मुसलमानों को सांस्कृतिक समुदाय बना कर उन्हें राजनीति से दूर रखा गया


बटवारे के बाद, मुस्लिम समुदाय के समक्ष पेश चुनौतियों और अस्तित्व पर मंडराते खतरे ने हमें एक बहुत सशंकित सांस्कृतिक समूह में बदल दिया. अपनी सांस्कृतिक पहचान को बचाने की चिंता हमारी राजनीतिक मोबिलिटी की संचालक शक्ति बनती गयी. सेकुलर पॉलिटिक्स इसी पर टिकी रही. 


shahnawaz alam शाहनवाज़ आलम
अतिथि विचार Published On :

अलग-अलग कालखंडों में मानव के विकास के साथ ही उसकी बॉडी लैंग्वेज भी बदलती रही है. मसलन, मनुष्य एक आदिम स्वंतत्र घुमंतू प्रजाति से क़बीले में तब्दील हुआ होगा, फिर किसी मजबूत समूह ने किसी कमज़ोर समूह पर क़ब्ज़ा करके खुद को शासक और दूसरों को प्रजा बनाया होगा. ज़ाहिर है प्रजा की बॉडी लैंग्वेज राजा के सामने वैसी ही नहीं रह गयी होगी जैसी क़बीले या स्वतंत्र आदमी के बतौर रही होगी. इसीतरह साम्राज्यवाद के दौर में प्रजा रियाया बनी और फिर लोकतंत्र के दौर में वो रियाया से नागरिक बन गयी. रियाया और नागरिक में बुनियादी फर्क यह होता है कि रियाया को कोई राजनीतिक अधिकार नहीं होते. राजकाज में उसकी कोई हिस्सेदारी या भूमिका नहीं होती. जबकि नागरिक के पास ढेर सारे संवैधानिक अधिकार होते हैं. वो अपनी मर्ज़ी और विचार से सरकार बनाता और गिराता है.

इसीलिए एक नागरिक की बॉडी लैंग्वेज रियाया, प्रजा, क़बीले के सदस्य और आदिम एकल मनुष्य से विकासक्रम में सबसे उन्नत होती है. यहाँ तक मानव समुदाय को पहुँचने में क़रीब 3 हज़ार साल लगे हैं.

सामाजिक हैसियत में उपर और नीचे रहने वाले समूहों में भी हम इस अंतर को लोकतंत्र में उनकी हैसियत के बरअक्स देख सकते हैं. मसलन, पुरानी हिंदी फिल्मों में पुलिस या किसी सरकारी अधिकारी को ‘माई-बाप’ बोलने वाला किरदार हमेशा दलित या कमज़ोर वर्ग का ही होता था. सवर्ण या बड़ी कही जाने वाली जाति का कोई आदमी ऐसा नहीं बोलता था. ऐसा इसलिए था कि ऊपरी कही जाने वाली जातियाँ राजनीतिक तौर पर सक्रिय थीं इसलिए बॉडी लैंग्वेज में नागरिक होने का आत्म विश्वास भी रहता था. वहीं इस चलन के कम होने को हम 90 के दशक के पिछड़ों और दलितों के राजनीतिकरण की प्रक्रिया के शुरू होने में देख सकते हैं. यानी जैसे-जैसे कमज़ोर तबकों ने नागरिक बनने की दिशा में बढ़ना शुरू किया उनकी बॉडी लैंग्वेज बदलने लगी.

इसकी तुलना में हम पाते हैं कि मुसलमानों में नागरिक चेतना के विकास की गति धीमी रही. इसकी एक बड़ी वजह उसकी तरफ से बहुत दिनों तक राजनीतिक बदलावों को स्वीकार करने से बचने कोशिश रही है, जिसकी तरफ सर सय्यद अहमद खान ने अपने समय में मुस्लिम समुदाय का ध्यान बारबार खींचा था. (मुसलमानों की तुलना में जिन आदिवासी इलाक़ों में ईसाई मिशनरी सक्रिय रहे वहाँ के आदिवासी समुदाय ने 1857 के आसपास ही अंग्रेज़ी पढ़ना शुरू कर दिया था. राहुल गाँधी जी के साथ भारत जोड़ो यात्रा में मेरे सहयात्री रहे झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम ज़िले के दीनबंधु बोयपायी जी के गांव में 1870 में मिशनरी स्कूल खुल गया और तभी से आधुनिक शिक्षा लोग ले रहे हैं.)

यानी और क़ौमें जब तेज़ी से आधुनिक राजनीतिक समूह बन रही थीं तब मुस्लिम वर्ग एक प्री मॉडर्न (आधुनिकता पूर्व) सांस्कृतिक समूह ही बने रहने की प्रक्रिया में रहा. इससे एक ओर जहाँ दूसरे समुदायों की भाषा राजनीतिक और आधुनिक होती गयी वहीं उसकी सोच और भाषा पर मध्ययुगीन कलात्मक प्रभाव बना रहा. यहाँ तक कि मुसलमान होने की एक पहचान शायर और कव्वाल होना भी हो गयी. स्थिति इतनी दयनीय हो गयी थी कि जब डॉ अम्बेडकर ने दलितों के साथ धर्म परिवर्तन करने की बहस चलाई तो बहुत से दलितों का सुझाव था कि उन्हें मुसलमान बन जाना चाहिए क्योंकि ‘कुछ दलित लोग अच्छी उर्दू भी बोलते हैं और शायरी भी करते हैं.’ (भीमराव अंबेडकर: एक जीवनी. क्रिस्टॉफ जैफेर्लो, पेज नम्बर 151)

जाने माने इतिहासकार मुशीरुल हसन ने 1937 में जवाहर लाल नेहरू द्वारा मुस्लिम समुदाय को कांग्रेस से जोड़ने के लिए चलाये गये ‘मुस्लिम मास कांटैक्ट’ अभियान पर Economic and Political Weekly में 1986 में छपे एक लेख ‘The Muslim Mass Contact Campaign: An Attempt at Political Mobilisation’ में सज्जाद ज़हीर की यह टिप्पणी दर्ज की है कि अभियान की ‘भाषा शहद की चाशनी में डूबी, दिलकश और रमणीय होती थी’. ठोस और तार्किक आधार कम होते थे. (EPW, Vol XXI – 52, December 27, 1986, page 2277)

आज भी आप देख सकते हैं कि पब्लिक मीटिंग्स में मुस्लिम वक्ताओं का अमूमन फॉर्म तगड़ा रहता है, कंटेंट कमज़ोर रहता है. और वो अपनी बात शायराना उपमाओं में ही ज़्यादा करना चाहता है. कुछ तो ऐसे वक्ता भी मिल जाते हैं जो बेचारे शायरी के अलावा कुछ नहीं बोल पाते. जबकि गैर मुस्लिम समुदायों में वक्ता मुद्दों की बात करते हैं. बीए या एमए का एक मुस्लिम छात्र सामाजिक मुद्दों पर बोलते हुए शेर ज़्यादा कोट करता है जबकि दलित और पिछड़े तबके का हिंदू छात्र अंबेडकर या फुले को कोट करता हैं. अब लोकतंत्र में कौन कितना स्थान बना पाएगा, क्या यह समझना मुश्किल है?

इसे एक और व्यवाहारिक उदाहरण से देखा जा सकता है. पूर्वांचल में समाजवादी पार्टी के शुरुआती दिनों में उनकी सभाओं में गाना-बजाना ज़्यादा होता था. क्योंकि उसका जातिगत आधार तबका जिसमें बिरहा गायन की परंपरा रही है, अभी राजनीति में नया-नया था. लेकिन जैसे-जैसे राजनीतिकरण बढ़ता गया भाषण ज़्यादा होते गए. गाना-बजाना कम होता गया. इस प्रक्रिया में उन्होंने अपने राजनीतिक रोल मॉडल भी तय्यार कर लिए. इसके बरअक्स हम वही सब सांस्कृतिक काम करते रह गए. इसलिए सियासी रोल मॉडल नहीं पैदा कर पाए. जिसकी शर्मिंदगी भी उठानी पड़ती है. मसलन, राहुल गांधी जी के साथ भारत जोड़ो यात्रा में मेरे सहयात्री उत्तर प्रदेश कांग्रेस के सचिव राहुल राजभर जी जब यात्रा से वापस बनारस आए तो उनका स्वागत हुआ और उन्होंने मदन मोहन मालवीय जी की प्रतिमा पर माल्यार्पण किया. उसके बाद सुहेल देव की प्रतिमा पर माल्यापर्ण किया. लेकिन क़रीब 5 लाख बुनकरों की आबादी वाले ज़िले में वो किस मुस्लिम रोल मॉडल के आगे सम्मान में सर झुकाएं यह सवाल खड़ा हो गया. उन्हें दो नाम ही मिल पाए- शहनाई वादक बिस्मिल्ला खां और फ़ातेमान क़ब्रिस्तान में दफन मशहूर नर्तकी और गायिका उमराव जान. खैर, उन्होंने पहले विकल्प को चुनना उचित समझा.

बटवारे के बाद, मुस्लिम समुदाय के समक्ष पेश चुनौतियों और अस्तित्व पर मंडराते खतरे ने हमें एक बहुत सशंकित सांस्कृतिक समूह में बदल दिया. अपनी सांस्कृतिक पहचान को बचाने की चिंता हमारी राजनीतिक मोबिलिटी की संचालक शक्ति बनती गयी. सेकुलर पॉलिटिक्स इसी पर टिकी रही.

सबसे अहम बात कि हम जो सांस्कृतिक समूह थे, उसके वोट से ही कमज़ोर तबके सियासी समूह बनते गए. ऐसा इसलिए भी संभव हुआ कि इन तबकों ने अपनी हैसियत संविधान की रौशनी में देखना शुरू कर दिया और हम महान अतीत के हैंगओवर से बाहर नहीं निकले. राजनीतिक दलों ने हमारी इस कमज़ोरी का अच्छ लाभ उठाया. जिसके लिए उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता.

एक उदाहरण देखिये. अगर कहीं कोई दलित विरोधी हिंसा होती है तो उसपर प्रतिक्रिया की भाषा यह होती है कि – ऐसा होना संविधान पर हमला है. क्योंकि संविधान सबको बराबरी का दर्जा देता है.

वहीं, अगर मुस्लिम विरोधी हिंसा हो तो राजनीतिक प्रतिक्रिया की भाषा यह होती है – ऐसी घटनाएं सैकड़ों साल की गंगा-जमुनी तहज़ीब के खिलाफ़ हैं. यह बहुसंख्यक समुदाय की सहिष्णुता के इतिहास के खिलाफ़ हैं.

दोनों में अंतर समझिये. दलित विरोधी घटना को हम आधुनिक राज्य की जवाबदेही और उसके संविधान के बरअक्स देखते हैं. यहाँ पीड़ित पक्ष संविधान की अपनी रक्षा कवच के बतौर अहमियत को समझ जाता है. उसे संविधान को मजबूती से लागू कराने की ज़रूरत महसूस होती है. जो एक राजनीतिक प्रक्रिया से ही संभव है.

दूसरी घटना, मुसलमानों को किसी जवाबदेह राज्य और उसके संविधान के बरअक्स घटना की निंदा नहीं करता. वह उसे मध्ययुग की गंगा जमुनी तेहज़ीब और बहुसंख्यक वर्ग की सहिष्णुता के भरोसे छोड़ देता है.

इसीलिए हम देखते हैं कि हर मुस्लिम विरोधी हिंसा के बाद मुसलमान राज्य और उसके संविधान की चिंता के दायरे से बाहर होता जाता है और बदहवासी में एक पहले से ज़्यादा सांस्कृतिक पहचान से चिपकता जाता है. जबकि एक दलित अपने विरुद्ध हर हिंसा के बाद ज़्यादा राजनीतिक पहचान पा लेता है. उसकी राजनीतिक मोबिलिटी (गतिशीलता) बढ़ती जाती है. हमारी घटती जाती है.

ये दोनों अप्रोच दोनों समुदायों की बॉडी लैंग्वेज को भी प्रभावित कर देते हैं. मसलन, सांप्रदायिक हिंसा के बाद अक्सर मुस्लिम इलाक़ों में क़ौमी एकता के नाम मुशायरा होना एक अनिवार्यता होती है जिसमें मुसलमान लोग पूरी दयनीयता से अपनी देशभक्ति का प्रमाण देते हैं. जिसमें हमारी भाषा और गिड़गिड़ाने वाली तथा और मुहावरेदार होती जाती है. वहीं दलित बस्ती में हिंसा के बाद बाबा साहब और संविधान पर पहले से ज़्यादा बात होती है. उनकी भाषा पहले से और राजनीतिक होती जाती है. उनकी नागरिक चेतना और मजबूत होती जाती है. ऐसी घटनाएं उनमें नया नेतृत्व पैदा करती हैं. सत्ता में उनकी भागीदारी और दावेदारी और मजबूत होती जाती है. हमारी कमज़ोर होती जाती है.

मेरा अपना मानना है कि इस इस मुहावरेदार भाषा के पीछे एक डर भी काम करता है. पब्लिक मीटिंगों में अक्सर यह कहते सुना जाता है कि – ‘वो हुकूमत तक इशारों से अपनी बात पहुंचायेंगे’ या ‘समझदार लोग समझ रहे हैं किस पर वार किया जा रहा है’. जबकि दलित या पिछड़े समुदायों के लोग सरकार को या जिस किसी से भी दिक़्क़त हो उसे सीधे संबोधित करते हैं, वो इशारों में बात नहीं करते. यह नागरिक चेतना होने और नहीं होने से उपजे आत्म विश्वास का अंतर है.

अब सियासी बॉडी लैंग्वेज नहीं होगी तो सियासी गंभीरता वाले कपड़े भी नहीं होंगे. इसीलिए आपको सियासी कार्यक्रमों में भी मुसलमान अलग से पहचान में आ जाते हैं. उनका कुर्ता और सदरी अमूमन रंगीन और नक्काशी वाला होगा. उनके बैनरों पर मोबाइल और रंगीन चश्मा वाले युवाओं के फोटो ज़्यादा मिलेंगे.

हमें याद रखना चाहिए कि डर और आशंका से संचालित भाषा पूरी क़ौम का आत्मविश्वास तोड़ देती है. जिसके कारण वो कमज़ोर सेल्फ डिफेंस के तर्क खड़े करने लगती है. जो किसी भी विपरीत तेज़ हवा में उड़ जाते हैं. आपको याद होगा बाबरी मस्जिद विध्वंस के दौर में जब मुसलमानों को अंदाज़ा होने लगा कि अब भारत वो नहीं रहेगा जो अब तक था तब बदलते सामाजिक नैरेटिव में अपनी जगह ढूंढते हुए वे यह तर्क रखते थे कि दूरदर्शन पर दिखाए जाने वाले सीरियल महाभारत का संवाद भी एक मुसलमान राही मासूम रज़ा ने लिखा है. आज सेकुलर स्पेस की आकांक्षा की तलाश में यह सांस्कृतिक तर्क मज़ाक भर की एहमियत भी नहीं रखता.

हमें अपनी राजनीतिक भाषा गढ़नी होगी. जैसे और कमज़ोर तबकों ने गढ़ी है. अब सवाल भी उनसे ही पूछना होगा जिसे आप वोट देते हैं. आपके गैर राजनीतिक प्रवित्तियों के चलते ही आपको धूर्त लोग यह सिखाने में सफल रहे कि वोट सपा को दीजिये और चाय कि दुकान पर दिनभर आलोचना भाजपा की कीजिये और अपनी बदहाली के लिए सवाल कांग्रेस से पूछिये. याद रखिये, ऐसी हरकत करने वाले हम शायद अकेले समुदाय होंगे.

जब आप सियासी बॉडी लैंग्वेज अपनाने लगेंगे, जो धीमी गति से ही सही आपने शुरू कर दिया है तो स्थितियाँ बदलेंगी. दरअसल किसी का जागरूक होना या किसी को मूर्ख बनाए रखना और कुछ नहीं सिर्फ़ किसी की सत्ता पर दावेदारी और किसी को सत्ता पर दावेदारी से दूर रखने की राजनीति होती है. क्योंकि अंत में सिर्फ़ आंकड़े अहम होते हैं जो आपके पास किसी और से ज़्यादा हैं. उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत की सरकार 29 प्रतिशत वोट से बन जाती है. आप यूपी में अकेले 20 प्रतिशत हैं. बिहार में 17 प्रतिशत हैं. बंगाल में 27 प्रतिशत हैं और असम में 35 प्रतिशत हैं. यानी मौलाना आज़ाद के कहे पर विशास रखें तो हिंदुस्तान का कोई भी फैसला बिना आपकी मर्ज़ी के नहीं होगा. लेकिन इसके लिए सियासी सलाहीयत चाहिए. बिना उसके हमारी आबादी की ताक़त बेकार है.

2024 का चुनाव आपके लिए परीक्षा है. नागरिक की तरह सोचिए. इसके लिए सबसे ज़रूरी शर्त है ‘डरिये मत’. राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा में हर रैली में जब यह कहते थे कि ‘डरो मत’ तो इसका यही मतलब था भाजपा ने लोगों को डरा कर उनके नागरिक चेतना को खत्म कर दिया है. उसकी इस रणनीति का सबसे ज़्यादा शिकार मुसलमान ही हुए हैं. यानी जब आप डरेंगे नहीं तो नागरिक की तरह सोचेंगे. कांग्रेस यही चाहती है. 2024 के बाद के भारत में आपका मुस्तकबिल कैसा होगा, यह इसी पर निर्भर करता है.

(लेखक उत्तर प्रदेश अल्पसंख्क कांग्रेस के अध्यक्ष हैं)







ताज़ा खबरें