ्रष्टाचार को सर्वमान्य करने को मजबूर करता है।

करप्शन नाथ शीर्षक से शुरू हुआ पोस्टर वार अभी तो चुनाव प्रचार की शुरुआत है। चुनाव तक तो सियासी गेम में अभी ऐसे कई ओवर सामने आने की संभावना है। एमपी में राजनीतिक सामंजस्य का वातावरण रहता रहा है। कभी भी एक दूसरे पर निजी आक्षेप कम ही लगाए जाते हैं। इस चुनाव में पोस्टर वार की शुरुआत इसके विपरीत संकेत दे रहा है।

किसी भी राजनेता पर इस तरह से करप्शन के आक्षेप लगाना विधि संगत नहीं कहा जा सकता। किसी के खिलाफ परसेप्शन बनाने के लिए इस तरह के प्रयास राजनीति के अलावा कुछ नहीं है। जो भी भ्रष्टाचार या घोटालों के खिलाफ संघर्ष करना चाहता है उसके लिए कानून के अंतर्गत मंच उपलब्ध है। ऐसा नहीं है कि प्रदेश में ऐसा पहले नहीं हुआ है। पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी ने तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के खिलाफ भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों को हाईकोर्ट ले जाकर राजनीतिक संघर्ष किया था। केवल पोस्टर निकालने से राजनीतिक छींटाकशी जरूर होगी लेकिन इससे कोई हल नहीं निकलेगा।

जहां तक राजनीतिक सिस्टम में भ्रष्टाचार का प्रश्न है तो कोई भी दल इससे अछूता नहीं है। पूरा सिस्टम ही करप्शन की गिरफ्त में है। अब तो यहां तक हो रहा है कि जनता के लिए भी करप्शन कोई गंभीर मुद्दा नहीं बचा है। जनता स्वयं अपनी मुश्किल हल करने के लिए करप्शन का सहारा लेने के लिए मजबूर है। डिजिटल सिस्टम से कुछ सुधार जरूर हुआ है लेकिन अभी जनता को भ्रष्टाचार की आफत से बचाने के लिए राजनीतिक सिस्टम में आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत है।

(आलेख लेखक की सोशल मीडिया पोस्ट से साभार)