भारत की लोकतांत्रिक चेतना का नया कदम है खड़गे की जीत


आजाद भारत में अपार लोकप्रियता के बावजूद पंडित नेहरू ने इस बात पर पूरा ध्यान दिया कि विपक्ष मजबूत बने और जनता के सामने हमेशा चुनने के लिए कुछ बेहतर विकल्प हो।


पीयूष बबेले पीयूष बबेले
अतिथि विचार Published On :

देश की सबसे पुरानी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के लिए विधिवत चुनाव हुआ और श्री मल्लिकार्जुन खड़गे ने श्री शशि थरूर को पराजित कर कांग्रेस का अगला अध्यक्ष बनने का हक प्राप्त किया। कांग्रेस के अध्यक्ष के लिए हुए चुनाव को लेकर बहुत से तटस्थ और संबद्ध टीकाकारों ने अपनी प्रतिक्रिया दी।

ज्यादातर लोगों ने खुद को इस बात तक सीमित रखा कि खड़गे बेहतर उम्मीदवार हैं या थरूर। दोनों ही उम्मीदवारों के बारे में कुशलता से पक्ष रखे जा सकते हैं।

लेकिन मेरी निगाह में बड़ी बात यह नहीं है कि दोनों में से कौन चुनाव जीता। बड़ी बात यह है कि देश की सबसे पुरानी और आज भी देश के हर इलाके में अपना प्रतिनिधि और मतदाता रखने वाली पार्टी के अध्यक्ष के लिए विधिवत चुनाव हुआ। पूरे देश से ब्लॉक लेवल से चुने गए डेलीगेट ने पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव में वोट डाला।

मोटे तौर पर देखें तो श्री मल्लिकार्जुन खड़गे को करीब 8000 और श्री शशि थरूर को 1000 वोट मिले। ऊपर से देखने पर कहा जा सकता है कि यह चुनाव एक तरफा है, लेकिन हारने वाले प्रत्याशी को भी एक हजार से ज्यादा वोट मिलना इतना तो बताता ही है की चुनाव कठपुतलियों के बीच का खेल नहीं था। पलड़ा जरूर एक तरफ झुका हुआ दिखा लेकिन संघर्ष में कमी दोनों तरफ से नहीं थी।

यह भारतीय लोकतंत्र के लिए एक बहुत ही सुखद और भविष्य सूचक घटना है। देश की दूसरी प्रमुख राजनीतिक पार्टी भारतीय जनता पार्टी में अध्यक्ष के लिए कोई चुनाव नहीं होता है। वहां एक अज्ञात आम सहमति से किसी व्यक्ति का नाम सामने आता है और उसे अध्यक्ष नियुक्त कर दिया जाता है। अगर कांग्रेस में नेहरू और गांधी परिवार का दबदबा रहा है तो पंडित नेहरू से लेकर सोनिया गांधी के नेतृत्व तक भारतीय जनता पार्टी का नेतृत्व भी लालकृष्ण आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेई के हाथ में ही रहा है। और उसके बाद से नरेंद्र मोदी भाजपा के एकछत्र नेता हैं।

अगर क्षेत्रीय दलों की तरफ निगाह डालें तो वहां स्थिति और भी अलग है। वहां या तो एक ही व्यक्ति कई कई वर्ष तक बार-बार पार्टी का अध्यक्ष बना दिया जाता है या फिर उसकी मृत्यु या अक्षम होने की स्थिति में बागडोर उसके पुत्र के हाथ में चली जाती है। इस तरह से क्षेत्रीय दलों के अंदर भी आंतरिक लोकतंत्र की सर्वथा कमी है।

लेकिन कांग्रेस पार्टी ने अपने अध्यक्ष के लिए जोरदार चुनाव कराकर भारतीय लोकतंत्र में कुछ तत्वों का समावेश किया है जो यूरोप और अमेरिका के अपेक्षाकृत वयस्क लोकतंत्र में देखने को मिलता है। वहां पार्टी के भीतर ही अपने राष्ट्रपति प्रत्याशी या अन्य इसी तरह के महत्वपूर्ण पद के लिए आंतरिक चुनाव होता है। दावेदार पार्टी के भीतर ज्यादा से ज्यादा समर्थक अपने पक्ष में लाने की कोशिश करते हैं। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जो भी प्रत्याशी जीतकर पार्टी की ओर से राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनता है यदि वह जीत जाता है तो वह पार्टी के भीतर के अपने प्रतिद्वंदी को अपना दुश्मन नहीं समझता बल्कि अपने मंत्रिमंडल में महत्वपूर्ण पद देता है।

कांग्रेस पार्टी ने पहले अहिंसक ढंग से भारत की आजादी की लड़ाई लड़ी और पूरी दुनिया को लोकतंत्र में लड़ाई लड़ने का तरीका सिखाया। उसके बाद आजाद भारत में अपार लोकप्रियता के बावजूद पंडित नेहरू ने इस बात पर पूरा ध्यान दिया कि विपक्ष मजबूत बने और जनता के सामने हमेशा चुनने के लिए कुछ बेहतर विकल्प हो। चुनावों की पारदर्शिता तय करने के लिए निर्वाचन आयोग की स्थापना करना पंडित नेहरू का एक कालजयी कदम था।

और अब श्रीमती सोनिया गांधी ने कांग्रेस पार्टी के भीतर प्रत्यक्ष आंतरिक चुनाव को स्थापित करके भारतीय लोकतंत्र में वह कोहिनूर भी जोड़ दिया है, जिसकी हमारे समाज और संसद दोनों को बहुत जरूरत है।

आज जो अच्छी परंपरा कांग्रेस से शुरू हुई है, आशा है कि वह भारतीय जनता पार्टी और दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों में भी आज नहीं तो कल दिखाई देगी। क्योंकि लोकतंत्र सिर्फ वोट डालकर सरकार बना देने का जरिया नहीं है, वह एक एक आदमी के मन में ऊंचे से ऊंचा ओहदा पाने का ख्वाब देखने का एक वादा भी है।

वंचित से वंचित आदमी के हाथ में किसी न किसी रूप में सत्ता का एक हिस्सा पहुंचाने का माध्यम भी है। लोकतंत्र तब तक मुकम्मल नहीं होता जब तक कि सबसे वंचित व्यक्ति सत्ता के सबसे ऊंचे शिखर तक पहुंचने के बारे में ना सोच सके।

श्री खड़गे और श्री थरूर के चुनाव में यह बात भी सामने आ गई। खड़गे दलित समुदाय से आते हैं और उन्होंने उन सामाजिक विषमताओं को देखा और भोगा है जो दलित समुदाय के लोगों ने हजारों साल से झेली हैं। जब वे सिर्फ 7 साल के थे तो उनकी माता का दंगों के दौरान निधन हो गया था। श्रीमती इंदिरा गांधी ने खुद उन्हें ब्लॉक कांग्रेस कमेटी क्या अध्यक्ष बनाया था। तब से लेकर आज तक उनकी यात्रा चुनावी राजनीति में सफलता के नए झंडे गाड़ने वाली रही है। वह हमारे समय के बाबू जगजीवन राम हैं।

दूसरी तरफ श्री शशि थरूर है जो समाज के उच्च वर्ग से आते हैं। जातिगत आधार पर देखें तो वह सवर्ण समुदाय से हैं। सामाजिक आधार पर देखें तो उन्होंने 29 वर्ष तक संयुक्त राष्ट्र में भारत की नुमाइंदगी की है। वे सोनिया जी के बुलावे पर संयुक्त राष्ट्र से भारत आए और सीधे राजनीति के शीर्ष पदों पर उन्हें प्रवेश मिला। वे आकर्षक, प्रभावशाली और लोगों के दिलों पर अधिकार जमाने वाले प्रखर वक्ता हैं।

दोनों प्रत्याशियों के इस राजनीतिक सामाजिक इतिहास को समझने के बाद यह चुनाव और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। जहां समाज की सबसे वंचित तबके से आए व्यक्ति ने समाज के सबसे प्रभुता संपन्न वर्ग से आए व्यक्ति को लोकतांत्रिक तरीके से और मोहब्बत से पराजित कर दिया। यही तो सामाजिक न्याय है।

लोकतंत्र का यह नया पड़ाव भारतीय राजनीति को नई ताकत देगा। जिस तरह से खड़गे और थरूर एक दूसरे के प्रति पूरी तरह सहृदय और उदार बने रहे उससे आशा है कि भारतीय राजनीति में राजनीतिक प्रतिद्वंदी को दुश्मन समझने का जो चलन पिछले कुछ साल से शुरू हुआ है वह वापस उस दौर में पहुंच जाएगा जब राम मनोहर लोहिया पंडित नेहरू की मुखर आलोचना करते थे और यह भी कहते थे कि इस दुनिया में नेहरू से ज्यादा उनका ख्याल और कोई नहीं रख सकता।

लोकतंत्र के इस नए कदम की बहुत-बहुत शुभकामनाएं।