व्यवस्था संभालने के बदले अव्यवस्था पैदा करने का काम कर रही सवालों की राजनीति


सियासत का जो माहौल दिखाई पड़ रहा है उससे तो यह लगने लगा है कि यह व्यवस्था संभालने के बदले अव्यवस्था निर्मित करने का काम कर रही है।


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अतिथि विचार Published On :
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सरयूसुत मिश्रा।

भारत में सियासत का अजीब हाल हो गया है। हर तरफ सवालों का बोलबाला है। सवाल ही सत्ता की सीढ़ी बन गए हैं। कोई भी जवाब देने को तैयार नहीं है। सवाल के बदले नए सवाल खड़े किए जा रहे हैं। सियासत देश की शासन व्यवस्था संभाल रही है। सियासत का जो माहौल दिखाई पड़ रहा है उससे तो यह लगने लगा है कि यह व्यवस्था संभालने के बदले अव्यवस्था निर्मित करने का काम कर रही है।

थोड़ा गहराई से देखेंगे तो साफ़ दिख जाएगा कि देश की समस्याएं सियासत द्वारा ही पैदा की जा रही हैं और उनके समाधान के रास्ते दिखाकर सत्ता की मंजिल हासिल की जा रही है। देश के सामने जो भी महत्वपूर्ण मुद्दे हैं, वह पहली बार सामने नहीं आए हैं। स्वतंत्र भारत के इतिहास में सभी तरह की घटनाएं हो चुकी हैं। अब तो उन्हीं की पुनरावृत्ति विचारधारा के अनुरूप हो रही है।

नयापन तो समाप्त हो गया है। सब कुछ बदले तरीके से अंजाम दिया जा रहा है। भारतीय राजनीति में आज की सबसे बड़ी समस्या और सवाल उद्योगपति गौतम अडानी बन गए हैं। वित्तीय रूप से जो भी परिस्थितियां निर्मित हुई हैं उनका समाधान शासन की एजेंसियां अपने स्तर पर जरूर करेंगी लेकिन राजनीतिक सवालों का जो नया दौर है इस पर विचार जरूरी है।

राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा में कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने अडानी और प्रधानमंत्री मोदी के रिश्तों पर कई सवाल खड़े किए हैं। इन सवालों के जवाब जरूर दिए जाएंगे लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि नेशनल हेराल्ड मामले में जो सवाल उठाए गए थे उनके जवाब क्या राहुल गांधी द्वारा अब तक दिए गए हैं? क्या देश के लोग केवल राजनेताओं के सवाल सुनकर संतोष करते रहेंगे? सवालों के जवाब कभी किसी राजनेता द्वारा दिए जाएंगे या नहीं?

देश के सामने बुनियादी सवालों की कोई कमी नहीं है। सबसे पहला सवाल तो जीवन का ही है। जीवन का लक्ष्य क्या है और उस लक्ष्य को पाने के लिए क्या कोई विचार जीवन का विषय बन सका है? कहीं रोजी रोटी का सवाल है तो कहीं बेरोजगारी और महंगाई का सवाल है। कहीं शिक्षा का सवाल है कहीं समानता का सवाल है। कहीं भ्रष्टाचार पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं तो कहीं राजनीति की नीयत पर सवाल उठाए जा रहे हैं।

अडानी ने प्रगति कैसे की? उनकी प्रगति में सरकारी स्तर पर कितना सहयोग मिला? इस पर सवाल हो सकते हैं लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि जो राजनीति किसी उद्योगपति को लेकर सवाल खड़े कर रही है उस राजनीति को क्या राजनीतिक हस्तियों की प्रगति दिखाई नहीं पड़ती? आज राजनीति में सक्रिय और सफल कोई भी नेता क्या आम आदमी की तरह जीवन गुजार रहा है? कोई छोटे से छोटे पद का भी चुनाव जीत जाता है तो उसकी आर्थिक प्रगति जिस तेजी से होती है उतनी तेजी से शायद किसी भी उद्योगपति की नहीं होती होगी।

अडानी को लेकर राहुल गांधी कह रहे हैं कि 2014 के पहले अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनकी स्थिति 609 वे स्थान पर थी जो अब दूसरे स्थान पर पहुंच गई है। राहुल गांधी को अपने सांसदों-विधायकों और मंत्रियों की संपत्ति के बारे में जानने का कभी मौका ही नहीं मिला होगा। अगर ईमानदारी से अपने लोगों की तरक्की को ही उन्होंने देखा होता तो पता चल जाता कि अडानी से तेज गति से तरक्की राजनीति में आम बात है। अडानी की ओर से यदि कोई गलतियां की गई हैं या कानून का उल्लंघन किया गया है और अनियमितता की गई है तो निश्चित रूप से उन्हें दंड दिया जाना चाहिए और दिया भी जाएगा, लेकिन राजनीतिक ढंग से उठाए जा रहे सवाल क्या किसी समस्‍या का समाधान हो सकते हैं?

भारत में बोफोर्स का मामला राजीव गांधी के खिलाफ उठाया गया था। इसको लेकर सत्ता परिवर्तन भी हुआ था लेकिन आज तक बोफोर्स का सच सामने नहीं आ सका है। हर्षद मेहता का आर्थिक घोटाला भी भारत वासियों को याद होगा। सूटकेस में एक करोड़ रुपये भरकर मीडिया के सामने दिखाये गए थे। उस समय आरोप लगाया गया था कि प्रधानमंत्री को एक करोड़ रुपये घूस के रूप में दिए गए हैं। इस तरह के सारे आरोप राजनीतिक नजरिये से उपयोग किए जाते हैं। इनका वैधानिक और आर्थिक रूप से कोई आधार प्रमाणित नहीं हो पाता।

बैंकों और सार्वजनिक उपक्रमों द्वारा कारपोरेट और उद्योगों में ऋण तथा निवेश भारत के विकास के साथ ही होता रहा है। बैंकों से ऋण लेकर कई उद्योगपतियों ने देश को धोखा दिया है। इसके लिए राजनीतिक रूप से कौन जिम्मेदार है, कौन नहीं है इस पर सवाल उठाए जा सकते हैं लेकिन इसका कोई भी कानूनी हल इससे नहीं होगा। आर्थिक घोटालों के मामलों में अभी तक भारत में कानूनों की स्थिति बहुत मजबूत नहीं है। इसका लाभ कई उद्योगपति उठाते रहे हैं। सभी राजनेताओं को मिलकर इस दिशा में काम करना चाहिए।

राजनीति में सवालों की झड़ी लोकसभा और विधानसभा में ही नहीं बल्कि चुनाव की आहट के साथ ही राज्यों में भी शुरू हो जाती है। मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ के बीच सवालों के गोले एक दूसरे पर दागे जा रहे हैं। हर दिन सवाल तो सामने आ रहे हैं लेकिन कोई भी जवाब नहीं दे रहा है। 18 साल की सरकार का 15 महीने की सरकार के साथ सवाल भी लोगों को समझ नहीं आ रहा है।

लोकतंत्र में राजनेताओं से जवाब लेने का क्या तरीका हो सकता है? चुनाव को ही एकमात्र तरीका नहीं माना जा सकता। चुनाव परिस्थितियों और प्रतिद्वंदी के आधार पर लड़े और जीते जाते हैं। चुनाव में विजय पांच साल में जनता की ओर से उठाए गए सवालों का जवाब नहीं माना जा सकता।

वर्तमान में जो भी विधिक प्रक्रिया सिस्टम में निर्धारित है उसमें तो जवाब की कोई उम्मीद नहीं बची है। राजनीति सारे सिस्टम को कंट्रोल करती है और राजनीति में चारों ओर दशानन देखे जा सकते हैं। राजनीति के कई चेहरे हैं। एक राजनेता जितनी तरह की बातें करता है वह एक मुंह से शायद नहीं हो सकती। राजनीति बातों की हो गई है। चुनाव जीतने के लिए सरकारी धन का दुरुपयोग कर लोगों को बरगलाया जाता है। ऐसी ऐसी योजनाएं लागू की जाती हैं जिनका सामूहिक विकास पर कोई प्रभाव नहीं है। केवल व्यक्तिगत रूप से लाभ पहुंचा कर चुनाव में लाभ लेने की कोशिश की जाती है।

जनता के सामने सबसे बड़ी समस्या यह है कि राजनीतिक दल एक दूसरे के नेताओं को बेईमान भ्रष्ट और धोखेबाज साबित करने के लिए चीख चीख कर आवाज उठाते हैं। इन बातों पर कितना विश्वास किया जाए या इसके आधार पर राजनीति को ही अविश्वास का केंद्र मान लिया जाए? कोई भी क्षेत्र हो हर क्षेत्र में बुनियादी सिद्धांत होते हैं। राजनीति अकेला एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें कोई भी बुनियादी आधार नहीं है। सत्ता और चुनाव में जीत के लिए जो भी तरीका चाहे वह नैतिक हो अनैतिक हो लेकिन चुनाव जीतने में कारगर हो उसे अपनाना ही राजनीति का सूत्र माना जाता है।

आज सभी राजनीतिक दल इस सूत्र पर आगे बढ़ते हुए दिखाई पड़ते हैं। राजनीतिक सफलता के लिए किसी को भी टारगेट किया जा सकता है। इसके लिए किसी दस्तावेज, प्रमाण की आवश्यकता नहीं दिखाई पड़ती है। राजनीतिक बयानबाजी मर्यादाओं का पालन नहीं करती है। संसदीय शासन प्रणाली में कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका के बीच टकराव और अविश्वास का वातावरण बढ़ता जा रहा है। विधायिका और कार्यपालिका में सांप सीढ़ी का खेल चलता रहता है। निर्णय विधायिका के हाथ में है तो क्रियान्वयन कार्यपालिका के हाथ में है। इन दोनों के हिसाब किताब के घाटे में जनता ही हमेशा रहती है।

भारत में शासन व्यवस्था के हाल पर अगर नजर डालें तो साफ-साफ दिखाई पड़ेगा कि जनसेवक काली कमाई से मालामाल हैं। हाथ में तिरंगा लेकर बिकते नेताओं का कमाल कहीं भी दिखाई पड़ जाएगा। खाने के लिए तरसते बच्चे और मोटा माल रखने वाले सेवकों और नेताओं की कदमताल सामान्य बात हो गई है।

जनता के कंधों पर राजनीतिक बेताल लटके हुए हैं जो सरकारी पैसे लुटाकर अपनी और अपने लोगों की जिंदगी को बदलने की कोशिश कर रहे हैं। यह सारी कोशिश फिजूल है। सबसे पहले जीवन के लक्ष्य को समझना होगा उसके लिए काम करना होगा। राजनीति की सारी प्रगति और उपलब्धि भी जीवन बचाने में सफल नहीं हो सकती। जो चीज नष्ट होना सुनिश्चित है उसके लिए नैतिक-अनैतिक, मर्यादित-अमर्यादित ढंग से आचरण और सवाल न केवल बेमानी है बल्कि जीवन के आत्म कल्याण की दिशा में सबसे बड़ी बाधा हैं।

नोटः आलेख लेखक की सोशल मीडिया पोस्‍ट से साभार







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