कॉर्पोरेट से तोहफ़े लेकर सवाल पूछने का आरोपों का नैतिक पक्ष


महुआ के साथ राहुल गांधी और संजय सिंह के मामले पर भी विचार करना चाहिए क्योंकि तीनों ने अडानी पर ही सवाल उठाए थे।


सुमित सिंघल सुमित सिंघल
अतिथि विचार Published On :

महुआ मोइत्रा एक बार फिर चर्चा में हैं, उन पर एक व्यापारी दर्शन हीरानंदानी से पैसा लेकर संसद में सरकार से तीखे सवाल पूछे, सवाल जिनसे सरकार की छवि धूमिल हुई। उस व्यापारी ने अब खुद ये हलफनामा देकर कहा है कि महुआ को उन्होंने ऐसा करने के लिए कहा था। संसद में पैसा लेकर सवाल पूछने जैसे आरोपों के बारे में पहले भी बातें होती रहीं हैं।

सांसदों को मिलने वाले उपहारों कोई नई बात नहीं है। देखा जाए तो ये न केवल तात्कालिक रूप में टीएमसी की सांसद के लिया उजागर हुई बात है बल्कि ये तो नेहरू  के समय से हो रहा है।

हमारे देश में नोटबंदी और आर्थिक बदलाव के बावजूद आज भी जनता को उम्मीद है कि संसद के सदस्यों का काम जनता के हित में होगा और उनके ऊंचे नैतिक मानक  होंगे और हर सवाल जो संसद में होगा वो समाज की बेहतरी के किया गया होगा।

हालांक, हमें वास्तव में समाज में नेताओं के आचरण के बारे में सोचने की आवश्यक्ता है। पिछले कुछ सालों में खबरों में कई बार देखा गया है कि संसद के सदस्यों को कॉर्पोरेट से महंगे उपहार प्राप्त होते हैं। ये उपहार गहने, शराब, मोबाइल फोन और कई बार तो महंगी कारें तक होते हैं। इनकी अब गिनती नहीं हो सकती है। यह सब बातें जो आपको अच्छे समय में हास्य का अनुभव कराएंगी, लेकिन गहरे तौर की सोच में बहुत असंतुष्ट करेंगी । इन सदस्यों के लिए ये कोई विचलित एवं चिंता का विषय नहीं है।

ये प्रश्न खड़े हो जाते हैं कि क्या राज्यसभा और लोकसभा में जनता के इन प्रतिनिधियों को इतनी महंगी चीजें लेनी चाहिए? क्या ये किसी धनी व्यक्ति या व्यापारी द्वारा प्रदान की जाती हैं, तो क्या ये कोई रिश्वत है? जबकि आम जनता को एक साधारण कार्यक्रम के दौरान सिर्फ निम्न राशि की सौगात मिलती है तो सांसदों को इतने महंगे उपहार क्यों मिलते हैं, क्या ये न्यायसंगत है?

लेकिन मुद्दा केवल एक सांसद के सवालों के लिये उपहार या संसद की आईडी पर किसी कॉर्पोरेट का कंट्रोल होना ही नहीं है। आरोप तो ये है कि उन सवालों से किसी एक कॉर्पोरेट घराने को कौन सा फायदा मिला है। इस पर महिला सांसद और उनके दोस्त के बीच निजी संबंधों से जुड़ा जो एक एंगल इस मामले में जुड़ा है वो इसे और भी पेचीदा  बना देता है। हालांकि यह एक निजी मामला है ऐसे में इस पर बहुत चर्चा करना ठीक नहीं।

इसके अतर ये उदाहरण भी सामान्य तौर पर देखा जा सकता है कि हमारे संसदीय नेताओं को किसी भी तरह के उपहारों में कितनी दिलचस्पी होती है और इन आकांक्षाओं को कुछ कॉर्पोरेट घराने भाप लेते हैं।

वर्तमान में TMC की महुआ से जुड़े इस विवाद के बारे में न्यायशास्त्र की दृष्टि से सोशल मीडिया में प्रस्तुत हो रहे प्रश्नों के लिए समान तर्क देना हो तो भी क्या सरकार को फर्क नहीं पड़ेगा ? बाकि सांसदों या काफी संसद दुनिया भर में लॉबिंग के शिकार होते है, कुछ जानबूझ कर या कुछ अनजाने में।

अभी बड़ा सवाल ये है की ये सभी आरोप हीरानंदानी ग्रुप के दर्शन हीरानंदानी के एफिडेविट से खड़े हुए हैं। महुआ ने हीरानंदानी ग्रुप को लाभ देने वाले प्रश्नों पर संसद में प्रश्न किया है। शायद ऐसा हो सकता है लेकिन सवाल यह भी उठता है कि क्या ये प्रश्न आम आदमी के प्रश्न नहीं थे?

जैसे कि महुआ के द्वारा एक स्टील की कीमतों पर सवाल था और मूल ध्यान स्टील की कीमतों में उछाल की ओर था, एक सोच विशेष के लोग कहते हैं कि यह प्रश्न सीधे हीरानंदानी ग्रुप को ही लाभ देने के लिए किया गया था क्योंकि इंफ्रास्ट्रक्चर में हीरानंदानी ग्रुप ही है, लेकिन तथ्य यह है कि स्टील की क़ीमत सिर्फ हीरानंदानी ग्रुप को ही तकलीफ़ देती हैं।

महुआ द्वारा पूछा गया एक और सवाल परादीप पोर्ट के संबंध में था। जो आदानी (ए.पी.टी.एल) के GAIL और IOCL के साथ MOU पर आधारित था, इसमें निश्चित रूप से बिजनेस प्रतिस्पर्धा की एक दृष्टि है, हालांकि इस मामले में जांच सही तरीके से होती है और न्याय पारदर्शी तरीके से होता है तो उम्मीद की जा सकती है कि जनता के सामने सबकुछ सही तरीके से आएगा।

अगर विपक्षी दलों की मानें तो एक बात जो राहुल गाँधी, संजय सिंह और महुआ में सामान है  वो यह कि इन सभी ने अडानी समूह पर सवाल किए हैं। अब मुद्दा अगर दूसरे एंगल से देखें तो ये समझ आता है कि कार्रवाई तो तीनों पर हुई है या हो रही है लेकिन अगर ये साबित हो जाता है कि महुआ ने अपनी इच्छा से अपना लॉगिन और पासवर्ड दर्शन हीरानंदानी को ही देकर ऐसा करवाया था तो उनकी मुश्किलें कम होने की बजाए बढ़ जाएंगी।

जैसा कि आरोप धन के बदले में प्रश्न पूछने का है लेकिन यह साबित होना बाकी है और केवल महुआ के महंगे लाइफस्टाइल के कारण उन्हें गलत साबित नहीं किया जा सकता क्योंकि उनका कैरियर ही एक बड़े बैंकर के तौर पर शुरू हुआ था और कहा जाता है कि उन्होंने राजनीति में आने से पहले करोड़ों की यह नौकरी छोड़ दी थी। वे बड़े घराने से ताल्लुक रखती हैं और एक धनाढ्य जीवन शैली जीती रहीं हैं। ऐसे में उनकी जीवन शैली देखकर उन पर केवल आरोपों के आधार पर भरोसा कम करना भी ठीक नहीं। ऐसे में जांच का इंतज़ार किया जाना चाहिए न कि मीडिया ट्रायल, जो कई बार गलत साबित हो चुका है।

हमें समझना जरूरी है कि जब भी कॉर्पोरेट गिफ्ट देता है तो उसके बदले में कुछ मांगता जरूर है और यह मांग किसी न किसी तरह देश की आर्थिक स्थिति पर भी असर डालती है। आने वाले दिनों में सुप्रीम कोर्ट में जो राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे को लेकर सुनवाई होनी है। इस मामले के महुआ के मामले के साथ देखा जाना चाहिए और विचार करना चाहिए कि महुआ के मामले से यह मामला कितना अलग है।

ऐसे में सवाल यह भी है कि जब कॉर्पोरेट किसी राजनीतिक दल को चंदा देते हैं तो वह किसी सांसद को दिए गए चंदे से कितना अलग कहा जा सकता है क्या राजनीतिक दल भी कॉर्पोरेट से लिए गए चंदे के बाद उनकी बेहतरी के लिए काम नहीं करते और अगर वे ऐसा करते हैं तो वे भी क्या महुआ की तरह दोषी होने चाहिए हालांकि इस निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि क्या सचमुच उन्होंने किसी व्यावारी से केवल मुद्दा लिया था या फिर सवाल का  तैयार पूछने का अधिकार भी उसे दिया था!