इन लोगों ने दीप जलाए, पटाखे नहीं और दिवाली पूरे उत्साह से मनाई


ये लोग हैं “क्लीन एयर चैंपियन्स” यानी जीवनदायी स्वच्छ वायु के लिए व्यक्तिगत प्रयास कर रहे पैरोकार


सुधीर गोरे सुधीर गोरे
हवा-पानी Updated On :

भारत के सबसे बड़े त्योहार दीपावली के दिनों में पटाखों से होने वाले प्रदूषण पर चर्चा तो बहुत होती है, लेकिन कुछ बिरले लोग ऐसे हैं, जो पूरी शिद्दत से वायु प्रदूषण से निजात पाने के लिए अपने स्तर पर योगदान दे रहे हैं। आइये मिलें कुछ “क्लीन एयर चैंपियन्स” यानी जीवनदायी स्वच्छ वायु के लिए व्यक्तिगत प्रयास कर रहे पैरोकारों से…

मिसाल बना दास परिवार, स्वच्छ वायु के लिए पटाखों के बगैर दिवाली

मालविका दास और उनका परिवार, वसुंधरा, गाजियाबाद: जब उनकी बेटियों श्रेयोशी और उशोशी ने स्कूल में वायु प्रदूषण के हानिकारक प्रभावों के बारे में समझा और दिल्ली एनसीआर में इसके प्रभाव का अनुभव किया, तो आतिशबाजी के बिना दिवाली मनाने का फैसला किया।

उत्तर प्रदेश के वसुंधरा, गाजियाबाद की स्कूल संचालक मालविका दास और उनका परिवार कई वर्षों से प्रदूषण ना बढ़े इस कारण पटाखों के बगैर दीपावली मना रहा है। उनकी दोनों बेटियों श्रेयोषी, 19 वर्ष और उशोषी, 16 वर्ष ने बचपन में ही पटाखों से दूरी बना ली। दास बताती हैं, “करीब 10-12 साल पहले मेरी दोनों बेटियां छोटी थीं तब हम (माता-पिता) खुद पटाखे लाकर उन्हें देते थे, तब तो यहां इतना वायु प्रदूषण महसूस भी नहीं होता था। लेकिन जब उन्होंने स्कूल में वायु प्रदूषण के दुष्प्रभावों के बारे में पढ़ा और कुछ समय बाद इसे महसूस भी किया तो खुद ही पटाखों के बगैर दिवाली मनाने का निर्णय ले लिया।

“बढ़ते एक्यूआई के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट रोकता है, तो हम क्यों फोड़ें पटाखे?”

वाजपेई परिवार, इंदौर, मध्यप्रदेशः “पटाखों के कारण एयर क्वालिटी इंडेक्स बढ़ जाता है और सुप्रीम कोर्ट अगर प्रतिबंध लगा रहा है, तो हमें भी सोचना चाहिए। हम पटाखे “बिल्कुल नहीं फोड़ते”।

इंदौर के सेवानिवृत्त रेडियोग्राफर शिवाकांत वाजपेई भी दिवाली हर्षोल्लास से मनाते हैं लेकिन पटाखे “बिल्कुल नहीं फोड़ते”। वाजपेई कहते हैं, “मान लो कोई छोटा बच्चा है, सो रहा है, हमने पटाखा छोड़ा, वह उसकी आवाज से उठ जाता है और उसकी मां उसे घंटे भर चुप नहीं करा पाती। या फिर अस्थमा से पीड़ित कोई वरिष्ठ नागरिक है, आपने पटाखा छोड़ा और धुएं की वजह से खांसते-खासते उनका बुरा हाल हो जाता है। तो किसी जीव मात्र को अगर हमारी वजह से इतनी तकलीफ हो तो त्योहार मनाने का यह तरीका बेकार है। परिवार के सदस्य भी पटाखे नहीं फोड़ते।” इस दिवाली सोशल मीडिया पर भी प्रदूषण के खिलाफ मोर्चा संभाले हुए हैं। उनका कहना है, दिल्ली से लेकर इंदौर तक कई जगह पटाखों के कारण एक्यूआई कितना बढ़ा है। सुप्रीम कोर्ट जब पटाखों पर प्रतिबंध लगा है तो हमें यह सोचना चाहिए कि हम पटाखे फोड़ कर कैसी खुशी मना रहे हैं।”

साफ हवा के संकल्प में सिंह को मिला बेटों का साथ

अतुल सिंह का परिवार, बेंगलुरु, कर्नाटक: सिंह के बेटों, आयुष और आरुष ने अपनी पढ़ाई में जो सबक सीखा था, उसे अमल में लाए और दिवाली के दौरान पटाखे नहीं फोड़ने का निर्णय लिया। उनके माता-पिता भी यही चाहते हैं।

दिल्ली एनसीआर से दूर बेंगलुरू में स्नैडर इलेक्ट्रिक प्रा. लि. में काम कर रहे 46 साल के अतुल सिंह का भी ऐसा ही अनुकरणीय परिवार है, जो वायु प्रदूषण के बुरे असर को किसी भी वजह या तर्क के आधार पर अनदेखा किए बगैर कई साल से बिना पटाखों के दिवाली पर्व पूरे उल्लास के साथ मना रहा है। सिंह, उनकी पत्नी श्रीमती अंजु और दोनों बेटे आयुष, 20 वर्ष और अरुष, 16 वर्ष दिवाली मनाने के लिए दीप जलाते हैं, पटाखे नहीं। अतुल सिंह कहते हैं, “बच्चों ने पहल की और और हमारे संकल्प में साथ दिया। उन्होंने अपनी शिक्षा पर अमल किया और कहा जब हम पटाखे नहीं जलाएंगे तो पैरेंट्स भी नहीं जलाएंगे।

 

  मुखर्जी सर जब बारह साल के थे तब से बना ली थी पटाखों से दूरी

सुनीत मुखर्जी, रोहतक, हरियाणा: बिना पटाखे फोड़े धूमधाम से दिवाली मनाते हैं, स्वच्छ वायू का यही संदेश उन्होंने अपने छात्रों को दिया। यूनिवर्सिटी में दिवाली मिलन समारोह बगैर आतीशबाजी मनाया।

इसी कड़ी में रोहतक, हरियाणा में महर्षि दयानंद यूनिवर्सिटी के पत्रकारिता और जनसंचार विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर और जनसंपर्क विभाग के निदेशक सुनीत मुखर्जी का कहना है, “मैं दीवाली का त्योहार पूरे उत्साह से मनाता हूं, लेकिन पटाखे नहीं फोड़ता।” 53 साल के मुखर्जी इसकी मूल वजह विस्तार से बताते हैं, “1982 में जब मैं 12 साल का था तब दीवाली के साथ-साथ पटाखे फोड़ने का उत्साह था। मैंने बहुत जिद कर के पटाखे मंगवाए थे। करीब 90-100 किलोमीटर दूर हिसार से पिताजी 182 रुपए के पटाखे लेकर आए, तब यह अमाउंट बहुत बड़ा होता था। मैंने खूब पटाखे फोड़े। उसी कड़ी में 1983 की होली थी, तब भी कुछ बचे हुए पटाखे थे। इसके अलावा पास के कस्बे सिवानी मंडी से फिर 80 रुपए के पटाखे ला कर फोड़ दिए। लेकिन दिवाली के दिन पटाखे फोड़ने के बाद मैंने रात को देखा कि जो काला सांप पटाखा होता था, चकरी या रॉकेट होते थे, उनसे बहुत कुछ कलुषित हो रहा था। हम राजस्थान के जिस रेगिस्तानी इलाके में रहते थे, वहां हवा साफ रहती थी, वातावरण स्वच्छ था। दूसरे दिन देखा कि जगह-जगह जले पटाखों के निशान बने हुए थे, वहां सफाई हो रही थी। उस वक्त मेरे दिमाग में कुछ कौंधा तो था, “क्या यह ठीक है?” इसी कड़ी में 1983 की होली के वक्त भी पटाखे फोड़ने के बाद मुझे लगा कि यह वेस्टेज था, मैंने पिताजी के पैसे बर्बाद कर दिए। फिर वो दिन और आज का दिन है, मैंने दिवाली तो हर बार मनाई लेकिन पटाखे नहीं फोड़े।”

इस साल मुखर्जी के विभाग में दिवाली मिलन की प्लानिंग के वक्त छात्रों ने पटाखों के बारे पूछा तो मुखर्जी ने कहा, “हम पत्रकारिता के विद्यार्थी हैं, अगर हम जागरुक नहीं होंगे तो कौन होगा? कौन यह संदेश देगा कि हमें यह सब नहीं करना चाहिए। रोहतक राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) का हिस्सा है, जहां एयर क्वालिटी इंडेक्स (एक्यूआई) बहुत ऊंचे स्तर पर है जहां इन दिनों प्रदूषण के कारण सूरज देखना दूभर है। दिल और सांस की बीमारियों से जूझ लोग बहुत तकलीफ में रहते हैं। इसी वजह से हमारे छात्रों ने भी पटाखे न फोड़ने का संकल्प ले लिया।”

पारीक परिवार के लिए मिठाई, मांडना और मेल-मिलाप ही सब-कुछ

राज कुमार पारीक का परिवार, कुचामन सिटी, राजस्थान: मिठाइयां, मांडने चित्रण, मेलजोल, सादगी और उल्लास के साथ दिवाली मनाने की परंपरा महत्व देते हैं। प्रदूषण न बढ़े इसलिए पटाखे नहीं फोड़ना चाहते।

इसी तरह राजस्थान में कुचामन सिटी के मूल निवासी राज पारीक बताते हैं, “मैंने देखा है कि गावों में लोग ज्यादा पटाखे नहीं चलाते थे। एक दौर था जब वे करीब महीने भर चलने वाले उत्सव में घर में मिठाई, आंगन में मांडने चित्रण, एक दूसरे से मिल कर और गले लगा कर दिवाली मनाते थे। दिखावे की शुरुआत करीब अस्सी के दशक में शुरू हुई होगी जब लोग धन-बल का प्रदर्शन करने के लिए आतिशबाजी का सहारा लेने लगे।” पारीक और उनकी श्रीमती जी ही नहीं, बेटी हर्षिका भी इस दिखावे से दूर है। वायु गुणवत्ता को लेकर पूरा परिवार सजग है और पटाखों के बगैर उत्साह से दिवाली मनाते हैं।

वायु गुणवत्ता वैज्ञानिक मानते हैं, हर हाल में वायु प्रदूषण कम हो: वैज्ञानिक अनुसंधान के साथ वायु गुणवत्ता में सुधार के लिए देश में सरकारी महकमे के साथ कुछ संस्थाएं अनुकरणीय प्रयास कर रही हैं। मध्यप्रदेश के इंदौर में वायु गुणवत्ता सुधार के लिए चल रहा क्लीन एयर कैटलिस्ट (सीएसी) प्रोग्राम, यूनाइटेड स्टेट्स एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट (यूएसएआईडी) के सहयोग से चल रहा है, जो वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टिट्यूट (डब्ल्यूआरआई) और एन्वायर्नमेंटल डिफेंस फंड (ईडीएफ) के नेतृत्व में विभिन्न संस्थाओं की वैश्विक साझेदारी है। 2020 में शुरू किया गया यह प्रोग्राम वायु प्रदूषण को रोकने, जलवायु परिवर्तन से निपटने और लोगों की सेहत में सुधार करने वाले स्थानीय स्तर के उपायों के लिए क्षमता निर्माण पर ध्यान केंद्रित कर रहा है।

सीएसी के वरिष्ठ वायु गुणवत्ता वैज्ञानिक और ईडीएफ के वरिष्ठ वैज्ञानिक सलाहकार डॉ. श्रीकांत वाकचेर्ला बताते हैं, “प्रदूषकों का उत्सर्जन और मौसम संबंधी कारण किसी भी जगह की वायु गुणवत्ता को प्रभावित कर सकते हैं। यदि कहीं प्रदूषकों का उत्सर्जन होता है, तो मौसम भी वायु गुणवत्ता को खराब कर सकता है। चूंकि मौसम पर हमारा नियंत्रण नहीं है, प्रदूषकों के उत्सर्जन में कटौती करना हवा की गुणवत्ता में सुधार का एकमात्र तरीका है।” यानी दूसरे बड़े उपायों के अलावा हम पटाखों जैसी चीजें अपने हाथों से जला कर अपना ही पर्यावरण खराब न करें।

जरा सोचो, आतीशबाजी बढ़ाती है 2 से 10 गुना वायु प्रदूषण: साफ हवा के लिए अपनी कोशिशें बढ़ाना अपने और अपनों के स्वास्थ्य का ध्यान रखते हुए दिवाली मनाना मौजूदा वक्त की बहुत बड़ी जरूरत है। सीएसी के वरिष्ठ वैज्ञानिक और डब्ल्यूआरआई के वायु गुणवत्ता निदेशक डॉ. प्रकाश दोरईस्वामी के मुताबिक, “भारत के ज्यादातर इलाकों में पहले से ही बड़े पैमाने पर वायु प्रदूषण है जो आतिशबाजी के कारण बढ़ जाता है। आतिशबाजी 2 से 10 गुना अधिक वायु प्रदूषण का कारण बनती है और जहरीले पदार्थों का उत्सर्जन करती है।”

पटाखों की वजह से होने वाला प्रदूषण सेहत के लिए बेहद खतरनाक है। सीएसी से जुड़ीं और ईडीएफ की वरिष्ठ स्वास्थ्य वैज्ञानिक डॉ. अनन्या रॉय बताती हैं, “पटाखों से निकलने वाले छोटे कण और गैसें वायु प्रदूषण में भारी वृद्धि का कारण बनती हैं। जब ये कण शरीर के अंदर जाते हैं, तो खांसी, घरघराहट और सांस लेने में कठिनाई हो सकती है। इसका असर फेफड़ों के अलावा हृदय और अन्य अंगों तक फैल सकता है, जिससे दिल के दौरा, स्ट्रोक (लकवा) का खतरा बढ़ जाता है और मौजूदा बीमारियां की तकलीफ बढ़ जाती है।

इंदौर महापौर ने दिया ग्रीन क्रैकर्स के इस्तेमाल का सुझाव:  स्वच्छता, जल प्रबंधन और वायु गुणवत्ता सुधार में अग्रणी इंदौर शहर के मेयर पुष्यमित्र भार्गव हर त्योहार पर अपने नगरवासियों से आग्रह करते हैं कि पर्व का उल्लास कम न हो और हम पर्यावरण को लेकर भी सजग रहें। भार्गव कहते हैं, “मेरा स्पष्ट मानना है कि भारतीय संस्कृति में जितने भी त्यौहार हैं, वे पूरे हर्षोल्लास आनंद और उत्साह के जिस भाव से मनाए जाते हैं वैसे ही मनाए जाएं। आजकल ग्रीन क्रैकर्स यानी पर्यावरण को कम नुकसान पहुंचाने वाले पटाखे आए हैं, हम उनके उपयोग का प्रयास करें। इस एक दिन के अलावा बाकी दिन भी हम पर्यावरण को दूषित होने से बचाएं।”

वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) के घटक राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्थान (नीरी) के मुताबिक आम पटाखों की वजह से होने वाले वायु प्रदूषण को ग्रीन क्रैकर्स करीब 30 फीसदी तक कम कर सकते हैं। डॉ. रॉय कहती हैं, “ग्रीन क्रैकर्स इस बात का प्रमुख उदाहरण हैं कि कितनी समझदारी और चतुराई से हम वायु प्रदूषण को कम कर सकते हैं और दिवाली पर लोगों के स्वास्थ्य की रक्षा कर सकते हैं। हम वायु प्रदूषण के वास्तविक दोषियों जैसे- ट्रैफिक और उद्योग, जो कि हर दिन हमारे स्वास्थ्य को खतरे में डालते हैं, इसी सरलता को लागू कर सकते हैं और हमें करना भी चाहिए।”

दास, मुखर्जी, सिंह, पारीक और वाजपेई जैसे नवाचारी और अनुकरणीय परिवार स्वच्छ हवा के प्रणेता बन कर दीपावली पर्व को बेहतर हवा वाले दिनों में बदल रहे हैं और ताज़ा हवा की उनकी तलाश एक बड़े त्योहार को नया स्वरूप प्रदान कर रही है। जैसा कि हम दिवाली मनाने के लिए एकजुट होते हैं, आइए हम बेतहाशा जलाए जा रहे पटाखों को कम से कम करके अपने पर्यावरण की रक्षा करें।