दलित एजेंडाः जाति बड़ी या ज्ञान, तलवार बड़ी या म्यान


सरकार की ओर से ऐसा कोई प्रयास नहीं किया जाना चाहिए जिससे कि जातियों के बीच खाई बढ़े। दलित राजनीति आज चुनावी नजरिए से हाशिए की तरफ जा चुकी है। दलितों के नाम पर राजनीति करने वाले दल सफल नहीं हो पा रहे हैं।


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सरयूसुत मिश्रा।

संत कबीर का क्रांतिकारी दोहा है- ”जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान, मोल करो तरवार का पड़ी रहन दो म्यान”

आज ज्ञान से ज्यादा जाति महत्वपूर्ण बन गई है। तलवार से ज्यादा म्यान को पूजा जाने लगा है। अभी तक तो गरीबी, अशिक्षा, असमानता, अस्पृश्यता को हटाने के लिए जातियों को आधार बनाया जाता था, लेकिन अब तो निवेश, पूंजीवाद और उद्यम में भी जातियों को आधार बनाया जाने लगा है। राजनीतिक लाभ के लिए दलित एजेंडा का सियासी प्रोपेगेंडा कहां जाकर रुकेगा?

अगड़ा-पिछड़ा, दलित-आदिवासी के विभाजन से समाज आगे निकलना चाहता है लेकिन राजनीति इस विभाजन को बढ़ाने का कोई भी मौका नहीं छोड़ती है। किसी भी सरकार द्वारा एससी-एसटी बिजनेस कॉन्क्लेव और एक्सपो का आयोजन जातिगत आधार पर क्यों किया जाना चाहिए? साल 2002 में तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने दलित एजेंडा लागू करने के लिए जब ‘भोपाल घोषणा पत्र’ जारी किया था तब उसका राजनीतिक हश्र 2003 में कांग्रेस को भुगतना पड़ा था।

दलित एजेंडे के अंतर्गत समाज को इस सीमा तक बांटा गया था कि सरकार में 30% सामग्री दलित उद्यमियों से खरीदने की व्यवस्था भी कर दी गई थी। दलित एजेंडे के नाम पर गाँवों में चरनोई की भूमि का आवंटन और उससे समाज में हुए बिखराव के घाव आज भी महसूस किए जा सकते हैं।

सभी वर्गों से निवेशक और उद्यमी उभर कर सामने आएं, इससे खुशी की बात समाज के लिए कुछ भी नहीं हो सकती है। सामाजिक स्तर पर समाज के युवाओं को आगे बढ़ाने का प्रयास किया जा सकता है। सरकार इनके लिए विशेष रूप से योजनाएं भी बना सकती है लेकिन जातिगत आधार पर बिजनेस कॉन्क्लेव और उद्यमी सम्मेलन विधि सम्मत नहीं माना जा सकता। दलित समुदाय के लोगों द्वारा गठित संस्थाएं अपना प्रयास कर सकती हैं लेकिन जातिगत भेदभाव को बढ़ाने वाले किसी भी कृत्य में सरकार की भागीदारी कैसे हो सकती है?

मध्यप्रदेश में दिग्विजय सरकार के दौरान ही दलित कर्मचारियों का संगठन अजाक्स बनाया गया था। इस संगठन को सरकार द्वारा मान्यता दी गई थी। इसके बाद आज ऐसे हालात बने हैं कि लगभग हर जाति और समाज के कर्मचारियों के संगठन काम करने लगे हैं। अपाक्स और सपाक्स जैसे संगठन अजाक्स के जवाब में ही सक्रिय किए गए हैं।

सरकारी नौकरियों में पदोन्नति में आरक्षण के विषय पर उच्च न्यायालय के आदेश से पिछले पांच-छह वर्षों से पदोन्नति रुकी हुई है। 2018 में चुनाव के पहले उच्च न्यायालय द्वारा पदोन्नति में आरक्षण पर रोक के संबंध में आदेश दिए गए थे। उसके बाद अजाक्स सक्रिय हुआ था। भोपाल में अजाक्स का एक सम्मेलन हुआ था जिसमें दिया गया ‘माई के लाल’ वाला बयान घर-घर तक चर्चित हुआ था। 2018 का जनादेश भी सर्व विदित है, उसके बाद तो बीजेपी को इस वक्तव्य के लिए जनता से खेद तक जताना पड़ा था।

करीब 6 साल पहले पदोन्नति में जो आरक्षण न्यायालय के आदेश से रुका था वह आज भी रुका है। यह मामला भी सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है। अखबारों में ऐसे समाचार आए हैं कि राज्य सरकार ने पदोन्नति में आरक्षण के संबंध में नए नियम बनाए हैं। यह नियम अभी सार्वजनिक नहीं हुए हैं।

मध्यप्रदेश सरकार की ओर से एससी-एसटी बिजनेस कॉन्क्लेव का आयोजन किया गया है। अखबारों में प्रकाशित सरकार के विज्ञापन के अनुसार इसमें देश के प्रख्यात एससी-एसटी निवेशकों और उद्यमियों को बुलाया गया है। सरकार द्वारा इन उद्यमियों को बुलाना, सम्मानित करना, सहयोग करना, कोई बुरा नहीं है लेकिन जाति के आधार पर इस काम को करना समाज के लिए दोषपूर्ण माना जाएगा।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने हाल ही में कार्यकर्ताओं को अपने संबोधन में संदेश दिया है कि जातिवाद की मानसिकता पूर्णतः समाप्त होनी चाहिए। सरसंघचालक ने कहा मंदिर, शमशान, जलाशय पर संपूर्ण समाज का समान अधिकार है। यह जातिवाद समाज के लिए नासूर है। कोई बड़ा-छोटा नहीं है, सब समान हैं। सभी जातियों का समाज और राष्ट्रहित में योगदान रहा है। ऐसी कोई जाति नहीं है जिसमें महापुरुष पैदा ना हुए हों।

एक तरफ यह उदात्त चिंतन और दूसरी तरफ जातिगत आधार पर बिजनेस सम्मेलन। इसे क्या कहा जाएगा? आजकल तो महापुरुषों को भी जातियों के आधार पर बांट दिया गया है। महापुरुष हमारी विरासत और हमारा गौरव हैं। महापुरुष किसी भी जाति के हों उनको जातियों में बांधकर देखना समाज हित में कैसे कहा जा सकता है?

जातियों को लेकर समाज की मानसिकता में लगातार बदलाव आ रहा है। योग्यता और ज्ञान, जाति से नहीं आता है। निजी क्षेत्रों में आरक्षण नहीं है फिर भी क्या आरक्षित मानी जाने वाली जातियों के योग्य और प्रतिभावान युवा निजी क्षेत्र में काम नहीं कर रहे हैं? एससी-एसटी निवेशकों को ही देखा जाए तो वह सब अपनी प्रतिभा से ही आगे बढ़े हैं। क्या वे जाति के कारण उद्यमी बने हैं? अगर ऐसा माना जाय तो फिर उनकी प्रतिभा को उभारने की जरूरत है ना कि उनकी जातियों को।

जातीय आधार पर चिंतन कैसे समाज को नुकसान पहुंचा रहा है इस पर गहन विचार विमर्श की जरूरत है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पूरे देश में व्यापक समर्थन मिल रहा है, तो क्या यह समर्थन किसी जाति के आधार पर है? पीएम मोदी ने अपनी योजनाओं में जाति-धर्म को आधार नहीं बनाया है तो क्या किसी भी जाति में उनका समर्थन कमजोर हुआ है? इसके विपरीत मोदी सरकार की जितनी भी जन कल्याण की योजनाएं हैं वह सब जाति और धर्म से ऊपर उठकर सभी जरूरतमंदों को मदद के लिए बनाई गई हैं। यही अप्रोच और सोच सभी राजनीतिक दलों और सरकारों का होना चाहिए।

बिहार और उत्तरप्रदेश में जातीय विभाजन चरम स्थिति पर है। उत्तरप्रदेश में तो जातियों की राजनीति अब उतार की तरफ है। एक दौर था जब दलितों के नाम पर बहुजन समाज पार्टी राज कर रही थी लेकिन अब बीएसपी का जनाधार कहां पहुंच गया है? तिलक तराजू और तलवार के खिलाफ दलितों को भड़काने का राजनीतिक लाभ थोड़े समय के लिए भले ही मिल गया होगा लेकिन बाद में विभाजनकारी सोच को असफलता ही मिली। देश में पिछले एक दशक के चुनाव परिणामों का विश्लेषण किया जाएगा तो साफ पता लगेगा कि जातियों की चुनावी राजनीति बिखर रही है और मुद्दों की राजनीति सफलता की ओर बढ़ रही है।

दिग्विजय सरकार के समय दलित एजेंडा के नाम पर जिस-जिस तरह के कारनामे अंजाम दिए गए थे, उनके दुष्परिणाम आज तक दिखाई पड़ रहे हैं। इसे पाटने की जरूरत है। सरकार की ओर से ऐसा कोई प्रयास नहीं किया जाना चाहिए जिससे कि जातियों के बीच खाई बढ़े। दलित राजनीति आज चुनावी नजरिए से हाशिए की तरफ जा चुकी है। दलितों के नाम पर राजनीति करने वाले दल सफल नहीं हो पा रहे हैं। आज वही दल सफल हो रहे हैं, जो सारे समाज को सारी जातियों को जोड़कर ‘सबका साथ-सबका विकास’ की परिकल्पना को आगे बढ़ा रहे हैं।

उत्तरप्रदेश में तो जातीय सम्मेलन प्रतिबंधित हैं। मध्यप्रदेश तो कभी भी जातिवाद के अतिवाद का शिकार नहीं रहा फिर अब जातिवाद को राजनीतिक लाभ के लिए उभारने की कोशिश क्यों की जा रही है? आगामी विधानसभा चुनाव को देखते हुए कांग्रेस और बीजेपी दोनों दलित-आदिवासी वर्गों के लिए आरक्षित सीटों पर नजर गड़ाए हुए हैं। दोनों दल इन जातियों के कल्याण की दृष्टि से अतिवाद की सीमा भी लांघने को तैयार हैं। अगर राजनीति जातिवाद से ऊपर उठ जाए तो समाज से जातिवाद को समाप्त होने में बहुत लंबा समय नहीं लगेगा।

आज समाज में कोई भी व्यक्ति किसी भी रेस्टोरेंट या होटल में किसी से भी उसकी जाति पूछता है? कितना भी रूढ़िवादी क्यों न हो अगर वह होटल जा रहा है तो इस तरह की बात करने का उसे विचार भी नहीं आता। सार्वजनिक स्थलों पर जाति के आधार पर भेदभाव क्या अब वैसा ही दिखाई पड़ रहा है जैसा पहले कभी हुआ करता था? समाज सुधरना चाहता है तो राजनीति फिर क्यों जातिवाद के जहर को अपने राजनीतिक दर्द की दवा बनाने के लिए तत्पर है? आने वाला वक्त जातिवाद की राजनीति को धराशायी कर देगा जो भी राजनेता यह समझ जाएगा वही इस दौर में खड़ा रह सकेगा।

(आलेख सोशल मीडिया से साभार)